मुख्तसर जिंदगी मेरी ख़तम नहीं होती।
तकदीर मुझे मेरी क्यों नसीब नहीं होती।
रास्ते लकीर से और मंजिल धुए जैसी हैं।
तभी हौसलों में मेरे ताकत पैदा नहीं होती।
फूक-2 के रिश्तो के अलाव जलाये हैं।
फ़िरभी तन्हाई में उनमें कोई गर्मी नहीं होती।
कहाँ रखूँ कुछ एक हसी के सिक्को को।
मेरी गमो की गुल्लक कभी रीती नहीं होती।
जीने से तो ये मरने का भरम अच्छा है।
पर जहर की तासीर अब पैदा नहीं होती।
कुछ एक रोज और चलूँगा रुक जाऊँगा।
काफिले को मेरी जरूरत महसूस नहीं होती।
भावार्थ...
2 comments:
ajay , bahut khoob likha hai .
par , hatashayon ko apne upar haavi mat hone do .
in rahon mai se hi manjil nazar aati hai.
Thnx ji !!! Arey I am not in Off mood...it is just poem....nth more than that....
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