एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Sunday, August 31, 2008
मेरे दर्द की जो दवा करे !!!
कोई ऐसा शख्स हुआ करे।
जो बेपनाह उदास हो।
पर हिज्र का न गिला करे।
मेरी चाहते मेरी कुर्बते। -2
जिसे याद आयें कदम कदम।
वो सबसे छुपके लिबास सब।
में लिपट के आह बुक करे।
बढे उसका गम तो करार ।
खो दे वो मेरे गम के ख्याल से।
उठे हाथ अपने लिए तो फ़िर भी।
मेर लिए ही दुआ करे।
ये किस्स अजीब-ओगरीब है।
ये मोहब्बतों के नसीब है।
मुझसे कैसे ख़ुद से जुदा करे।
उसे कुछ बताओ की क्या करे।
कभी तय करे युही सोच सोच।
न वो फिराक के फासले।
मेरे पीछे आके दबे दबे।
मेरी आँख मूँद हँसा करे।
खलीफा तुल मसीह रबेह ...
Listen this Wonderful song at http://www.youtube.com/watch?v=VSX3Q102SwA&feature=related
Friday, August 29, 2008
एक और साल एक लम्हा सा बन गया।
एक और साल एक लम्हा सा बन गया।
जिंदगी का कद थोड़ा सा और बढ़ गया।
कुछ ने याद किया तो कुछ मिले भी।
ये तैरती खुशी का बादल था बढ़ गया।
नया दोस्त अपनों से भी करीबी बन गया।
और पुराना दोस्त एक अजनबी बन गया।
जुड़ते बिखरते रिश्तो का नाम है जिंदगी।
अजीब सिलसिला सा एक और बन गया।
थोडी हसी और थोड़ा सा गम सवर गया।
बीते लम्हों का सच याद सा बन गया।
कुछ हासिल है और कुछ हासिल भी नहीं।
आगे ही बढ़ते जन एक आदत सा बन गया।
पल रहे सपनों का एक साल गुजर गया।
मुझसे जुड़े अपनों का एक साल गुजर गया।
छूट गई हर एक चीज़ मेरी एक साल पीछे।
एक और साल एक लम्हा सा बन गया।
भावार्थ...
...२९ अगस्त २००८
Thursday, August 28, 2008
इश्क में हम कहीं के न रहे !!!
इश्क में हम कहीं के न रहे।
न यहाँ के रहे और न वहां के रहे।
गम जो चाक बन नहीं पाए।
वही सब फ़िर अश्क बनके बहे।
उसके हिज्र में लिपटे सभी लम्हे।
मैंने कूचो पे एक पागल बनके सहे।
सभी लब्ज़ आयत से बन गए मेरे।
जो इश्क में मैंने दीवाना बनके कहे।
होश में भी बेहोशी का आलम था।
जिन्दा थे फिर भी बुत बनके रहे।
इस इश्क में हम कहीं के न रहे।
न यहाँ के रहे और न वहां के रहे।
भावार्थ...
गीत-फ़िल्म १९२०
ऐसे जलता है जिया जैसे दिया।
जी न सकूं अब मैं तनहा ओ पिया।
बैचैन मेरे मन का मयूरा।
लगता है तनहा जीवन अधूरा।
तन में दबी है विरह की ज्वाला।
अब तो पिला दे अधरों का प्याला।
तृष्णा पुकारे सुन बैरिया।
ऐसे जलता है जिया जैसे दिया।
जी न सकूं मैं तनहा ओ पिया।
ऐसे जलता है जिया जैसे दिया।
तू है अकेला मैं हूँ अकेली।
सुनी पड़ी है सारी हवेली।
बेताबियों को पल मैं सबर है।
अब होनी वाली जल्दी शहर है।
दूरी मिटा दे मिलकर आ साथिया।
ऐसे जलता है जिया जैसे दिया।
जी न सकूं मैं ओ तनहा पिया।
ऐसे जलता है जिया जैसे दिया।
फ़िल्म -१९२०,
२००८
अपनी पहचान !!! राहत इन्दौरी..
बस्तियां छोड़ के जाने को कहा जाट है।
पत्तियां रोज गिरा जाती है ये हवा।
और हमें पेड़ लगाने मको कहा जाता है।
खून आँखों के चिराग में छुपा लो।
वरना तीरगी रुखसत नहीं होने वाली।
तलवार उठा लो मेरे साथ चलना है तो।
मुझसे बुजदिल की हिमायत नहीं होने वाली।
अबके जो फैसल होगा वो यहीं होगा।
हमसे दूसरी हिजरत नहीं होने वाली।
राहत इन्दौरी...
Wednesday, August 27, 2008
नजराना..राहत इन्दौरी
में आ गया हूँ बता इन्तेजाम क्या क्या है।
फ़कीर , शाह, कलंदर, इमाम क्या क्या है।
तुझे पता नहीं तेरा गुलाम क्या क्या है।
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नए सफर का नया इन्तेजाम कह देंगे।
हवा को धुप चिराग को शाम कह देंगे।
किसी से हाथ भी छुप के मिलायी।
वरना इसे भी मौलबी साहब हराम कह देंगे।
लू भी चलती थी तो वो वादे-सबा कहते थे।
पाँव फैलये अंधेर को जिया कहते थे।
उनका अंजाम तुझको याद नहीं शायद।
और भी लोग थे जो ख़ुद को खुदा कहते थे।
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सूरज,सितारे चाँद मेरे साथ में रहे।
जब तक तेरे हाथ मेरे हाथ में रहे।
साखो से टूट जाए वोह पत्ते नहीं हम।
आंधी से कोई कह दे औकात में रहे।
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कभी महक की तरह गुलो से उड़ते हैं।
कभी धुएँ की तरह पर्वतों से उड़ते हैं।
यह कैंचियाँ हमें क्या ख़ाक रोकेंगे।
हम पारो से नहीं हौसलों से उड़ते हैं।
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राहत इन्दौरी...
Tuesday, August 26, 2008
हकीकत...
इसलिए उससे जरा दूर रहते हैं।
होश में वोः उसे सह नहीं पाते।
इसलिए वो एक नशे में रहते हैं।
कोई इश्क का सहारा लेकर।
तो कोई दौलत का सहारा लेकर।
कोई कवि तो कोई लेखक बन कर।
कोई गीत तो कोई संगीत लेकर।
एक बुने हुए नशे में बहता हैं।
और उस हकीकत से दूर रहता हैं।
भावार्थ...
पेहेन के आते हैं..राहत इन्दौरी
कुलाह तोख से भारी पेहेन के आती है।
अमीर सेहर तेरी तरह कीमती पोषक।
मेरी गली में भिखारी पेहेन के आते हैं।
यही यकिक है शाही के ताज की जीनत।
जो उँगलियों में मदारी पेहेन के आते हैं।
इबादतों की हिफाज़त बझी उनके जिम्मे हैं।
जो मस्जिदों में सफारी पेहेन के आते हैं।
राहत इन्दौरी..
Monday, August 25, 2008
अनजान वो !!!
कौन सी नशीली मय थी जो मुझे पिला दी गई।
मौत आ चुकी थी मेरे हर एक रिसते जर्रे को।
कौन सी दवा थी फ़िर जो मुझे खिला दी गई।
मैं मुफलिसी में इबादत भी न कर सका खुदा।
न जाने कौन सी दुआ थी जो मुझे उढा दी गई।
ये बेरुखी, बेबसी और कसक मेरी आहो में थे।
नजाने कौन सी निखत मेरी सब में उड़ा दी गई।
तीरगी ख़तम न होने का नाम ही न ले रही थी।
कौन से एहसास की बयार थी जो फ़िर चला दे गई।
उस पीर ने जिसे मोहब्बत कहा था बातो बातो मैं।
वही मय, दवा,दुआ,निखत, और बयार बना दी गई।
भावार्थ...
शेरो-शायरी: राहत इन्दोरी...
जो दे रहे हैं फल तुम्हे पके पकाए हुए।
वोह पेड़ मिले हैं तुम्हे लगे लगाये हुए।
जमीन ओढ़ के सोये हैं दुनिया में।
न जाने कितने सिकंदर थके थकाए हुए।
यह क्या जरूरी है की गज़ले ख़ुद लिखी जाए।
खरीद लायेंगे कपड़े सिले सिलाये हुए।
हमारे मुल्क में खादी की बरकते हैं मियां।
चुने चुनाए हुए हैं सारे छटे छटाये हुए।
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यह बर्फ रातें भी बन कर धुआं अब उड़ जाएँ।
एक लिहाफ ओदूं तो सर्दियाँ उद्जएं।,
बहुत गुरूर है दरिया को अपने होने पे।
जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जायें।
रहे ख्याल की मंस्सोबे इश्क हैं हमलोग।
अगर जमीन से फूके तो आसमान उड़ जाए।
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यह दिल किसी फकीर की हुजरे से कम नहीं।
दुनिया यहीं लाकर छुपा देनी चाहिए।
बीमार को मरज की दवा देनी चाहिए।
में पीना चाहता हूँ पिला देनी चाहिए।
अल्लाह बरकतो से नवाजेगा इश्क में।
है जितनी पूँजी लगा देनी चाहिए।
में फूल हूँ तो फूल को गुलदान हो नसीब।
अगर में आग हूँ तो आग बुझा देनी चाहिए।
में ख़ाक हूँ तो ख़ाक से चौकियें मुझे।
में नींद हूँ तो जगा देनी चाहिए।
में ताज हूँ तो तो से पे सजाये लोग।
में ख़ाक हूँ तो ख़ाक उदा देनी चाहिए।
सज बात कौन हैं सो सच कह सके।
में कह रहा हूँ मुझे सजा देनी चाहिए।
सौदा यहीं पे होता है हिन्दुस्तान का।
संसद भवन में आग लगा देनी चाहिए।
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तुफानो से आख मिलाओ, सैलाबों पे वार करो।
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो तेर के दरिया पार करो।
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राहत इन्दौरी...
Saturday, August 23, 2008
मेरे अपने !!!
तूफ़ान ने नहीं ख़ुद बहार ने यहाँ कहर ढाया था।
अंधेरे में चिराग दिखया उसीने मुझे जलाया था।
में क्यों नहीं जाता बता उसके बस एक बुलावे पे।
मेरे पड़ोसी ने मुझे भाई जान कहके बुलाया था।
कॉम की आग इतने भीतर तक जला गई रूह को।
उसके बदले इरादे उस रात मैं समझ न पाया था।
हौसला करके मैंने अपने दरीचे मैं झाँका उसरोज।
उस खुदा को इक बुत सा खड़ा मैंने वहां पाया था।
यु तो हमने ईद और दिवाली भी मनाई है मिलकर।
मातम था पर आज वो मेरे आस्तां पे न आया था।
मुफलिसी और कौमों का इंतेशार हर एक कूचे पे।
खुदा का कौन सा खेल है ये जो मैं समझ न पाया था।
तूफ़ान ने नहीं ख़ुद बहार ने यहाँ कहर ढाया था।
अंधेरे में चिराग दिखया उसीने मुझे जलाया था।
भावार्थ...
Friday, August 22, 2008
खामोश एहसास !!!
हर लफ्ज़ जुबां से बददुआ बनकर गिरा।
कितना बरपा होगा बेवफाई का निश्तर।
लहू रोम रोम से मेरे लावे की तरह गिरा।
बुनता रहा मरासिम-ऐ-इश्क अजनबी से।
संग सा ये रिश्ता मेरा रेत सा बनके गिरा।
हर बाब जिसका मैंने अपने दिल से लिखा वो।
मेरी खुली-किताब से मोरपंख की तरह गिरा।
भावार्थ...
Wednesday, August 20, 2008
मुख्तसर जिंदगी मेरी ख़तम नहीं होती।
तकदीर मुझे मेरी क्यों नसीब नहीं होती।
रास्ते लकीर से और मंजिल धुए जैसी हैं।
तभी हौसलों में मेरे ताकत पैदा नहीं होती।
फूक-2 के रिश्तो के अलाव जलाये हैं।
फ़िरभी तन्हाई में उनमें कोई गर्मी नहीं होती।
कहाँ रखूँ कुछ एक हसी के सिक्को को।
मेरी गमो की गुल्लक कभी रीती नहीं होती।
जीने से तो ये मरने का भरम अच्छा है।
पर जहर की तासीर अब पैदा नहीं होती।
कुछ एक रोज और चलूँगा रुक जाऊँगा।
काफिले को मेरी जरूरत महसूस नहीं होती।
भावार्थ...
Tuesday, August 19, 2008
गमो की गुल्लक !!!
कि आंसू की सुखी सी लकीर बन गई।
चुभन चीर गई इस जिस्म को मेरे।
कसक मेरी आहों का साया बन गई।
उसका जुमूद तोड़ गया मेरे जेहेन को।
उसकी बेवफाई मेरी तन्हाई बन गई।
हिज्र कूट कूट कर भर गया इश्क में।
रंजीदा शब् मेरे लहू में ठंडक भर गई।
बीते लम्हे अदावातो के टुकड़े बन गए।
सनम कि हर बात सौदाई बन गई।
सालो से मैंने युही दर्द को संजोया है।
जैसे ख़ास बेशकीमती सिक्के हों कई।
अब मैं एक दर्द भी न सह पाऊँगा।
जो मेरी 'गमो की गुल्लक' थी वो भर गई।
भावार्थ...
उर्दू :
रंज: दर्द
जुमूद: खामोशी
हिज्र: अलगाव, दूरी
रंजीदा: दुखी, दर्द भरा
अदावतों: खूंखार
सौदाई: दर्द भरी
तू जिस रोज उसे समझ जाएगा।
सर ये तेरा सजदे से झुक जाएगा।
एक माँ बनकर जो तेरा साया लगे।
लोरी सुनाये और सारी रात जगे।
तेरे साथ खेले तेरे साथ रोने लगे।
ममता का सागर तू उसमें पायेगा।
तू जिस रोज उसे समझ जाएगा।
सर ये तेरा सजदे से झुक जाएगा।
बहन बन वो तुझसे दोस्ती करे।
तुझसे लडे और तुझे प्यार करे।
रिश्ते के बंधन में तुझे बाँधा करे।
इतना गहरा रिश्ता और कहाँ पायेगा।
तू जिस रोज उसे समझ जाएगा।
सर ये तेरा सजदे से झुक जाएगा।
जिंदगी मैं जब वो तेरी हसफ़र बने।
बनके अर्धांगिनी तेरी वो दुनिया बुने।
तेरे ख्वाबो के रास्ते से सारे कांटे चुने।
अपने आप मैं तू उसका असर पायेगा।
तू जिस रोज उसे समझ जाएगा।
सर ये तेरा सजदे से झुक जाएगा।
भावार्थ
Monday, August 18, 2008
सोचा है...
पानी क्यों है गीला गीला।
गोल क्यों है जमीन।
सिल्क मैं हैं नरमी क्यों।
आग मैं है गर्मी क्यों।
दो और दो पॉँच क्यों नहीं।
दिल हो गए ग़मगीन क्यों।
तीन है ये मौसम क्यों।
चाँद दो क्यों नहीं।
दुनिया मैं है जंग क्यों।
है लाल ये रंग क्यों।
सरहदे हैं क्यों हर कहीं।
सोचा है क्या तुमने कभी।
सोचा है क्या है ये सभी।
सोचा है...
सोचा नहीं तो सोचो अभी।
बहती क्यों है हर नदी।
होती क्यों है रौशनी।
बर्फ घिरती है क्यों।
बर्क़ क्यों है उठते।
तारे क्यों है टूटते।
बादलो मैं है बिजली है क्यों ?
सोचा है क्या तुमने कभी।
सोचा है क्या है ये सभी।
सोचाj है...
सोचा नहीं तो सोचो अभी।
सन्नाटा सुनाई नहीं देता।
और हवाएं दिखाई नहीं देती।
सोचा है होता है ये क्यों?
आसमां क्यों है नीला।
पानी क्यों है गीला गीला।
गोल क्यों है जमीन।
सिग मैं हैं नरमी क्यों।
आग मैं है नरमी क्यों।
दो और दो पॉँच क्यों नहीं।
सोचा है क्या तुमने कभी।
सोचा है क्या है ये सभी।
सोचा है...
सोचा नहीं तो सोचो अभी।
जावेद अख्तर ( रॉक ऑन !!-2008)
फ़िर देखिये...
खुश है वही जो थोड़ा बताब है।
जिंदगी में कोई आरजू कीजिये।
फिर देखिये...
होठों पे जिसके कोई तो गीत है।
वो हारे भी तो उसकी ही जीत है।
दिल में जो गीत हैं गुनगुना लीजिये।
फ़िर देखिये...
यादों में जिसकी किसी का नाम है ।
सपनो की जैसे उसकी हर शाम है।
कोई तो हो जिसे अपना दिल दीजिये।
फ़िर देखिये...
ख्वाब बनिये जरा।
गीत सुनिए जरा।
फूल चुनिए जरा।
फ़िर देखिये...
जावेद अख्तर...
अंदेशे...कैफी आज़मी
दिल ही शोला है तो शोज़-ऐ-मोहब्बत क्या है।
वोह मुझे भूल गई इसकी शिकायत क्या है।
रंज तो यह है की रो रो कर भुलाया होगा।
वोह कहाँ और कहाँ खौफे-ऐ-गम सोजिश-ऐ-जान।
उसकी रंगीन नज़र और नक्स-ऐ-हिरमान।
उसका एहसास-ऐ-लतीफ़ और शिकस्त-ऐ-अरमान।
तानाज़न एक जमाना नज़र आया होगा।
झुक गई होगी जवाँ -साल उमंगो की जबी।
मिट गई होगी ललक मिट गया होगा यकीन।
छा गया होगा धुंआ घूम गई होगी जमीन।
अपने पहले ही घरोंदे को जो उसने ढाया होगा।
दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाये होंगे।
अश्क आखों ने पिए और न बहाए होंगे।
बंद कमरे में मेरे ख़त जो जलाये होंगे।
एक एक हर्फ़ जमीन पे उभर आया होगा।
उस ने घबराके नज़र लाख बचाई होगी।
मिटाके एक नक्श ने सौ शकल दिखाई होगी।
मेज से मेरी तस्वीर जब हटाई होगी।
हर तरफ़ मुझको तड़पता हुआ पाया बेम्हाल।
बेमहाल छेड़ पे जज्बात उबाल आये होंगे।
गम पशेमन तबस्सुम मैं ढल आये होंगे।
नाम पे मेरे जब आंसू निकल आये होंगे।
सर न सहेली के कांधे से उठाया होगा।
जुल्फ जिद करके किसी ने बांयी होगी।
रूठे जलवों पे खिजा और भी छायी होगी।
बर्क अशवो ने कई दिनों न गिराई होगी।
रंग चहरे पे कई दिन तक न आया होगा।
होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा।
जहर छुप करके दवा जान के खाया होगा।
वोह मुझे भूल गई इसकी शिकायत क्या है।
रंज तो यह है की रो रो कर भुलाया होगा।
कैफी आज़मी...
अजियत: परेशानी
सोज़-इ-मोहब्बत: कंद ऑफ़ लव
हर्फ़ : शब्द
रंज: दर्द
Thursday, August 14, 2008
आज़ादी !!!
गुलामी के बदला चेहरा आज़ादी नहीं होती।
परचम बदल देने से ताकत पैदा नही होती।
जमूरियत का होना ही तो आज़ादी नहीं होती।
अरमान की आज़ादी चाहिए उनमान की नहीं।
जेहेन की आज़ादी चाहिए बस इंसान की नहीं।।
सर का धड से काटना आज़ादी नही होती।
अपनों का रेत सा बिखरना आज़ादी नहीं होती।
भीड़ का जश्न मानना कोई आज़ादी नहीं होती।
परवाज़ की आज़ादी चाहिए आसमान की नहीं।
जेहेन की आज़ादी चाहिए बस इंसान की नहीं।।
खुशी का मुट्ठी भर में सिमटना आज़ादी नहीं होती।
कमजोर को कोई मौका दे देना आजादी नहीं होती।
खाने लायक उगा लेना भी कोई आज़ादी नहीं होती।
पत्थर सी आज़ादी चाहिए उड़ने वाली धूल सी नहीं।
जेहेन की आज़ादी चाहिए बस इंसान की नहीं।।
आवाम को दबाकर राज करना आज़ादी नहीं होती।
इंतेशार में लाखो का जिन्दा जलना आज़ादी नहीं होती।
सिर्फ़ शहीदों की शहादत पे रोना आज़ादी नहीं होती।
जमूरियत की आज़ादी चाहिए हुक्मुरान की नहीं।
जेहेन की आज़ादी चाहिए बस इंसान की नहीं।।
भावार्थ...
Urdu Words:
जेहेन:Intellect, Mind
जमूरियत: Democracy
परवाज़ : Flight
इंतेशार: Fight
Wednesday, August 13, 2008
स्वर्ग मैं आग !!!
सोच सोच कर मुझे रात नीद न आई।
सेकडो कोसो दूर है शिव-आलय घर से।
फ़िर भी चीख रेल की सीटी के साथ आई।
माँओं की सिसकियाँ सुबह गीली कर गई ।
लोगो की हा हा कर रौशनी बन कर गिरी।
दिन इंतेशार के शोर से जाग उठा शायद।
पर सोच सोच कर मुझे रात नीद न आई।
स्वर्ग मैं आग लग गई ये ख़बर आई।
भावार्थ...
Tuesday, August 12, 2008
खामोश मंजर ....
कोई ख्वाइश नहीं कोई हासिल नहीं।
दूर तक सफ़ेद आस्मां सा फैला हुआ।
कोई चीख नहीं कोई दबी बिलख नहीं।
एक तरंग से बंधा सा है मेरा ये वजूद।
कोई रिश्ता नहीं और कोई बंधन नहीं।
मौत का एहसास भी कितना हसी है।
कोई दिक्कत नहीं कोई मुश्किल नहीं।
कोई ख्वाइश नहीं कोई हासिल नहीं।
भावार्थ...
आख़िर क्यूँ !!!
रेत आख़िर क्यूँ जम नहीं जाता।
उफान नसों में कई मौत लायेगा।
खून आख़िर क्यों थम नहीं जाता।
अँधेरा वहसी काफिले को ले आया।
मोम आख़िर क्यों जम नहीं जाता।
डूब कर कितने रिश्ते मिट जायेंगे।
दरिया आख़िर क्यों रुक नहीं जाता।
मुझे मौत की लोरी से नींद आती है।
खवाब आख़िर क्यों पल नहीं जाता।
भावार्थ...
Monday, August 11, 2008
मेरी जिंदगी में यही सब होता रहा।
मेरी जिंदगी में यही सब होता रहा।
मैं कुछ पाता रहा, कुछ खोता रहा।
बचपन के ख्वाब एक सबा थे सभी।
सेहेरा की तपिश में बस सहता रहा।
मेरे अफकारो को न वो बुलंदी मिली।
में गुमनामी का बोझ बस ढोता रहा।
खुदा से जब न कोई भी तवक्को रही।
में बुत-परस्ती में ही गुम होता रहा।
मैं ढूढता रहा उस सनम को यहाँ-वहां।
मैं चाहने वालो से राबिता खोता रहा।
मेरी जिंदगी में यही सब होता रहा।
मैं कुछ पाता रहा, कुछ खोता रहा।
भावार्थ...
उर्दू :
राबिता: सम्बन्ध
बुत-परस्ती- मूर्ती पूजा
तवक्को: उम्मीद
सेहेरा : रेगिस्तान
सबा: Morning breeze
सनम: मूर्ती, मूरत
Friday, August 8, 2008
मजा कुछ और है !!!
उस पतंग की उमंग-ऐ-परवाज़ का मजा कुछ और है।
ख्वाब की नज़र से तो बस बालिश्त भर है आसमान।
दूर उड़ते बादलो को बस छूलेने का मजा कुछ और है।
न रीतो का पहरा हो और न रिवाजों की बेडी हो तो।
फ़िर जश्न-ऐ-आज़ादी मनाने का मजा कुछ और है।
इश्क-ऐ-खुदाई बन जाए 'वरक' किताब-ऐ-जिंदगी का।
तो ख़ुद 'स्याही' बन के लिख जाने का मजा कुछ और है।
धुन बन जाए साँसे और रूह बन जाए जो छेडा राग कोई।
बांसुरी तो कभी ढोलक बन बजने का मजा कुछ और है।
जब लग जाए अटूट लगन उस नटखट कान्हा से फ़िर।
कभी राधा कभी मीरा बन सजने का मजा कुछ और है।
पंछी बनके सफर-ऐ-तन्हाई का तो मजा कुछ और है।
उस पतंग की उमंग-ऐ-परवाज़ का मजा कुछ और है।
भावार्थ...
Thursday, August 7, 2008
कौन हूँ मैं कौन हूँ मैं ?
किसी ने निखत कहा मुझे।
तो किसी का गुल बनी हूँ मैं।
किसीने मय का नशा कहा मुझे।
किसी की इश्क-ऐ-मूरत बनी हूँ मैं।
किसी की नूर बन जियी हूँ मैं।
तो किसी की हूर बनी हूँ मैं।
ख्वाब-ऐ-तरब में पली हूँ मैं तो।
जिस्म-ऐ-तलब भी बनी हूँ मैं।
किसी की इबादत हूँ मैं तो।
कोई मोहब्बत-ऐ-शरर कहे मुझे।
किसी का सुरूर बन जियी हूँ मैं।
कोई हुस्न बेपनाह कहे मुझे।
कोई ख्वाब का पैगाम कहे।
कोई हाथो में मुझे थाम ले।
कोई शोख अप्सरा कहे मुझे।
कोई आगोश में मुझे बाँध ले।
यु तो कितने नाम है मेरे।
फ़िर भी में बे-उनमान हूँ मैं।
मेरी शक्ल जानते हैं सभी।
जीती फ़िर भी 'गुमनाम' हूँ मैं।
भावार्थ....
निखत: खुशबू
मय: शराब
ख्वाब-ऐ-तरब : Beauty of dream
जिस्म-ऐ-तलब: Addiction
इबादत: Prayer
मोहब्बत-ऐ-शरर: Spark of Love
बे-उनमान: Without Title....
Wednesday, August 6, 2008
जिंदगी जीने का कोई इल्हाम तो देदे खुदा।
कोई जजा न सही कोई इल्जाम ही देदे खुदा।
तुने ख्वाब देखने का हुनर तो दिया मगर।
उनको अब परवाज़ का हौंसला तो देदे खुदा।
इश्क का जूनून भी तुने कतरे कतरे में दिया।
मेरे यार को इक वफ़ा की सीख भी देदे खुदा।
न चिराग-ऐ-रुख है न शमा-ऐ-वादा है यहाँ।
तीरगी-ऐ-राह मिटाने को वो नूर तो देदे खुदा।
रेत की दीवार सा है मेरे अरमानो का महल ।
कोई संग तू अपनी खुदाई का उसमें लगादे खुदा।
जिंदगी जीने का कोई इल्हाम तो देदे खुदा।
कोई जजा न सही कोई इल्जाम ही देदे खुदा।
भावार्थ...
इल्हाम: प्रेरणा,inspiration
जज्ज़ा :reward
तीरगी-ऐ-राह: रास्ते का अँधेरा,
चिराग-ऐ-रुख: चेहरे का नूर,
शमा-ऐ-वादा: उम्मीद की रौशनी,
संग: पत्थर
बस इतनी सी बात पे दुनिया खफा है..ताबिश मेहदी...
अमीर-ऐ-शहर से यारी नहीं की।
किसी मंसब किसी ओहदे की खातिर।
कोई तब्दीर बाजारी नहीं की।
बस इतनी सी बात पे दुनिया खफा है।
एक मैंने तुझसे गद्दारी नहीं की।
मेरी बातों में क्या तासीर होती।
मैंने कभी अदाकारी नहीं की।
मेरे ऐबों को गिनवाया तो सबने।
पर किसी ने गम-ख्वारी नहीं की।
ताबिश मेहदी...
Tuesday, August 5, 2008
क्योंकि मैं उनसा न था !!!
क्योंकि मैं उनसा न था।
मुझे देख मुँह फेर जाते रहे।
क्योंकि मैं उनसा न था।
मैं तो एक फ़कीर था।
न जागीर थी न जायदाद।
मेरी बातें मेरी यादें।
बस रह जायेंगी मेरे बाद।
वो मुझसे खार खाने लगे।
क्योंकि मैं उनसा न था।
सादगी और अकेलापन।
भीड़ को कहाँ नसीब था।
जिंदगी को यू देखना।
उनको कहाँ नसीब था।
वो मुझपे जोर आजमाने लगे।
क्योंकि मैं उनसा न था।
मेरे परवाज़ थे चढ़ रहे।
वोह बोझ मैं थे डूबे हुए।
मेरे अरमान थे सजे रहे।
वो घुटन मे थे दबे हुए।
वो मुझसे दूर जाने लगे।
क्योंकि मैं उनसा न था।
मैं और मेरी आवारगी।
उनको नहीं मंजूर थी।
फ़कीर की शान्ह्शाही।
उनको कहाँ मंजूर थी।
वो मुझपे संग बरसाने लगे।
क्योंकि मैं उनसा न था।
भावर्थ...
संग: पत्थर, परवाज़: उड़ान
वो आई तो बड़ी बेरुखी से।
मेरे समंदर में सामने को।
जब आंसू रहे न आहें बची।
मेरे गम को सुनाने को।
अँधेरा साँसों में घुलने लगा।
वो आई नींद में सुलाने को।
आँखें ख्वाब में खुली थी।
बेवफा की झलक पाने को।
आगोश सूना सूना पड़ा था।
उसका एहसास पाने को।
जिंदगी की तमन्ना थी जब।
मौत आई मुझे अपनाने को।
भावार्थ...
Saturday, August 2, 2008
औरत !!! कैफी आज़मी...
क़ल्ब-ऐ-माहौल में लर्जां शरार-ऐ-जंग हैं आज।
हौसले वक्त के और जीस्त के यकरंग हैं आज।
आबगीनों में तपाँ वलवले-ऐ- संग हैं आज।
हुस्न और इश्क हम आवाज़-ओ-हमाहंग हैं
जिस में जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे ।
जिंदगी जेहाद में है सब्र के काबू में नहीं।
न्नाब्ज़-ऐ-हस्ती का लहू कांपती आंसू में नहीं।
उरने खुलने में है नखत ख़म-ऐ-गेसू में नहीं।
जन्नत एक और है जो मर्द के पहलु में नहीं
उसकी आजाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे ।
गोशे गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए।
फ़र्ज़ का भेस बदलती है काजा तेरे लिए।
एकाहार है तेरी हर नर्म अदा तेरे लिए।
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए।
रुत बदल दाल अगर फूलना फलना है तुझे।
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।
कद्र अब तक तेरी तर्रीख ने जानी ही नहीं।
तुझ में शोले भी हैं बस अश्क्फिशानी ही नहीं।
तू हकीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं।
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं।
अपनी तर्रिख का उनवान बदलना है तुझे।
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।
तोरकर रस्म के बुत बारे कदामत से निकल।
जोफ-ऐ-इशरत से निकल, वहम-ऐ-नजाकत से निकल।
नफस के खींचे हुए हलक-ऐ-अजमल से निकल।
कैद बन जाए मोहब्बत तो , मुहब्बत से निकल।
राह का खार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे।
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे ।
तोड यह अजम-शिकन दगदग-ऐ-पंड भी तोड़।
तेरी खातिर है जो ज़ंजीर वह सौगंध भी तोड़।
तुक यह भी ज़म्म्रूद का गुलबंद भी तोड़।
तोड पैमाना-ऐ-मरदान-ऐ-खिरदमंद भी तोड़।
बनके तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे।
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।
टू फलातुनो-अरस्तू ही टू जोहरा पर्वी।
तेरे कब्जे में है गर्दूं, तेरी ठोकर में जमीन।
हाँ, उठा, जल्द उठा पाए-मुक्कादर से जबीं।
मैं भी रुकने का नही वक्त भी रुकने का नहीं ।
लार्खारायेगी कहाँ तक की संभालना है तुझे ।
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।
कैफी आज़मी...
मानव बम...
दमन का बारूद।
आक्रोश का बम बनाता है।
जिसको इंसान अपने।
दिल में बसाता है।
कब फूट पड़ेगा ये मानव बम।
ये कोई नहीं जानता।
कसक की चिंगारी।
कब दिमाग में सुलग जाए।
कब धीरे से बना गुस्सा।
लावा बन के बह जाए।
कब फूट पड़े ये मानव बम।
ये कोई नहीं जानता।
भीतर जो इंतेशार पाला।
कब वो जूनून बन गया।
में जुमूद समझता रहा उसे।
वो कब तबाही बन गया।
कब फूट पड़े ये मानव बम।
ये कोई नहीं जानता।
आस पास जब नज़र टटोली।
कोई हार की 'पिस्टल' लिए।
कोई कॉम का "बम" लिए।
कोई हक की 'लड़ी' लिए।
कब फूट पड़े ये मानव बम।
ये कोई नहीं जानता।
भावार्थ...
Friday, August 1, 2008
झिझक ...
झिझक ...
एक खामोश एहसास।
है जो दबा दबा है ।
झिझक...
एक लम्बी दूरी है।
पास धड़कते दिलो के बीच।
झिझक...
न कही गई दास्ताँ का ।
मिटा हुआ सा रूप है।
झिझक ...
उफनते अरमानो को
थामे कोई डोर है।
भावार्थ...