Thursday, January 8, 2009

मंजर भोपाली !!!

डर बदर भटकना क्या दफ्तर के जंगल में...
बेलचे उठा लेना डिग्रियां जला देना...

मौत से जो डर जाओ जिंदगी नहीं मिलती...
जंग जीतना चाहो कश्तियाँ जला देना...

फ़िर बहु जलने का हक़ तुम्हें पहुँचता है...
पहले अपने आँगन में बेटियाँ जला देना...

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अब अगर अस्मत-ऐ-किरदार ये भी गिर जायेंगी...
आपके सर से यह दस्तार भी गिर जायेगी...

बहते हुए दारे तो पहाडो का जिगर चीरते हैं...
हौसला कीजे ये दीवार भी गिर जायेगी...

हम से होंगे न लहू सीचने वाले जिस दिन....
देखना कीमते -गुलज़ार भी गिर जायेगी...

सफरोशी का जूनून आपमें जागा जिस दिन...
जुल्म के हाथ से तलवार भी गिर जायेगी...

रेशमी लाब्जो में कातिल से न बातें कीजे...
वरना शान-ऐ-गुफ्तार भी गिर जायेगी...

अपने पुरखो की विरासत को संभालो वरना...
अबकी बारिश में यह दीवार भी गिर जायेगी...

हमने यह बातें बुजुर्गों से सुनी है मंजर...
जुल्म धाएगी तो सरकार भी गिर जायेगी...
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वतन नसीब कहाँ अपनी कीमते होंगी...
जहाँ भी जायंगे हम साथ हिजरतें होंगी...

अभी तो कैद हैं जज्बों की आंधियां दिल में...
हमारा सब्र जो तोडा तो कयामतें होंगी...

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हमने उन्हें सीधा कभी चलते नहीं देखा...
फितरत को सपोलो की बदलते नहीं देखा....

पढ़ते हैं मजे लेकर फसादों की वो खबरे...
घर जिन्होंने कभी अपना जलते हुए नहीं देखा...

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मंजर भोपाली...

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