जिंदगी सँभाल ख़ुद को मौत का नशा चढ़ रहा है...
साँप जा चुका कबका अबतो जहर रगों में बढ़ रहा है...
कोई तो आए जो इन उखड़ती साँसों को होसला दे...
सुन्न पड़ रही नसों में कहीं दंश कोई गहरा गढ़ रहा है...
बोझिल आँखें खुलने की कोशिश में बंद पड़ी हैं ...
नीला रंग मेरे शरीर का सर से पाँव तलक पड़ रहा है...
साया मेरा जिंदगी की तरह मुझसे जुदा होने वाला हैं...
धधकती रेत में मुझको जाड़ा अजीब सा जकड रहा है...
शिवलिंग पे लिपटा पड़ा हूँ भोले से मिलन हो गया शायद...
महाशिव रात्रि की शाम है भक्तो का हुजूम अब उमड़ रहा है...
...भावार्थ
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