वो शायर कहता है की उसके जेहन में मेरा ख़याल नहीं आता...
कौन सा मिसरा है उसका जिसमें मेरा नाम बारहा नहीं आता...
कितने ही चाक इस शहर ने अपने सीने में छुपा लिए अब तक...
ये इन्तेआह है मुसलसल हादसों का दर्द इसपे अब सहा नहीं जाता...
सब कुछ हासिल होने पे अब ये कुछ पाने की ख्वाईश क्यों है...
मिजाज इंसान का सदियों से जो ऐसा है क्यों बदल नहीं जाता...
परवाना, पपीहा, रांझा, मिट जाने की हद तक मोहब्बत में जिए...
मोहब्बत का ये खौफनाक अंजाम आख़िर क्यों बदल नहीं जाता...
भावार्थ...
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