उस रोज बादलो में हलचल थी...
बूंदे हवा में घुली घुली सी थी...
परदे लिपट गए एक दूजे से ...
खिड़कियाँ शरमा के बंद हो गई...
खामोशी उड़ रही थी हवा में...
कांच खनकने को बेताब थे...
केतली में पानी की तरह ...
हमारे अरमान उबल रहे थे...
सहमे सहमे से हमारे होंसले...
परवाज़ लेने को उमड़ रहे थे ...
हमारे होश मगर मगरूर थे...
सब थम गया पल भर को ...
और मैंने फ़िर सदियाँ जी ली...
जब तुम आई किसी खाब की तरह...
मेरे आगोश में उस "लम्हे" में ...
...भावार्थ
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