ये पर्बतों के दायरे ये शाम का धुंआ...
ऐसे में क्यों न छेड़ दें दिलों की दास्ताँ...
ज़रा सी जुल्फ खोल दो फिजा में इत्र घोल दो...
नज़र जो बात कह चुकी वो बात मुंह से बोल दो...
की झूम उठे निगाह में बहार का समां...
ये पर्बतों के दायरे ...ये शाम का धुंआ...
ये चुप भी एक सवाल है अजीब दिल का हाल है ...
हर इक ख़याल खो गया बस अब यही ख़याल है...
की फासला न कुछ रहे हमारे दरमियान...
ये पर्बतों के दायरे ... ये शाम का धुंआ...
ये रूप रंग ये फबन चमकते चाँद सा बदन...
बुरा न मानो तुम अगर तो चूम लूँ किरण...
किरण की आज हौसलों में है बाला की गर्मियां ...
ये पर्बतों के दायरे...ये शाम का धुंआ...
साहिर लुधियानवी...
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