एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Saturday, January 31, 2009
मजबूरी !!!
फ़िर उठा लेता हूँ कलम ये जिंदगी जीने के लिए...
चीरता रहता हूँ ज़मीर को अपने ही निश्तर से मैं...
हर्फ़ चुन चुन कर लाता हूँ फ़िर चाक सीने के लिए...
सेहरा मैं निकला हूँ मैं उसका जूनून है इस कदर...
प्यास लगते ही रो पड़ता हूँ मैं अश्क पीने के लिए...
एहसास को खुदा उम्र क्यों नहीं देता सदियों की...
पल मैं निकल जाती है उम्र उस लम्हे को जीने के लिए...
...भावार्थ
Friday, January 30, 2009
लम्हा !!!
बूंदे हवा में घुली घुली सी थी...
परदे लिपट गए एक दूजे से ...
खिड़कियाँ शरमा के बंद हो गई...
खामोशी उड़ रही थी हवा में...
कांच खनकने को बेताब थे...
केतली में पानी की तरह ...
हमारे अरमान उबल रहे थे...
सहमे सहमे से हमारे होंसले...
परवाज़ लेने को उमड़ रहे थे ...
हमारे होश मगर मगरूर थे...
सब थम गया पल भर को ...
और मैंने फ़िर सदियाँ जी ली...
जब तुम आई किसी खाब की तरह...
मेरे आगोश में उस "लम्हे" में ...
...भावार्थ
Thursday, January 29, 2009
मोजजा !!!
बस पारदर्शी अब्र के समंदर में तैरते रहते हैं...
ये शब् में उजाला समेटे हुई चांदनी रात नहीं है...
ये जुगनुओ का कमाल है वही चमकते रहते हैं...
ये गुलज़ार में महकते फूलो की खुश्बू नहीं हैं...
एक कली महकी है जहाँ से भंवरे गुज़रते रहते हैं...
जिससे उजियाला है यहाँ वो दिए का नूर नही है...
बयाँ-ऐ-इश्क है ये पतंगे यहाँ पे बिखरते रहते हैं...
...भावार्थ
Wednesday, January 28, 2009
घडी की सुइयां !!!
आज तनहा है अपने ही खयालो में...
तस्सवुर बीते कल के तैरते रहते हैं ...
उलझे पड़े हैं जवाब ख़ुद के सवालों में...
ऐ काश घडी की सुइयां उलटी चल पड़े...
बीता कल आने वाला कल बन के आ जाए...
लौट आयें दोस्तों को कहे अलविदा सभी...
जो बिखर चुका हैं काश संवर के आ जाए...
उम्र मौसम को मेरी लग जाए खुदा...
मोहब्बत ही मोहब्बत रहे हर तरफ़ युही...
साखो पे जहाँ युही सजा सजा सा रहे...
घरोंदो सा सजर पाये हर मुन्तजिर युही...
सरहदों से लौट आयें सारे शहीद घरो को...
कलेजे के टुकड़े और मांग के सिन्दूर जो हैं...
दद्दू का कन्धा माँ की गोद और वो आँगन...
लौट आयें बचपन सब जन्नत के निशाँ जो हैं...
मैं हर एक दर्द भरे लम्हे में खुशी भर दूँगा...
अश्क जो भी बह निकले सीप मैं लौट जायेंगे...
कमी हमदम को जो महसूस हुई पूरी करनी है...
खाब जो अधूरे रह गए मेरे अब तामीर पायेंगे...
ऐ काश घडी की सुइयां उलटी चल पड़े...!!!
Tuesday, January 27, 2009
नक़श फ़रयादी ..मिर्जा गालिब
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए तसवीर का
काव-काव-ए सख़त-जानीहा-ए तनहाई न पूछ
सुबह करना शाम का लाना है जू-ए शीर का
जज़बह-ए बे-इख़तियार-ए शौक़ देखा चाहिये
सीनह-ए शमशीर से बाहर है दम शमशीर का
आगही दाम-ए शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
मुदद`आ `अनक़ा है अपने `आलम-ए तक़रीर का
बसकि हूं ग़ालिब असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए पा
मू-ए आतिश-दीदह है हलक़ह मिरी ज़नजीर का
...मिर्जा गालिब
मेरा साया !!!
दिन मेरा भागते भागते हांफ जाता है...
और रात दिन के थकन मिटाने में...
आज जब मुझे उसके न होने का एहसास हुआ...
तो रात के अंधेरे में टटोलने निकल पड़ा हूँ...
शायद मेरा साया कहीं मिल जाए...
रात को साए नहीं मिलते सिर्फ़ तन्हाई मिलती है...
...भावार्थ
Monday, January 26, 2009
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथियों..
कर चले हम फ़िदा, जन-ओ-तन साथियों..
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथियों..
कर चले हम फ़िदा, जन-ओ-तन साथियों,
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथियों,
कर चले हम फ़िदा, जन-ओ-तन साथियों,
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथियों,
साँस थम थी गई, नब्ज़ जम थो गई,
फिर भी बदठे कदम को न रुख ने दिया,
कट गए सर हमारे, थो कुछ गम नहीं,
सर हिमालय का हमने न झुक ने दिया,
मरते मरते रहा बांक पण साथियों,
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथियों..
कर चले हम फ़िदा, जन-ओ-तन साथियों,
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथियों..
जिंदा रहेने के मौसम, बहुत है मगर,
जान देने की रुत रोज़ आती नहीं,
हुस्न और इश्क दोनों को रुसवा करे,
वोह जवानी जो खून में नाहाठी नहीं,
आज धरती बनी है दुल्हन साथियों,
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथियों..
कर चले हम फ़िदा, जन-ओ-तन साथियों,
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथियों..
राह कुर्बानियों की न वीरान हो,
तुम सजाते ही रहना नए काफिले,
फाथे का जश्न इस जश्न के बाद हैं,
जिंदगी मौत से मिल रही है गले,
बन्द्लो अपने सर से कफ़न साथियों,
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथियों..
कर चले हम फ़िदा, जन-ओ-तन साथियों,
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथियों..
खेंच दो अपने खून से ज़मीन पर लकीर,
इस तरह आने ने पाये न रावन कोई,
थोड दो हाथ अगर हाथ उतने लगे,
चुने पाये न सीता का दामन कोई,
राम भी तुम, तुम्ही लक्ष्मण साथियों,
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथियों..
कर चले हम फ़िदा, जन-ओ-तन साथियों,
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथियों..
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथियों..
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथियों॥
...कैफी आज़मी
नेता !!!
झूठ मूत का रोना आता है...
और बिन बात के चिल्लाना ?
गाली देना तो आता ही होगा...
किसी के साथ मारपीट...
किसी को धमकी भी नहीं...
चलो बाबू आगे जाओ ...
"गांधी जी कब के मर चुके"...
तुम नेता नहीं बन सकते !!!
अगले साहब आप आयें ....!!!
..भावार्थ
Sunday, January 25, 2009
मेरे ख़त !!!
नज़्म कागज़ से कहीं बढ़ कर है ...
इश्क इंसान से कहीं बढ़ कर है ...
वोह ख़त जो मैंने तुझे लिख भेजे थे...
वो ख़त मेरे तेरे होने से कहीं बढ़ कर है...
आज भी उनमें तेरे हुस्न के जलवे बयाँ हैं ...
आज भी उनमें मेरी दीवानगी के निशाँ हैं...
...भावर्थ
Saturday, January 24, 2009
हादसा !!!
रेल आ रही थी सामने से...
देखाई नहीं देता अंधे हो ?
अभी जान चली जाती तो...
चुप क्यों हो गूंगे हो क्या ?
में पूछ रही हूँ कुछ "हेलो मिस्टर"...
नेहा ने उस अजनबी को झकझोर दिया...
फट पड़ा आंसू का लावा अजनबी आंखों से...
किसके लिए जियूं ?
एक वो ही थी मेरी अपनी ...
और फ़िर क्यों जियूं ?
जब मकसद ही नहीं कोई ...
क्या गलत है उससे मिलने का ख्याल ?
उसने भी यहीं जा दी है कल ...
अजनबी ने तान्या को झकझोर दिया...
फट पड़ा आंसू का लावा नेहा की आँखों से...
..भावार्थ
तनहा !!!
जिंदगी की शाम ढल गई कोई बसर नहीं रहा ...
आए थे अकेले जहाँ में अकेले ही जायेंगे ...
क्यों भला पल भर को फ़िर दुनिया सजायेंगे...
एक एक कर खाब मेरे कांच से बिखर गए...
नजरो को खाबो का कोई सहारा नहीं रहा...
मेरे सफर में अब कोई हमसफ़र नहीं रहा...
मेरे सफर में अब कोई हमसफ़र नहीं रहा...
जिंदगी की शाम ढल गई कोई बसर नहीं रहा ...
तड़प जिंदगी में मेरे कोई बाकी नहीं रही...
ख़बर हमदम की आने को बाकी नहीं रही...
तन्हाई अंधेरे की तरह युही छाने लगी...
न लौ ही रही खुशी की कोई दिया नहीं रहा...
मेरे सफर में अब कोई हमसफ़र नहीं रहा...
मेरे सफर में अब कोई अब हमसफ़र नहीं रहा...
जिंदगी की शाम ढल गई कोई बसर नहीं रहा ...
खुदा तुझसे उम्मीद भी नहीं रही अब मुझको....
रिश्तो से वफ़ा की उम्मीद भी नहीं रही अब मुझको...
दोस्ती कहकहे लगाने पे सिमट गई...
दर्द बांटने को किसी का आसरा नहीं रहा...
मेरे सफर में अब कोई हमसफ़र नहीं रहा...
मेरे सफर में अब कोई हमसफ़र नहीं रहा...
जिंदगी की शाम ढल गई कोई बसर नहीं रहा ...
...भावार्थ
Friday, January 23, 2009
तलब !!!
ये अधूरी तनहा रात मुझमें अपनापन ढूढती है...
अक्सर मुझे करवटो के आगोश से उठा लाती है ...
मुझे भी तलब है कश लगाने की, धुआं उड़ने की...
असल में रात के बहाने मैं अपनी तलब मिटाता हूँ...
इधर उसकी कही को अल्फाजो को पिरोई जाती है...
उधर साँसों में धुएँ की मदहोशी बिखर जाती है...
मुझे सुकून नसीब होता है और रात को हमसफ़र...
आज भी मैंने कुछ "लिखा"आधी रात को उठ कर...
पता नहीं रात ने जगाया था या फ़िर मेरी तलब ने...
और पता नहीं मुझे ये तलब "कश" की है...
या फ़िर युही कुछ "लिखने" की...
...भावर्थ
Thursday, January 22, 2009
ख्वाईश !!!
मुझे दाद-ऐ-सुखन मिली तर्क-ऐ-सुखन के बाद...
दीवाना वार चाँद से आगे निकला गए...
तेहरा नहीं दिल कहीं तेरे अंजुमन के बाद...
इंसान के खायिशो की कोई इन्तेआह नहीं...
दो गज जमीं भी चाहिए दो गज कफ़न के बाद...
होठो से सी के देखिये पछ्तायीयेगा आप...
फितने भी जाग उठते हैं अक्सर घुटन के बाद...
कैफी आज़मी...
अटारी !!!
सेकडों हिन्दुस्तानी सवार थे उसमें यु तो ...
पर हर डिब्बे में काली खामोशी सवार थी...
न कोई उतरने को आकुल था न कोई हलचल थी...
चंद मिनटों तक लोग सोचते रहे माजरा क्या है...
टप टप कर जब कुछ पटरियों पे गिरा ...
तो स्टेशन मास्टर शेरखान ने लालटेन उठायी...
देखा लाशो की माल गाड़ी खचाकच भरी थी...
और खून था जो पानी सा रिस रहा था...
सवारियों को रूह की आजादी मिल चुकी थी ...
सरहद के उस पार मुल्क की तामीर हुई थी...
आज पचास साल बीत गए पर आज भी जब ...
अटारी पे उस पार से जब कोई रेल आती है...
शेरखान डर जाता है की या खुदा ये माल गाड़ी न हो ...
...भावार्थ
Wednesday, January 21, 2009
सर्दियों की धुप तले !!!
इतवार को मेला लगता है...
इसमें सिर्फ़ कालोनी शरीक होती है...
चटाई बिछा बिछा के लोग धुप सेंकते हैं...
बच्चे कुछ खेलते रहते हैं...
बूढे औंधे ,करवट लिए अध्-सोये से रहते हैं...
कोई कान को खुजलाता तो कोई बालों को...
माँये बेटियों की कंघी कर रही है...
बेटीयां माँ के बालो में तेल लगा रही है...
माँ की पलके भारी होने लगती हैं...
धुप भी लोरी बन गई है सर्दी में...
कोई कोई स्वेटर बुन रही है...
मगर धुप का सुरूर कायम है...
कभी कभी सिलाई हाथ से फिसल जाती है...
सहम के फ़िर थाम लेती है ...
किसी ने देखा तो नहीं, फ़िर से मगन हो जाती है...
किसी को इतने किस्से याद हैं
की जैसे कभी ख़तम नहीं होते...
चटाई से चटाई मिली है जैसे कोई फर्श बिछा हो...
मूंगफली की छिलके हर चटाई के आस पास हैं...
कुछ ताश के पत्ते उड़ कर दूसरे पत्तो में मिल जाते हैं...
परेशान लोग हवा को कोसने लगते हैं...
और फ़िर मशगूल हो जाते हैं खेलने में...
मगर धुप भी कहाँ रहती है देर तक...
शाम आने को आधा दिन बचा था और...
धुप की शाम हो गई और सबने चटाईयां उठा ली...
पहले बूढे गए फ़िर जवान और बच्चे सबसे देर में ...
मगर मेला खूब था सर्दियों की धुप तले...
...भावर्थ
इन्कलाब !!!
पर मेधा दीदी हमारी लक्ष्मी बाई है...
गांधीजी ही तो मारे गोडसे ने गोली से...
उनके विचार आज भी तैरते रहते है...
सुना है दीदी के साथ लेखिका दीदी भी हैं...
जो कलम से तख्ता-पलट कर सकती हैं...
दीदी हैं तो हमारी नदी कोई नहीं छीन सकता...
हमारी नर्मदा माता और मेधा दीदी !!!
इतवार की सुबह जब देर तक लोग सोये...
एक ही दिन तो है आराम का...
देर तलक अखबार और चाय की चुस्कियां...
पर ये आज कल के लड़के इधर क्यों आ रहे हैं...
कोई काम धाम नही है क्या इनपे...
अरे ये तो कल के होने वाले डॉक्टर हैं...
"दो बूँद जीवन की"बाँट रहे थे घर घर जा कर...
डॉक्टर दीदी को बच्चो ने घेर लिया...
माएं ले आए अपने नन्हे मुन्नों को...
डॉक्टर दीदी हैं तो पोलियो कहाँ से आएगा...
"दो बूँद जीवन की" और डॉक्टर दीदी !!!
शहर का वो नाला जहाँ पूरे शहर की गन्दगी...
ऐसे निकलती है जैसे वोह घूरा हो...
उसे लगी एक झुग्गी-बस्ती है जो शहर का हिस्सा है...
नाले की बदबू उनको अब महसूस नहीं होती...
उनकी साँसे उसे पहचान चुकी है...
वहां शहर का कोई नहीं आता...
वहां बचपन है, खुशियाँ है, जिंदगी भी है...
कुछ लोग "पढ़े लिखे शहरी" बच्चो को पढ़ने आते हैं...
हर रोज सुबह बच्चो की उम्मीद परवाज़ लेती है...
अपने शहरी दीदी की पाठशाला में...
शहरी दीदी और झुग्गी की पाठशाला !!!
इन्कलाब अब यु ही आएगा...
किसी का इंतज़ार बेवकूफी है...
कुछ बूँद इन्कलाब की तुम दो...
कुछ बूँद इन्कलाब की हम दे ...
आ ही जायेगा इन्कलाब इक दिन !!!
...भावार्थ
Sunday, January 18, 2009
एहसासों की पोटली !!!
तो गिरहें खोलते वक्त लगा मुझे भी कभी ....
इश्क की फुहार ने छुआ था...
जर्द हो चुके ख़त आज भी जवा थे ...
तकरारों में टूटे उसकी चूड़ी के टुकड़े...
शुभ होते हैं यही सोच संभाले हुए थे...
मोर पंख किताब के बीच से झाँक रहा था...
जिसके पन्ने उसकी गोद में मैंने पढ़े थे ...
उसकी खिल खिलाहट भरा चेहरा...
मुझे जिंदगी जीने का सबब देता था...
उस फोटो में मुड़ा हुआ पड़ा था...
मेरा कंगन जो उसने मुझे लौटाया था...
मेरे अश्क उसपे जमे साफ़ नज़र आते हैं...
और कुछ एक नादाँ तोहफे उसके ...
जो मेरे लिए हर हासिल से बढ़ कर थे...
उसकी यादो की धूल उस पे पड़ी है....
धूल साफ़ करनी चाही जो मैंने...
मुस्कुराया भी में पल भर को मगर...
फ़िर मेरे अश्क भी बह निकले...
में इसी लिए इस पोटली को नहीं खोलता...
गिरहें लगा दी फ़िर मैंने एहसासों की पोटली में ...
...भावार्थ
Saturday, January 17, 2009
मेरी कोई चाहत इसे पसंद नहीं शायद ...
अपनी धुन में है मेरी सुध नहीं शायद...
जिंदगी जिद्दी है...
में उसके लिए खाब के खिलोने सजाती हूँ...
और ये मुझे हकीकत के आईने दिखाती है...
जिंदगी जिद्दी है...
रिश्ते बोझ की तरह निभाने को कहती है ...
बे-मंजिल राहो पे युही चलने को कहती है ...
जिंदगी जिद्दी है...
में होश में हूँ तो भी ये नशे में डूबी हुई है...
में खुश हूँ तो भी ये गम में डूबी हुई है...
जिंदगी जिद्दी है...
भावार्थ...
Friday, January 16, 2009
जेरुसलम !!!
आज कल बनके तबाही की ख़बर आती है....
जिन्दगी जो कभी जीने पे फक्र करती थी...
आज कल कोनो में छुपी नज़र आती है...
नई साल मौत का जखीरा ले कर आई थी...
जारी है अभी सिलसिले जाँ लेने के, जाँ देने के ...
हरी भरी जमी का सीना कब्रगाह हो चुका है...
पाक था जिसका जर्रा जर्रा वो अब तबाह हो चुका है...
कौन सी कसक है जो दर्द का गुबार लाती है...
बारूद में डुबोये हुए गोले कितने हज़ार लाती है...
मोहल्लो में अब सिर्फ़ मातम के नजारे हैं...
जर्द चेहरा है चाँद का दर्द में डूबे सितारे हैं...
आँखें आंसू सूख जाने की हद तक हैं रोती ...
बारहा ढूढती हैं उनको जिनसे वस्ल नहीं होती ...
जिंदगी अदनी सी लगती है अब तो मौत के आगे...
खुशी अब हर झूठी लगती है इस खौफ के आगे...
हर तरफ़ कफ़न में लपेटा हुआ सामान...
मलवे में से बदबू आती है कितने रोजो से यहाँ...
कोई तो आए जो इन कटे हाथो को,पेरो को उठा ले जाए...
खून जम चुका है ईटो पे पता ही नहीं चलता...
दीवार सुन्न हो गई हैं चीखों से यहाँ कोई नहीं बसता...
जिधर का रुख करुँ मौत ही मौत बिछी है...
खुदा तू ही बता कौन सी राह है जो मौत से बची है...
अल्लाह है भी या सिर्फ़ वहम है मेरा ...
न कोई रहम की भीख मिले न दिखे खुदा की करिश्माई...
न इबादतों का असर है न नमाजो में वो खुदा की खुदाई ...
जेरुसलम जो घर है दोनों के सपनो का...
बिखरा पड़ा है घरोंदा अब्राहिम के अपनों का...
...भावार्थ
Thursday, January 15, 2009
महाशिव रात्रि !!!
साँप जा चुका कबका अबतो जहर रगों में बढ़ रहा है...
कोई तो आए जो इन उखड़ती साँसों को होसला दे...
सुन्न पड़ रही नसों में कहीं दंश कोई गहरा गढ़ रहा है...
बोझिल आँखें खुलने की कोशिश में बंद पड़ी हैं ...
नीला रंग मेरे शरीर का सर से पाँव तलक पड़ रहा है...
साया मेरा जिंदगी की तरह मुझसे जुदा होने वाला हैं...
धधकती रेत में मुझको जाड़ा अजीब सा जकड रहा है...
शिवलिंग पे लिपटा पड़ा हूँ भोले से मिलन हो गया शायद...
महाशिव रात्रि की शाम है भक्तो का हुजूम अब उमड़ रहा है...
...भावार्थ
Wednesday, January 14, 2009
बाकमाल ठण्ड !!!
गीली गीली सी ये धुप जो सर्दी में निकली है...
धुंध भरी फिजा में बहती हवाएं भी काँप रही है...
ये पत्तियां शाखों के आगोश में खामोशी तले...
टपकती बूंदों से रिसती चुभती ठण्ड भांप रही है...
आती हुई साँस गर्मी की तपिश पाकर सुकून से है....
जाती हुई गर्म साँस निकलते ही धुंध बन जाती है...
लब इस दूसरे को भींचे हुए एहसास की तपिश दे रहे हैं...
ओस गेसुओं पे से फिसलकर काँधे पे थम जाती है...
आज न निकलो घर से तुम्हारी पलके ओस से दबी दबी हैं...
शौल की ऊन भी नाकाम है चीरती हवाको को रोकने में...
मलते हुए हाथ कोशिश तो कर रहे हैं कि गर्मी घूम निकले...
जलते हुए चिराग काफ़ी नहीं सदियों की ठंडक रोकने में...
जिंदगी रुकी नहीं है थम गई है ये कोहरा हवा पे भारी है...
आँखें भी इतनी नम नहीं हैं ओस आँखों पे ठहर गई हैं...
बे-इन्तेआह नफरत करते हैं वो सब अलाव पर बैठे हैं...
सर्दी पल भर को सही पर अमन को दिलो में भर गई है...
भावार्थ...
Tuesday, January 13, 2009
बे-खुदी ले गई कहाँ हम को
देर से इंतज़ार है अपना...
रोते फिरते हैं सारी-सारी रात
अब यही रोज़गार है अपना...
दे के दिल हम जो हो गा'ऐ मजबूर
इसमें क्या इख्तियार है अपना...
कुछ नहीं हम मिसाल-ऐ-'उनका लेकिन
शहर-शहर इश्तहार है अपना...
जिसको तुम आसमान कहते हो
सो दिलों का गुबार है अपना...
मीर ताकी मीर...
Monday, January 12, 2009
ये आवारा ये वहशी नज़रें ...!!!
ये मुझे बारहा ताकती नज़रें...
दो राहों पे तिराहों पे...
इन कूंचों पे चौराहों पे...
जिस्मो को उधेड़ती नज़रें...
ये आवारा ये वहशी नज़रें...
भर देती है जो शर्मिंदगी...
जिनसे टपकती है दरिंदगी...
हैवानियत से देखती नज़रें...
ये आवारा ये वहशी नज़रें...
पानी पानी हो जाती हूँ...
उनको देख जो पाती हूँ...
मुझे गिद्ध सी तकती नज़रें...
ये आवारा ये वहशी नज़रें...
मुझमें खौफ भरती हैं ये ...
मुझमें आक्रोश भरती हैं ये ...
वजूद को ये टटोलती नज़रें...
ये आवारा ये वहशी नज़रें...
भावार्थ...
Sunday, January 11, 2009
कुछ ढूढता हूँ !!!
मुझे अपने आगोश मैं छुपा ले कुछ पल को...
सरहदों से लौटा हूँ थोड़ा सा सुकून ढूढता हूँ...
यही फर्क है तुम्हारी और मेरी मोहब्बत में...
तुम मुझमें लम्हे और मैं तुममे उम्र ढूढता हूँ...
समंदर हो तुम्हे क्या मालूम कीमत पानी की ...
मैं तो एक पपीहा हूँ बस कुछ एक बूँद ढूढता हूँ...
तू नहीं, तेरी याद नहीं, कोई निशानी भी नहीं ...
अब मैं साँस लेने को तेरी कोई तस्वीर ढूढता हूँ...
मुर्दे जिंदगी को खुली आंखों से देखते हैं शायद...
दूर तक फैली लाशो मैं कुछ एक जिंदगी ढूढता हूँ...
इश्तहारों से मेरे चर्चे हर एक कूंचे पे हैं आम हुए...
मिला जिससे ये दोखा वोही हमराज ढूढता हूँ...
भावार्थ...
Saturday, January 10, 2009
पाकीजगी की हद जो होती !!!
दिए की लौ बहकी सी है या तेरा आँचल लहराया है ...
नशा-ऐ-मय जो होती,तेरी नज़र की खता सी होती...
सावन बरसा तो लगा तू खिलखिलाई किसी बात पे ...
खुशबू फूलो की अगर बिखरी होती,तेरी जुबां सी होती...
शाखों की लचक है ये या तुने शोख अंगडाई ली है...
नजाकत बे-इन्तेआह होती बस ,तेरी हया सी होती...
लफ्ज़-ऐ-उर्दू है या तुने फूल एक-इक करके है चुना ...
ग़ज़ल गर शक्ल पाती तो ,तेरे अंदाज़-ऐ-बयाँ सी होती...
नमाजो का, सजदों का ये एहसास तेरे खयालो सा है ...
जो इबादत-ऐ-खुदा होती गर जहाँ में,तेरी दुआ सी होती...
कायनात जो सिमट सकती अगर,तेरी अदा सी होती...
भावार्थ...
Friday, January 9, 2009
मंजर भोपाली ३ !!!
करम करोग करम करेंगे...
हमारी नीयत है तुम्हारी जैसी...
जो तुम करोगे वो हम करेंगे...
चलाये खंजर तो घाव देंगे...
बनोगे शोला अलाव दोगे...
हमें डुबोने की मत सोचना...
तुम्हे भी कागज़ की नाव देंगे...
कलम करोगे तो कलम करेंगे...
जो तुम करोगे वोह हम करेंगे...
तुम उठते हाथो को काट डालो...
की शहर लाशोसे से पात डालो...
फ़िर अगला मौसम हमारा होगा...
चमन का सरदा भी छांट डालो...
हम भी इससे न कम करेंगे...
जो तुम करोगे वो हम करेंगे...
गुलाब दोगे गुलाब देंगे...
मोहाबतो का जवाब दोगे...
खुशी का मौसम जो हमको देंगे...
तुम्हे गुलो की किताब देंगे ...
कभी सर को न कलम करेंगे ...
वो देखो जालिम की हार देखो...
ख़ुद की लाठी की मार देखो...
परो को सबके जो काटता है
समय की खंजर की धार देखो....
चलो जश्न अब हम करेंगे ...
जो तुम करोगे वो हम करेंगे...
हवाओ को अब लगाम देलो...
सुनो न चिंगारियों से खेलो...
मिली जो राई बनेगी पर्वत...
जरा हकीकत से काम लेलो...
सितम की बदले सितम करेंगे...
जो तुम करोगे वोह हम करेंगे...
अभी मकबर है रौशनी की
यऐ आस बाकी है जिंदगी की
अगर बुझाया अलाव तुमने...
न होगी एक बूँद रौशनी की...
चिराग कुछ हम भी कम करेंगे...
सितम करोगे सितम करेंगे....
जो तुम करोगे वो हम करेंगे...
न्याय तुमको पुकारता है...
सुनो जो तुममें उदारता है...
हमेशा जीती है आदमियत....
जो जुल्म करता है हारता है...
सितम का सर हम कलम करेंगे...
जो तुम करोगे वोह हम करेंगे...
मंजर भोपाली...
एक दिन बिक जाएगा
जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल,
दूजे के होंठो को देकर अपने गीत,
कोई निशानी छोड़ ,फिर दुनिया से डोल॥
एक दिन.....
ला ला ल ल लला
अनहोनी पथ में कांटे लाख बिछाए,
होनी तो फिर भी बिछडा यार मिलाये,
ये बिरहा ,ये दूरी,
दो पल की मजबूरी,
फिर कोई दिलवाला काहे को घबराए,
तरम पम,
धारा जो बहती है मिलके रहती है,
बहती धारा बन जा फिर दुनिया से डोल,
एक दिन.....
ला ला ल ल लला
परदे के पीछे बैठी सांवल गोरी,
थाम के तेरे मेरे मन की डोरी,
ये डोरी न छुटे,
ये बंधन न टूटे,
भोर होने वाली है अब रैना है थोडी,
तरम पम,
सर को झुकाए तू बैठा क्या है यार,
गोरी से नैना जोड़ फिर दुनिया से डोल,
एक दिन.....,
ला ला ल ल लला.
न हो उदास अगर वोह तुझे नहीं मिलता...
यहाँ किसी से कोई उम्र भर नहीं मिलता...
हवा-ऐ-शहर बता तुझको तो ख़बर होगी...
बहुत दिनों से मुझे अपना घर नहीं मिलता...
हर एक मोड़ पे मिलते हैं सेकडो चेहरे...
में ढूढता हूँ जिसे मगर वोह नहीं मिलता...
लिखा हुआ है भटकना मेरे नसीबो में...
वो राह-रोह हूँ जिसे राहबर नहीं मिलता...
तारिक सब्ज़वारी !!!
Thursday, January 8, 2009
मंजर भोपाली !!!
बेलचे उठा लेना डिग्रियां जला देना...
मौत से जो डर जाओ जिंदगी नहीं मिलती...
जंग जीतना चाहो कश्तियाँ जला देना...
फ़िर बहु जलने का हक़ तुम्हें पहुँचता है...
पहले अपने आँगन में बेटियाँ जला देना...
------------------------------------------------
अब अगर अस्मत-ऐ-किरदार ये भी गिर जायेंगी...
आपके सर से यह दस्तार भी गिर जायेगी...
बहते हुए दारे तो पहाडो का जिगर चीरते हैं...
हौसला कीजे ये दीवार भी गिर जायेगी...
हम से होंगे न लहू सीचने वाले जिस दिन....
देखना कीमते -गुलज़ार भी गिर जायेगी...
सफरोशी का जूनून आपमें जागा जिस दिन...
जुल्म के हाथ से तलवार भी गिर जायेगी...
रेशमी लाब्जो में कातिल से न बातें कीजे...
वरना शान-ऐ-गुफ्तार भी गिर जायेगी...
अपने पुरखो की विरासत को संभालो वरना...
अबकी बारिश में यह दीवार भी गिर जायेगी...
हमने यह बातें बुजुर्गों से सुनी है मंजर...
जुल्म धाएगी तो सरकार भी गिर जायेगी...
-------------------------------------------
वतन नसीब कहाँ अपनी कीमते होंगी...
जहाँ भी जायंगे हम साथ हिजरतें होंगी...
अभी तो कैद हैं जज्बों की आंधियां दिल में...
हमारा सब्र जो तोडा तो कयामतें होंगी...
-----------------------------------------------
हमने उन्हें सीधा कभी चलते नहीं देखा...
फितरत को सपोलो की बदलते नहीं देखा....
पढ़ते हैं मजे लेकर फसादों की वो खबरे...
घर जिन्होंने कभी अपना जलते हुए नहीं देखा...
------------------------------------------------
मंजर भोपाली...
संसार है एक नदिया !!!
न जाने कहाँ जाएँ हम बहते धारे हैं...
चलते हुए जीवन की रफ़्तार में एक लय है...
एक राग में एक सुर में संसार की हर शय है...
एक ताल की गर्दिश पे ये चाँद सितारे हैं...
न जाने कहाँ जाएँ हम बहते धारे हैं...
धरती पे अमबर की आंखों से बरसती है...
इक रोज यही बूंदे फ़िर बादल बनती है...
इस बनने बिगड़ने के दस्तूर में सारे हैं...
न जाने कहाँ जाएँ हम बहते धारे हैं...
कोई भी किसी के लिए अपना न पराया है...
रिश्तो के उजाले में हर आदमी साया है...
कुदरत के भी देखो ये खेल निराले हैं...
न जाने कहाँ जाएँ हम बहते धारे हैं...
है कौन वो दुनिया में ना पाप किया जिसने ...
बिन उलझे कांटो से हैं फूल चुने जिसने...
बेदाग़ नहीं कोई यहाँ पापी सारे हैं...
न जाने कहाँ जाएँ हम बहते धारे हैं...
साहिर लुधियानवी..
रंग रंग के सांप हमारी दिल्ली में !!!
मिलेंगे जेहर के व्यापारी दिल्ली में....
कैसे कैसे लोग हमारी दिल्ली में...
अटल बिहारी और बुखारी दिल्ली में...
रंग रंग...
तारीको के सारे बरस बताते हैं...
जो आते हैं लूटने वाले आते हैं...
अपनी इस तकदीर की मारी दिल्ली में...
रंग रंग के....
नाग बसे हैं संसद के गलियारों में....
डसने वाले छुपे हुए हैं यारो में...
खतरा बन गई यार की यारी दिल्ली में...
तंग रंग के सांप...
हमें नचाये बीन बजा के धर्मो की...
खून से लिखे पोथी काले कर्मो की...
बैठे हैं नफरत के पुजारी दिल्ली में...
रंग रंग ....
महंगाई ने छु ही लिया आकाश को...
कैसे ढोते जीवन की इस लाश को....
हो गई हर तरकारी महंगी दिल्ली में ...
रंग रंग....
भाषाओँ शूऊ में हमको बाँट कर...
छोटी कर दी प्यार की चादर छांट कर...
एक से बढ़ कर एक मदारी दिल्ली में...
रंग रंग के सांप हमारी दिल्ली में...
बैठे हैं जेहर के व्यापारी दिल्ली में...
राही बस्तावी
कत्ल करने वालो को फासियाँ होती है...
हर तरफ गरीबो की बस्तियां ही जलती है...
बर्क़ के निशाने पे कोठियां नहीं होती...
और होंगे जो तेरी धमकियों से डर जाएँ...
मर्द की कलाई में चूडियाँ नहीं होती...
लाख वो कहें फ़िर भी कैसे आप के होंगे...
वर्फ की चट्टानों पे खेतियाँ नहीं होती...
नींद कैसे आएगी ऐसे बाप को राही...
बेटियों की गुरबत में शादियाँ नहीं होती...
राही बस्तावी...
Wednesday, January 7, 2009
वो मुझसे मिल कर उख्ता गया शायद...!!!
उसने न मिलने का फरमान भेजा है...
खतो में मेरे वो रानायिया नहीं अब ...
मेरे ख़त के पुर्जो का सामान भेजा है...
इंसान है कब तक दिल को बहलाए ...
हकीकत में जीने का पैगाम भेजा है...
मेरी मासूमियत में अब वो बात नहीं...
संजीदगी संजोने का पयाम भेजा है...
भावार्थ...
Tuesday, January 6, 2009
शोर परिंदों ने यु ही न मचाया होगा...
शोर परिंदों ने यु ही न मचाया होगा...
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा...
पेड़ के कांटने वालो को ये मालूम तो था...
जिस्म जल जायंगे जब सर पे न साया होगा...
मानिए जश्न-ऐ-बहार ने ये सोचा भी नहीं...
किसने कांटो को लहू पाना पिलाया होगा...
अपने जंगल से घबरा के उडे थे जो प्यासे...
हर सेहरा उनको समंदर नज़र आया होगा...
बिजली के तार पे बैठा तनहा पंछी ....
सोचता है की यह जंगल तो पराया होगा...
शोर युही न परिंदों ने मचाया होगा...
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा...
कैफी आज़मी !!!
अमावस की रात !!!
चरागों को फ़िर डरने आई है जो...
जिंदगी चूर हो कर इसमें गिर गई ...
भागती भीड़ थी जाने किधर गयी...
आसमान जो उड़ रहा था कबसे थम गया ...
काला सा साया समंदर पे जम गया...
जगी पलकें झुक गई पथरा के...
उठे अरमान सो गए घबरा के...
काली सी फिजा चहुँओर छा गई...
अमावस की रात आज फ़िर आ गई...
भावार्थ...
Monday, January 5, 2009
बिखर गए मेरे सपने !!!
मेरी जिंदगी को ये किसकी लगी नज़र...बिखर गए मेरे सपने !!!
बिखर गए मेरे सपने !!!
बेपनाह खाबो का कारवां कहीं थम गया ...
तुझसे बिछुड़ कर हर मंजर कहीं रुक गया...
रूठ गई तू तो ये मेरी दुआ हुई बेअसर ...
मेरी जिंदगी को ये किसकी लगी नज़र...
बिखर गए सारे सपने मेरे एक एक कर...
बिखर गए मेरे सपने !!!
बिखर गए मेरे सपने !!!
रास्ते बदल गए मंजिले हुई अजनबी...बेगाने से बन गए जो थे अपने कभी...
मेरी इबादत में बता खुदा क्या रही कसर...
मेरी जिंदगी को ये किसकी लगी नज़र...
बिखर गए सारे सपने मेरे एक एक कर...
बिखर गए मेरे सपने !!!
बिखर गए मेरे सपने !!!
छीन कर तुने हर खुशी दी है ये तनहाई...
अश्क के समंदर दिए और दी ये रुसवाई...
छूटे यहाँ के लोग और छूटा मुझसे शहर...
मेरी ज़िन्दगी को ये किसकी लगी नज़र...
बिखर गए सारे सपने मेरे एक एक कर ...
बिखर गए मेरे सपने !!!
बिखर गए मेरे सपने !!!
भावार्थ...
ये पर्बतों के दायरे !!!
ऐसे में क्यों न छेड़ दें दिलों की दास्ताँ...
ज़रा सी जुल्फ खोल दो फिजा में इत्र घोल दो...
नज़र जो बात कह चुकी वो बात मुंह से बोल दो...
की झूम उठे निगाह में बहार का समां...
ये पर्बतों के दायरे ...ये शाम का धुंआ...
ये चुप भी एक सवाल है अजीब दिल का हाल है ...
हर इक ख़याल खो गया बस अब यही ख़याल है...
की फासला न कुछ रहे हमारे दरमियान...
ये पर्बतों के दायरे ... ये शाम का धुंआ...
ये रूप रंग ये फबन चमकते चाँद सा बदन...
बुरा न मानो तुम अगर तो चूम लूँ किरण...
किरण की आज हौसलों में है बाला की गर्मियां ...
ये पर्बतों के दायरे...ये शाम का धुंआ...
साहिर लुधियानवी...
Sunday, January 4, 2009
मिजाज इंसान का सदियों से जो ऐसा है क्यों बदल नहीं जाता...!!!
कौन सा मिसरा है उसका जिसमें मेरा नाम बारहा नहीं आता...
कितने ही चाक इस शहर ने अपने सीने में छुपा लिए अब तक...
ये इन्तेआह है मुसलसल हादसों का दर्द इसपे अब सहा नहीं जाता...
सब कुछ हासिल होने पे अब ये कुछ पाने की ख्वाईश क्यों है...
मिजाज इंसान का सदियों से जो ऐसा है क्यों बदल नहीं जाता...
परवाना, पपीहा, रांझा, मिट जाने की हद तक मोहब्बत में जिए...
मोहब्बत का ये खौफनाक अंजाम आख़िर क्यों बदल नहीं जाता...
भावार्थ...
आखरी मुलाक़ात !!!
फ़िर वोह मिली...कुछ फासले पे बैठी थी वो...
पलकों से उसकी बैचैनी बया होती थी...
खामोशी में उसकी आहें सुनाई देती थी...
कभी कुछ अश्क गालो तक आते ...
और वो उनके दर्द को मुझे तक न आने देती...
दिल के अल्फाजो को होठो तक न आने देती...
कौन सी कहानी थी जो उसने मुझे सुनाई...
में उसे ताकता ही रहा, सुन नहीं पाया...
उसकी सूरत में यादें तलाशता रहा...
उसकी बाहों में मेरे कुछ होश गुम थे...
उसके गेसुओं में मेरी उँगलियों के निशाँ थे...
गुदाज़ गोद से मैंने उसके चेहरे को पढ़ा था...
अपनी हथेलियों से उसकी हथेली को छुआ था...
उसने मुझे समझाया जो वोह ख़ुद न समझी थी...
मुझसे न मिलने की वजह उसने युही कह दी थी...
पर मुझे कुछ याद नहीं उसने क्या कहा...
उसके न मिलने का इरादा बस मुझे याद रहा...घंटो तक खामोशी बोली...और फ़िर कुछ लम्हों तक वो...
में मूक था और उसमें खोया हुआ था...
उसको कल जिंदगी जीनी थी...
और मैंने कल जिंदगी जी ली थी...
भावार्थ...
Saturday, January 3, 2009
अपने चेहरे से जो जाहिर है छुपाये कैसे ... !!!
अपने चेहरे से जो जाहिर है छुपाये कैसे ...
तेरी मर्जी के मुताबिक नज़र आयें कैसे ?
घर बसाने का तस्सवुर तो बहुत बाद का है...
पहले ये तय हो की इस घर को बचाएं कैसे ?
लाख तलवार बढ़ी आती हों गर्दन की तरफ़...
सर झुकाना नहीं आता तो फ़िर झुकाएं कैसे ?
कहकहा आँख का बर्ताव बदल देता है...
हंसने वाले तुझे आँसू नज़र आयें कैसे ?
वसीम बरेलवी...
Friday, January 2, 2009
तुझसे है सब !!!
ओस नहीं है सब्र-ऐ-बूँद टूट गया है...
हवा नही है ये चाँद ने साँस ली है ...
ठण्ड नहीं है सूरज बस रूठ गया है...
बर्फ है जो गुदाज़ गिलाफ है संग का ...
तपिश है जो चांदनी जैसे गुमसुम है...
उफक है जो आसमां के मील है सब...
बहार है जो मचलता हुआ तबस्सुम है...
फिजा है जो सावन की खुमारी है...
रंग हैं जो ये फूलो की मदहोशी है ...
निखत है जो गुलज़ार की एक अदा हैं...
कायनात है जो खुदा की खामोशी है...
सब तुझसे हैं ये और इनके मायने भी...
साए भी , अक्स भी और ये आईने भी...
ये जो भी हैं घुंघरू है तेरे पायेजेब के...
ये तो सब मोती हैं तेरे चन्द्रहार के...
ये छुपे हुए पयाम हैं तेरी अदाओं के...
ये सजे हुए सामान है तेरे श्रृंगार के...
भावार्थ...
अब शिद्दते गम !!!
या दोस्त तस्सली देते हैं या जाम सहारा देता है...
ऐ-दोस्त मोहब्बत के सदमे तनहा ही उठाने पड़ते हैं...
रहबर तो फकत इस रस्ते में दो गाँव सहारा देता है...
दो नाम हैं सिर्फ़ इस दुनिया में एक साकी का एक यजदान ...
एक नाम परेशान करता है एक नाम सहारा देता है...
तूफ़ान के तेवर तो देखो साहिल की कोई उम्मीद नहीं...
मल्लाह की सूरत तो देखो नाकाम सहारा देता है...
पाकिस्तानी शायर
(Singer: मुन्नी बेगम )
तू नहीं तो मेरी शख्शियत अधूरी है !!!
तीरगी-ऐ-तन्हाई सहने को काफ़ी हैं...
वो कुछ लम्हे दूरियां जब सिमट जाए...
दिल की अनकही कहने को काफ़ी हैं...
तेरी हया में लिपटी नज़रें जब देखती हैं...
गम उठने से पहले काफूर हो जाते हैं...
लबो के बुने मोहब्बत के ये अल्फाज़ ...
जेहेन से उतर मेरे दिल में खो जाते हैं...
खाब तेरे सुकूत-ऐ-शब् को सजा कर ...
अंधेरे में चिराग-ऐ-इश्क जलाते हैं...
ख़याल तेरे शोर-ऐ-बाज़ार में भी मुझे...
तेरे एहसास में डुबो तनहा बनाते हैं...
मेरे जहाँ की तामीर तुझसे हैं जाना...
तू नहीं तो मेरी ये जिंदगी अधूरी है....
में तस्वीर हूँ मेरी जान तुझसे है जाना....
तू नहीं तो मेरी शख्शियत अधूरी है...
भावार्थ...
तामीर: Construction
सुकूत:Silence
शब्: Night
तीरगी:Pain
Thursday, January 1, 2009
इतनी नाज़ुक न बनो !!!
इतनी नाज़ुक न बनो, हाय, इतनी नाज़ुक न बनो...
हद के अन्दर हो नजाकत, तो अदा होती है...
हद से बड़ा जाए थो, आप अपनी सज़ा होती है...
इतनी नाज़ुक न बनो, हाय, इतनी नाज़ुक न बनो...
जिस्म का बोझ उठाए नहीं, उठा थम से...
जिंदगानी का कडा बोझ, सहोगी कैसे...
थम जो हलकी सी, हवावों में लचक जाती हो...
तेज़ झोंकों के थपेडों, में रहोगी कैसे...
इतनी नाज़ुक न बनो, हाय, इतनी नाज़ुक न बनो..
यह न समझो के हर इक राह में कलियाँ होंगी...
राह चलनी है तो काँटों से भी चलना होगा...
यह नया दौर है, इस दौर में जीने के लिए...
हुस्न को हुस्न का, अंदाज़ बदलना होगा,
इतनी नाज़ुक न बनो, हाय, इतनी नाज़ुक न बनो॥
कोई रुकता नहीं, ठहरे हुए राही के लिए..
जो भी देखेगा, वोह कतराके गुज़र जायेगा...
हम अगर वक्त के, हमराह न चलने पाये...
वक्त हम दोनों को, ठुकराके गुज़र जायेगा...
इतनी नाज़ुक न बनो, हाय, इतनी नाज़ुक न बनो...
इतनी नाज़ुक न बनो, हाय, इतनी नाज़ुक न बनो...
हद के अन्दर हो नजाकत, थो अदा होती है...
हद से बड़ा जाए थो, आप अपनी सज़ा होती है
इतनी नाज़ुक न बनो, हाय, इतनी नाज़ुक न बनो...
साहिर लुधियानवी...
तुमसे जुदा हूँ मैं और नहीं भी ...
एक साया ही हूँ ....
एक वहम ही हूँ...
एक ख्याल ही हूँ...
तुम्हारा जो है भी और नहीं भी...
एक तस्वीर सा हूँ...
वीरान तामीर सा हूँ...
दिल-ऐ-ताबीर सा हूँ...
जो बनी भी है और नहीं भी...
दिल की आह हूँ...
हिज्र बेपनाह हूँ...
दर्द बेइन्तेआह हूँ...
जो तुझसे जुड़ा है और नहीं भी...
भावार्थ...
बाज़ार...में देश !!!
इंसानियत का दौर बीतने लगा है।
कुछ भी बिकता है सरे बाज़ार आज।
कलेजा, आँख, पूरे का पूरा जिस्म।
हुनर बिकते हैं, बिकते हैं अफ़कार।
बिकती है कला बिकते हैं कलाकार।
खेल बिकते हैं खिलाड़ी बिकते हैं।
अक्लमंद बिकते हैं अनाडी बिकते हैं।
माँ बिकती हैं बच्चे बिकते हैं।
बाप बिकते हैं रिश्ते बिकते हैं।
भीड़ बिकती है, शोर बिकता है।
शयद जब पैसे की अहमियत बढ़ गई।
साड़ी कायनात पैसे मैं सिमट गई।
फ़र्ज़ बिक गया बिक गए उनमान।
बिक गई कुर्सी बिक गए हुक्मुरान।
दोस्ती बिक गई बिक गए समंध।
बिक गए नाते बिक गए अनुबंध।
बिको बिको खूब बिको देश वालो ।
आज तुम बिकोगे, कल तुम्हारी कॉम।
फ़िर सरकार बिकेगी फ़िर बिकेगा आवाम।
सोचो फ़िर कौन सा आज़ादी का गीत गाओगे।
जब तुम खुदी को किसी का गुलाम पाओगे।
भावार्थ...