मुझको सिलने का हुनर सिखा दे दर्जी ।
अब बेवफा और ये चाक बढ़ने लगे हैं।
मुझको बुनने का हुनर सिखा दे जुलाहे।
लोगो के सपने टूट-टूट कर गिरने लगे हैं।
मुझको ढालने का हुनर सिखा दे कुम्हार।
रिश्तों के सांचे टूट कर बिखरने लगे हैं।
मुझको गढ़ने का का सिखा दे नक्काश।
खुदा अब पत्थरो से बहार निकलने लगे हैं।
मुझको सहने का हुनर सिखा दे राँझा।
अब नाकामियाबिओं के मौसम आने लगे हैं।
भावार्थ...
6 comments:
It could give you more facts.
क्या खूब लिखा है.. आप सच में बहुत ही हुनरमंद है हुज़ूर...
वाह....!..क्या हुनर है..... जरा अपनी भी सुन लीजै....."मुझको कविता का हुनर सिखा दे ऐ कवि, मेरे मन की भावनाए उड़ने लगे हैं......."
Thanks a lot Umesh ji...
Thanks a lot anwar...
बहुत बढिया लिखा है।लिखते रहें।
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