Friday, July 25, 2008

खैतान का पंखा !!!


मेरा खैतान का पंखा चलते चलते रुक गया।
मैं गहरी नींद में था फ़िर भी चौंक के उठ गया।

सोचने लगा ये पंखा जो कितनी ही रफ्तारों से चला है।
आज क्यों अचानक मेरी नींद को तोड़ बीच मैं खड़ा है।

ये रुका तो मेरा ख्वाब मुझे छोड़ निकल गया।
यही सोच मैं साढ़े पाँच बजे सैर पे निकल गया।

सामने पार्क मैं पके बाल वालो की तादाद ज्यादा थी।
नई फसल ख्वाब की चादर ओढे सोने पे आमदा थी।

मैंने सोचा ये लोग कभी तो रातो को जगे होंगे।
सुबह देर से उठकर अपने काम पे भागे होंगे।

शायद तभी आदमी जो नहीं होता उसी को पाने को भागता है।
जो सुबहें पहले न मिली उनको पाने अब रोज सुबह जागता है।

उनकी धीमी हुई रफ्तार मुझसे कहने लगी।
इंसा की हालत कहीं पंखे सी तो न होने लगी।

कहीं यह भी अचानक चलते चलते से तो न रुक जायेंगे।
इनके ख्वाब तो मेरी तरह सैर को भी न निकल पायेंगे।

भावार्थ...

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