मुझे कैद से निकलने ख्याल नहीं आता।
सोचती हूँ कि न जाने लोग क्या कहेंगे।
घुटती रहती हूँ रिस्तो के धुएँ में चुप चाप।
सोचती हूँ कि न जाने लोग क्या कहेंगे।
सीता कि तरह समां जाऊं जी करता है।
सोचती हूँ फ़िर कि लोग न जाने क्या कहेंगे।
आहें रोक लेती हूँ जब मेरे कतरे किया जाते हैं।
सोचती हूँ कि ये लोग न जाने क्या कहेंगे।
खामोशी से अफसाना,नज़रना बनती रही हूँ।
यही सोच कर कि न जाने लोग क्या कहंगे।
जिंदगी को एक आदत सा मान लिया मैंने।
यही सोच कर कि न जाने लोग क्या कहेंगे।
भावार्थ...
एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Monday, July 21, 2008
सोचती हूँ कि न जाने लोग क्या कहेंगे !!!
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