मेरा वो रुका 'माझी' जिसमें तेरी यादें दफ़न थी।
आज कल वही आँखों में सैलाब लाने लगा है।
पत्तो की तरह उड़ गए थे मेरे अरमान जिसमें।
वही तूफ़ान मेरे रास्ते में लौट के आने लगा है।
कोई गिला शिकवा न रहे मौत के आगोश में।
नादान उसके जुल्म का हिसाब लगाने लगा है।
जिन हाथ की लकीरों को अपना मुकद्दर समझा।
उनका वजूद भी हथेली से कोई मिटाने लगा है।
लौटना मुमकिन नहीं बीते लम्हों के दरीचे में।
हर शख्स यही सोच कर 'माझी' को भुलाने लगा है।
भावार्थ...
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