कोमौ का इंतेशार न जाने कब ख़तम होगा।
अमन का इन्तेज़ार न जाने कब ख़तम होगा।
अब तो लोग ख़ुद गुस्से की तरह फट पड़ते हैं।
ये अजीब सिलसिला न जाने कब ख़तम होगा।
कैसे लोग आजकल रिस्तो के खंडहर में रहते हैं।
जुमूद का ये कोहरा न जाने कब ख़तम होगा।
जहाँ इंसान को हैवान बनने मं देर नहीं लगती।
वहां पत्थरो को पूजना न जाने कब ख़तम होगा।
कतरा कतरा बेखुदी का दर्द अब सहा नहीं जाता।
यह रिस रहा मेरा वजूद न जाने कब ख़तम होगा।
भावार्थ...
3 comments:
बहुत सही लिखा-
अब तो लोग ख़ुद गुस्से की तरह फट पड़ते हैं।
ये अजीब सिलसिला न जाने कब ख़तम होगा।
बढिया रचना है।बधाई।
Thanks !!! Paramjeet ji...
जहाँ इंसान को हैवान बनने में देर नहीं लगती।
वहां पत्थरो को पूजना न जाने कब ख़तम होगा।
आपके इस शेर पर मुझे कहना है कि "मानो तो मैं गंगा माँ हूँ ना मानो तो बहता पानी"...यदि आस्था हो तो पत्थरों में देवता का वास होता है. जिसे आपने पत्थर कहा है उसे पूजना कभी खत्म नही होगा...किसी की आस्था को चुनौती नही दी जा सकती साहब...
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