Tuesday, July 22, 2008

रोज मर के न जाने मैं कौन सा सुकून पाता हूँ !!!



रोज मर के न जाने मैं कौन सा सुकून पाता हूँ।
बुझ के हर रात मैं सुबह कहाँ से जूनून लाता हूँ।



दो जून का हिसाब का तो कब का हो गया लेकिन।
अब तो मैं सिर्फ़ अपनी तलब के लिए कमाता हूँ।

रोंगटे मेरे खड़े हो जाते हैं भीड़ की चीख सुन के।
फ़िर भी रोज जाकर उसी भीड़ में समां जाता हूँ।

मुझे पता है उनके भीतर का इंसान कबसे दफ़न है।
मैं हस के मिलता हूँ और उनकी तरह हो जाता हूँ।

पता नथा मुझे झूठे मौसम का लुफ्त कैसे उठाते हैं।
अब मैं कसम और वादों को तोड़ रोज मुस्कुराता हूँ।

मंडी, मिलो की ओर कूंच करते हैं जो कीडो की तरह।
भूखे पेट की खातिर मैं रोज उनसे जाके मिल जाता हूँ।

भावार्थ
...

2 comments:

Unknown said...

bhai very well written....every human being can connect himself with this artistically worded poem......

hats off to u.....

aur mujhe bhee aap ne pehchaaan liya hoga...

Anonymous said...

bhai very well written....every human being can connect himself with this artistically worded poem......

hats off to u.....

aur mujhe bhee aap ne pehchaaan liya hoga...