बड़े दिन से तुम्हे कुछ देना चाहती हूँ....
यूँ तो बहुत कुछ है
देने को
लेकिन जाने क्यूँ कुछ ख़ास
कुछ अपना सा देना है तुम्हे
मन में आता है
की पीछे से आके
तुम्हारी आँखें बंद कर दूं
और अपने हाथो की लकीरें
तुम्हारे माथे पे चढा दूं......
बाज़ार में सब दुकाने देख ली
लेकिन वो
फुर्सत में शाम की हवा का झोंका
गुलाबी
फूल पे गिरी नन्ही ओस की बूँद
वो पानी की मीठी आवाज़
नही मिली
कहाँ से लाऊं और दे दूँ तुम्हे
क्यूंकि मैं तुम्हे कुछ देना चाहती हूँ
कुछ अपना सा ....
काश के तुम्हे तितलियों के पंख दे डालूं
या उनका कोई रंग ही दे दूँ
या के बाँध दूँ ऊँगली पे
अंगूठी बना के
बड़ा सा इन्द्रधनुष
तुम्हारेऑफिस बैग में
किसी पेड़ का घना साया रख दूँ
या के सूरज की रौशनी मुठियाँ भर भर के
जेबों में डाल दूँ
देने को बोहोत कुछ है
पर में देना चाहती हूँ
कुछ अपना सा
दिल करता है थाली में रख के
सारी दुनिया का प्यार
परोस दूँ
या ज़िन्दगी की मिठास चममच भर के
खिला दूँ
या चाय के प्याले
में बोहोत सी खुशनुमा
खबरें
और
रात में नहाई चाँदनी की ठंडक
तुम्हारी आंखों में रख दूं
या के वक्त के चने
दोस्ती के कोन में दे दूं
चबाते रहना .......
बस के इत्ता कुछ है देने को
मगर फिर भी
समझ आता नही
क्या दूं
क्यूंकि मैं देना चाहती हूँ
कुछ ख़ास
कुछ अपना सा ........
2 comments:
really a nice poem ruchika !!! after a long gap....but it is very gud...
bas ab ye kalam rukne na payegi!!!!!!!!
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