गया कल आज से कुछ गुस्सा है।
और आज आनेवाले कल से रूठा है।
थमा पानी बहते पानी से नाराज है।
सकरी गलियां चौडी सड़कों से खफा हैं।
रास्ते मंजिलो से नाक मुँह सिकोड़ते हैं।
और फूल अपने कांटो से परेशान है।
ये कलियाँ फूलो से जलने लगी हैं।
जवानी को बचपन चिढा रहा है।
और जवानी से बुढापा खार खा रहा है।
सर्दियाँ बरसात से बात नहीं करती।
और बरसात गर्मियों से गुमसुम है।
शहर गावों की सादगी ढूढ़ते हैं।
और भीड़ तन्हाई का शीशा नहीं देखती।
बादल फलक को देख हैरान है।
और बादल धरती को आँख भर नहीं सुहाते।
रेंगते इंसान को पंछी की परवाज़ खटकती है।
हाथी को शेर की रफ़्तार की कसक है।
अजीब सी बैचैनी पाले ये दुनिया कैसी है।
तुम मेरे से नहीं तो मेरे नहीं हो सकते।
सपने जो में न देखूं मेरे हो नहीं सकते।
शायद हम अपनी शख्शियत के गुलाम है।
दूसरो को अपना न सके इसीलिए गुमनाम हैं।
भावार्थ...
2 comments:
Just too good!!!! Its very intense and with very deep understanding.
अक्सर अपना वही होता है जो अपने जैसा नही होता ।
कविता सुंदर है पर उसके भाव से सहमत नही हूँ।
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