अब हर जगह तो तुम हो मेरे
अंदर भी बाहर भी
मेरे कद के साथ बढ़ते रहते हो,
नसों में खून की तरह चढ़ते उतरते
रहते हो,
आंखों की काली पुतलियाँ,
और सफ़ेद हिस्सा भी तुम हो
तभी कुछ और देख नही पाती,
दिल ओ दिमाग का हर एक
दिल ओ दिमाग का हर एक
किस्सा भी तुम हो,
मेरे होंठो की पूरी लम्बाई तुम्ही हो,
माथे की शिकन
हाथों में लकीरें भी
मेरे अंधेरे की रौशनी की
गहराई भी तुम्ही हो,
ऐसा करती हूँ में की ज़माना शायद
खुश हो जाए फिर
की ख़ुद से तुमको उतार देती हूँ
या फिर चलो ख़ुद को ही मार देती हूँ
उससे पहले में जिस्म के अंदर बाहर
तेजाब डाले दूंगी,
हो सकता है फिर मेरी आंखों में ,
रगों में ,लहू में -दिलो दिमाग जो
तुम हो और तुम्ही तुम हो
वो जल जाओ,पिघल जाओ,
और बन के धुआं उड़ जाओ
मुझमें से से निकल जाओ,
मैं सबकी खुशी और अपने सकूं को
ये भी कर जाउंगी
लेकिन बस एक बात का डर है
की शायद ही तेजाब का
रूह पे कोई असर है.
राधे ...
1 comment:
बहुत अच्छी रचना है।बधाई।
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