उस रोज...
मैं कितनी खुश थी...
मुझसे तेज मेरे कदम चल रहे थे...
उसके आने की ख़ुशी जैसे चुम्बक सी थी...
मैं उसी पुराने लिबास में निकल पड़ी उसके घर की तरफ...
खबर मिली की तुम लन्दन से लौट आये हो...
कितनी बावरी थी मैं भी...
ये भी न सोचा की वक़्त से क्या कुछ नहीं बदलता...
लोग भी तो बदल सकते हैं...
तुम भी तो बदल सकते हो...
चलते क़दमों के साथ खो गयी बीते दिनों में...
वो दिन जब दो लौ एक दिए में जली थी...
एक सार थी रूह दो लोगों की...
उस मद्धम सी पीली शाम को...
अपने हाथ में हाथ लिए तुमने कहा था..
इन् लकीरों में एक लकीर इश्क की होती है...
यकीं दिलाने को तुमने हमदोनो के हाथ एक ब्राहमण को दिखाए...
उसकी बात ही तो सच मान बैठी थी मैं..
लो उसका घर आ गया...
मैं भी चली आई उसके दर तक एक बदहवासी में...
दस्तक दी तो एक लड़की ने दरवाज़ा खोला....
मैंने कहा "करन" है ?
उसने मुड़ कर आवाज़ दी....
"हबी" देखो तुमसे कोई मिलने आया है, और चली गयी अन्दर....
अगले दो पल मैं वहां क्यों रुकी मुझे नहीं पता...
पत्थर बन कर शायद उस पत्थर को देखने जिसे मन में पूजती रही...
या उस जलती लौ को देखने जिसने इस लौ को बुझा दिया था...
"करन" आया और बोला "तुम"...
मेरी साँसे जैसे भीतर ही भीतर हांफ रही थी...
लफ्ज़ जैसे होठो के सेहरा में गुम थे...
और आँखें जैसे फूट पड़ने को बेताब थी..
कदम लौट जाना चाहते थे मगर दिल मजबूर था कम्बखत...
वो नज़र नहीं मिला पा रहा था...
कुछ संकुचा के बोला "तुम अन्दर नहीं आओगी"
वो भूल गया था शायद मैं तो यही सोचती थी की में उसके अन्दर ही कहीं हूँ....
मैं रुक नहीं पायी और कहा "तुमने ऐसा क्यों किया" और रो पड़ी....
वो मेरे आंसूं न देख पाए दौड़ पड़ी उलटे कदम उसके दर से.,...
और सोच रही थी उस ब्राहमण की बात...
उसने कहा था तुम्हारी लकीरें मिलती सी है...
वो सच था शायद..
मगर मैं भूल गयी थी ...
लकीरों का खुद का वजूद कुछ नहीं होता......
मेरी मोहब्बत पत्थर पे लकीर थी ...
"और"
उसकी मोहब्बत समन्दर पे लकीर थी...
भावार्थ...
मैं कितनी खुश थी...
मुझसे तेज मेरे कदम चल रहे थे...
उसके आने की ख़ुशी जैसे चुम्बक सी थी...
मैं उसी पुराने लिबास में निकल पड़ी उसके घर की तरफ...
खबर मिली की तुम लन्दन से लौट आये हो...
कितनी बावरी थी मैं भी...
ये भी न सोचा की वक़्त से क्या कुछ नहीं बदलता...
लोग भी तो बदल सकते हैं...
तुम भी तो बदल सकते हो...
चलते क़दमों के साथ खो गयी बीते दिनों में...
वो दिन जब दो लौ एक दिए में जली थी...
एक सार थी रूह दो लोगों की...
उस मद्धम सी पीली शाम को...
अपने हाथ में हाथ लिए तुमने कहा था..
इन् लकीरों में एक लकीर इश्क की होती है...
यकीं दिलाने को तुमने हमदोनो के हाथ एक ब्राहमण को दिखाए...
उसकी बात ही तो सच मान बैठी थी मैं..
लो उसका घर आ गया...
मैं भी चली आई उसके दर तक एक बदहवासी में...
दस्तक दी तो एक लड़की ने दरवाज़ा खोला....
मैंने कहा "करन" है ?
उसने मुड़ कर आवाज़ दी....
"हबी" देखो तुमसे कोई मिलने आया है, और चली गयी अन्दर....
अगले दो पल मैं वहां क्यों रुकी मुझे नहीं पता...
पत्थर बन कर शायद उस पत्थर को देखने जिसे मन में पूजती रही...
या उस जलती लौ को देखने जिसने इस लौ को बुझा दिया था...
"करन" आया और बोला "तुम"...
मेरी साँसे जैसे भीतर ही भीतर हांफ रही थी...
लफ्ज़ जैसे होठो के सेहरा में गुम थे...
और आँखें जैसे फूट पड़ने को बेताब थी..
कदम लौट जाना चाहते थे मगर दिल मजबूर था कम्बखत...
वो नज़र नहीं मिला पा रहा था...
कुछ संकुचा के बोला "तुम अन्दर नहीं आओगी"
वो भूल गया था शायद मैं तो यही सोचती थी की में उसके अन्दर ही कहीं हूँ....
मैं रुक नहीं पायी और कहा "तुमने ऐसा क्यों किया" और रो पड़ी....
वो मेरे आंसूं न देख पाए दौड़ पड़ी उलटे कदम उसके दर से.,...
और सोच रही थी उस ब्राहमण की बात...
उसने कहा था तुम्हारी लकीरें मिलती सी है...
वो सच था शायद..
मगर मैं भूल गयी थी ...
लकीरों का खुद का वजूद कुछ नहीं होता......
मेरी मोहब्बत पत्थर पे लकीर थी ...
"और"
उसकी मोहब्बत समन्दर पे लकीर थी...
भावार्थ...
No comments:
Post a Comment