मैं तेरे करीब आ कर अब कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...
मैं सेहरा-ए-खायिश और वो समन्दर है...
बुझाने को प्यास अपनी अब कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...
सुना है अब खुदा की पत्थर सी आँखें हैं...
अपने चाक-ए-दिल दिखलाने अब कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...
हर जर्रे में उसका वहम-ए-एहसास ...
उसका दीदार करने को कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...
इस जिस्म में गढ़ा है नश्तर बेवफाई का...
उसके दर के सिवा मरने अब कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...
मैं तेरे करीब आ कर अब कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...
भावार्थ
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...
मैं सेहरा-ए-खायिश और वो समन्दर है...
बुझाने को प्यास अपनी अब कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...
सुना है अब खुदा की पत्थर सी आँखें हैं...
अपने चाक-ए-दिल दिखलाने अब कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...
हर जर्रे में उसका वहम-ए-एहसास ...
उसका दीदार करने को कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...
इस जिस्म में गढ़ा है नश्तर बेवफाई का...
उसके दर के सिवा मरने अब कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...
मैं तेरे करीब आ कर अब कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...
भावार्थ
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