ए थके हारे समंदर...
तू मचलता क्यों नहीं...
तू उछलता क्यों नहीं...
सहिलो को तोड़कर बाहर...
तू निकलता क्यों नहीं...
तू मचलता क्यों नहीं...
तेरी सहिलो पे सितम की बस्तियां आबाद है..
सहर के मेमार सारे खानमा बर्बाद है...
ऐसी काली बस्तियों को...
तू निगलता क्यों नहीं...
तुझमें लहरें हैं न मौजे हैं न शोर...
जुर्म से बेज़ार दुनिया देखती है तेरी ओर...
तू उबलता क्यों नहीं...
ए थके हारे समंदर...
तू मचलता क्यों नहीं...
तू उछलता क्यों नहीं...
कैफ़ी आज़मी !!!
तू मचलता क्यों नहीं...
तू उछलता क्यों नहीं...
सहिलो को तोड़कर बाहर...
तू निकलता क्यों नहीं...
तू मचलता क्यों नहीं...
तेरी सहिलो पे सितम की बस्तियां आबाद है..
सहर के मेमार सारे खानमा बर्बाद है...
ऐसी काली बस्तियों को...
तू निगलता क्यों नहीं...
तुझमें लहरें हैं न मौजे हैं न शोर...
जुर्म से बेज़ार दुनिया देखती है तेरी ओर...
तू उबलता क्यों नहीं...
ए थके हारे समंदर...
तू मचलता क्यों नहीं...
तू उछलता क्यों नहीं...
कैफ़ी आज़मी !!!
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