Sunday, May 31, 2009

समंदर !!!


ये समंदर बहुत गहरा है...
इस धुरी से उस धुरी तक फैला हुआ...
जमी को काटता...
लोगो को बांटता...
ये समंदर बहुत गहरा है...
लहरे जो उठ उठ कर गिरती हैं...
इसकी मर्जी की जिद्दो-जहद है...
इसके गले पर सिमटा हुआ ये रेत...
कश-म-कश की निशानी है...
और इसके सर पे लगे ये पैने पत्थर...
इसने ख़ुद चुने हैं अपने लिए...
सपनो सी रंगीन मछलियाँ तैरती रहती हैं...
अफसानो से शंख गीले रेत में गुम हैं...
जहाँ तक नीला है उफनता नज़र आता है....
उसके बाद ये थमा थमा सा बहा जाता है ...
जितनी नदियाँ आ कर समा जाती हैं...
उतना इसका मिजाज बदला नज़र आता है...
कहीं काला कहीं लाल सागर है...
कभी खुशनुमा तो कभी दर्द में सिमटा ....
ये सोच का समंदर कितना अजीब है...

भावार्थ

Thursday, May 28, 2009

कौने !!!

जब दीवारें आ कर मिलती है...
तब गाँठ नहीं बनती...
एक कौने की तामीर होती है...
कमरे के गम लिए ये कौने....
अक्सर दिखाई नहीं देते...
जब दर्द आंसू की शक्ल लेना चाहता है ...
तो कौने उनको पनाह देते हैं ...
साजिशों के हमराज हैं ये कौने...
दीवारों की शक्ल बदल सकती है...
मगर इन कौनो की नहीं....
आज जब दीवारे गिरी तो ...
तो बस कौने रह गए...
टूटे रिश्ते से बनी गाँठ की तरह...

भावार्थ...





Tuesday, May 26, 2009

एक नज़्म !!!

कोरे कागज पे क्या लिखा जाए...

सोचता हूँ ! एक नज़्म लिखूं...

मेरे महबूब के नाम...
एहसासों का पैगाम...

एक नज़्म लिखूं...

दिल के गलियारों से चुनी...
शहद से अल्फाजो से बुनी...

एक नज़्म लिखूं...

जुबान पे जो आ ना सकी...
जेहेन में जो समां न सकी...

वो बात लिए ..एक नज़्म लिखूं...

खयालो को मेरे आयना मिले...
खायिशो को मेरे मायना मिले...

ऐसी कुछ नज़्म लिखूं !!!

ऐ काश ! यहाँ मोहब्बत ही मोहब्बत होती...
तो दुनिया में कोई भी आह न बही होती...

कोरे कागज़ पे क्या लिखा जाए...

सोचता हूँ !एक नज़्म लिखूं...

क्यों नही हर्फ़ में दर्द को उकेरा जाए...
आंसू को पेन की निब से बिखेरा जाए....

ऐसी एक नज़्म लिखूं ...

जो मसली हुई सिसकियाँ लिए हो...
खौफ से जिसने अपने होठ सिये हों....

ऐसी एक नज़्म लिखूं...

जो रहम की भीख मांगती हो...
भूख और गरीबी में पेट पालती हो...

ऐसी एक नज़्म लिखूं...

जो निर्वस्त्र बाज़ार में खड़ी हो...
आबरू जिसकी आँखों में उडी हो...

ऐसी एक नज़्म लिखूं...

मगर इस समंदर के ये दो किनारे क्यों...
दुनिया सिर्फ़ दर्द और खुशी के सहारे क्यों...

सोचता हूँ ! एक ऐसी नज़्म लिखूं...

जिसके गम उसकी हसी की छाव में हों...
छाले जो भी हौं झूमते नाचते पाव में हों...

एक ऐसी नज़्म लिखूं...

जो टूटे रिश्तो को जोड़ती नज़र आए...
काली रात जो हो तो उसकी सहर आए...

एक ऐसी नज़्म लिखूं...

जो तरंग-ऐ-उम्मीद हारे दिलो में भर दे...
जो चिल्मिलती धूप में ताप कुछ कम कर दे...

एक ऐसी नज़्म लिखूं...

जहाँ इकरार हर एक तकरार के बाद हो...
जहाँ इजहार हर एक इंतज़ार के बाद हो...

एक ऐसी नज़्म लिखूं....

तड़पते मेरे जेहेन को सुकून दे जाए ...
कोरे कागज़ को एक वजूद दे जाए...

भावार्थ

Sunday, May 24, 2009

अकर्मण्य !!!

जागने की सोचता हूँ जो में...
पसीने में लथ-पथ लोग नज़र आते हैं...
रोटी को दौड़ते जिस्म नज़र आते हैं...
झूठ को तोलते बोल नज़र आते हैं...
गरीबों को निचोड़ते अमीर नज़र आते हैं...
अपंगो को झटकते सुडोल नज़र आते हैं...
कला को बेचते कलाकार नज़र आते हैं...
जिस्मो को परोसे अफ़कार नज़र आते हैं...
जमीर को छोड़ते इंसान नज़र आते हैं...
दरिंदगी बिखेरते हैवान नज़र आते हैं...
कतारों में लगे लाखो वजूद नज़र आते हैं...
कितने दर्द जेहेन में मौजूद नज़र आते हैं...
अश्क भर आते है मेरी आंखों में...
और मैं लौट जाता हूँ नींद मैं...
उन सपनो में जो खुदा ने मुझे बख्शे हैं...

भावार्थ...

क्या लिखा जाए !!

क्या लिखा जाए.
अहद-ऐ-नौ में क्या लिखा जाए,
अहवाल-ऐ-बशर ना लिखा जाए,

बेरूह कशाकाश में कैद जीस्त,
शिराज़ा-ऐ-बरहम कहाँ लिखा जाए,

कायनात वां खुदा तेरी तरफ ,
बस मेरी सम्त माँ लिखा जाए,

निकला मखलूक रूह का जनाज़ा,
आज तो फैंसला लिखा जाए,

तालुक नही कोई शादियानो से,
मुझको अहल-ऐ-वफ़ा लिखा जाए।

मानी:
अहद-ऐ-नौ =naya daur /waqt।
अहवाल-ऐ-बशर =aadmi ka haal।
कशाकाश =kheencha taani।जीस्त=life.
शिराज़ा-ऐ-बरहम bikhre huay pages।
सम्त =taraf,aur।
मखलूक =allah ki banayi hui।
तालुक =relation।
शादियानो =khushiyaan।
अहल-ऐ-वफ़ा vafa karne vaala.

मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी ,प्रिये तुम आते वाब क्या होता?

मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता?


मौन रात इस भांति कि जैसे, कोई गत वीणा पर बज कर,
अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,
कान तुम्हारे तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?

तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले,
पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूमघूम फिरफिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं,
मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता?

उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,
अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपने होश सम्हाले,
तारों की महफिल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से,
मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता?

बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती,
रगरग में चेतनता घुलकर, आँसू के कणसी झर जाती,
नमक डलीसा गल अपनापन, सागर में घुलमिलसा जाता,
अपनी बाँहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता?

Saturday, May 23, 2009

वादा !!!

तुम बस मुझे मोहब्बत के तिनके देती रहो...
दुनिया अपनी जन्नत से कहीं बढ़कर होगी...

अपने रिश्ते को लैला-मजनू की बुलंदी न मिले...
पर अपने रिश्ते की ईमारत उनसे बढ़कर होगी...

दिल से उठे वादे जो मेरे लबो ने बुने हैं ....
हर एक लफ्ज़ की तामीर उम्मीद से बढ़कर होगी....

कायनात जो लोगो को एक वहम सी लगती है...
लोगो की तस्सली हमारी कहानी पढ़ कर होगी...

तुम बस मुझे मोहब्बत के तिनके देती रहो...
दुनिया अपनी जन्नत से कहीं बढ़ कर होगी...

भावार्थ ...

गिलह है शौक़ को

गिलह है शौक़ को दिल में भी तन्‌गी-ए जा का
गुहर में मह्‌व हुआ इज़्‌तिराब दर्‌या का

यह जान्‌ता हूं कि तू और पासुख़-ए मक्‌तूब
मगर सितम-ज़दह हूं ज़ौक़-ए ख़ामह-फ़र्‌सा का

हिना-ए पा-ए ख़िज़ां है बहार अगर है यिही
दवाम कुल्‌फ़त-ए ख़ातिर है `ऐश दुन्‌या का

ग़म-ए फ़िराक़ में तक्‌लीफ़-ए सैर-ए गुल न दो
मुझे दिमाग़ नहीं ख़न्‌दहहा-ए बे-जा का

हनूज़ मह्‌रमी-ए हुस्‌न को तरस्‌ता हूं
करे है हर बुन-ए मू काम चश्‌म-ए बीना का

दिल उस को पह्‌ले ही नाज़-ओ-अदा से दे बैठे
हमें दिमाग़ कहां हुस्‌न के तक़ाज़ा का

न कह कि गिर्‌यह ब मिक़्‌दार-ए हस्‌रत-ए दिल है
मिरी निगाह में है जम`अ-ओ-ख़र्‌च दर्‌या का

फ़लक को देख के कर्‌ता हूं उस को याद असद
जफ़ा में उस की है अन्‌दाज़ कार-फ़र्‌मा का

...मिर्जा गालिब

Friday, May 22, 2009

संदूक !!!

कितनी चमक है इनमें...
सजे सजे से ये संदूक जो है यहाँ...
इनपे नक्काशी की है दुनिया ने...
इनको ऐसी जगह रखा है लोगो ने...
की सबकी निगाह इनपे ही रूकती है...
रंग इसके इतने रिझाते हैं की बाजार गर्म है...
बोलियाँ लगाते लोग, जश्न मनाते लोग...
टूटे फूल उडाते लोग, रस्म निभाते लोग ...
इन्ही संदूकों को घेरे खड़े है...
इस संदूक पे मगर एक ताला पड़ा है...
लोग आ-आ कर उस ताले को निहारते हैं...
और उस संदूक की सीरत को आंकते हैं...
मगर ताले के आस पास उखडा हुआ लोहा...
सुबकते हुए कुछ कह रहा है...
की ये संदूक जीको लोग बाज़ार में देख रहे हैं....
ये संदूक जो सजा धजा सा रखा है...
असल में रिश्तो का है !!!
जो चमक तो रहा है मगर भीतर से रीता है...

भावार्थ...

Wednesday, May 20, 2009

तबके खेलों में

अपनी तहजीब के जामे में रहा करते थे ,
हम भी , बेटे ,कभी कालेज में पढ़ा करते थे ,

पहले टयूशन की दुकाने भी नहीं होती थी ,
फिर भी हैरत है की हम टॉप किया करते थे ,

खुश्बुये ,हमको भी बैचैन बहुत करती थी ,
फिर भी हम आँखों से फूलों को छुआ करते थे

, अब तो शागिर्दों से उस्ताद डरा करते हैं,
पहले उस्तादों से शागिर्द डरा करते थे,

जाने किन चीखों से ज़ख्मी है ,वे फ़िल्मी गाने ,
घर में मिल बैठ के हम जिनको सुना करते थे ,

पहले फ्रिज ,टी।वी.औ'कूलेर भी नहीं थे घर में ,
फिर भी आराम से हम लोग जिया करते थे ,

अबके खेलों में तोह हरकत भी नहीं होती है ,
तबके खेलों में पसीने भी बहा करते थे.
बड़े दिन से तुम्हे कुछ देना चाहती हूँ....
यूँ तो बहुत कुछ है
देने को
लेकिन जाने क्यूँ कुछ ख़ास
कुछ अपना सा देना है तुम्हे

मन में आता है
की पीछे से आके
तुम्हारी आँखें बंद कर दूं
और अपने हाथो की लकीरें
तुम्हारे माथे पे चढा दूं......

बाज़ार में सब दुकाने देख ली
लेकिन वो
फुर्सत में शाम की हवा का झोंका
गुलाबी
फूल पे गिरी नन्ही ओस की बूँद
वो पानी की मीठी आवाज़
नही मिली
कहाँ से लाऊं और दे दूँ तुम्हे
क्यूंकि मैं तुम्हे कुछ देना चाहती हूँ
कुछ अपना सा ....

काश के तुम्हे तितलियों के पंख दे डालूं
या उनका कोई रंग ही दे दूँ
या के बाँध दूँ ऊँगली पे
अंगूठी बना के
बड़ा सा इन्द्रधनुष
तुम्हारेऑफिस बैग में
किसी पेड़ का घना साया रख दूँ
या के सूरज की रौशनी मुठियाँ भर भर के
जेबों में डाल दूँ
देने को बोहोत कुछ है
पर में देना चाहती हूँ
कुछ अपना सा

दिल करता है थाली में रख के
सारी दुनिया का प्यार
परोस दूँ
या ज़िन्दगी की मिठास चममच भर के
खिला दूँ
या चाय के प्याले
में बोहोत सी खुशनुमा
खबरें
और
रात में नहाई चाँदनी की ठंडक
तुम्हारी आंखों में रख दूं
या के वक्त के चने
दोस्ती के कोन में दे दूं
चबाते रहना .......
बस के इत्ता कुछ है देने को
मगर फिर भी
समझ आता नही
क्या दूं
क्यूंकि मैं देना चाहती हूँ
कुछ ख़ास
कुछ अपना सा ........





Monday, May 11, 2009

लत !!!

हर दिन जब रोजी कमा कर लौटता हूँ...
अपनों से चंद बात कहता हूँ...
उनको अपना होने का एहसास देता हूँ...
पर घडी शाम ढलते ही टिक-टिकाने लगती है ...
मुझे अगली सुबह की शक्ल दिखने लगती है...
में मजबूर हो कर उस जाल से निकलता हूँ...
सफ़ेद कुरते-पायजामा पहनता हूँ...
अपने पीले खादी ठेले को लिए छत पे निकलता हूँ...
तोहफे में मिला पारकर पेन और वो डायरी खुलते हैं...
और मेरे चश्मे के भीतर से जान्लती आँखें...
मेरे जेहें में बनते उफनते सेलाब को...
कभी मस्ती में घुले शहद से खाब को....
अल्फाजो के छल्ले पेन की निब से गिरने लगते हैं...
तन्हाई में शाम इसतरह जगमगाने लगती है...
में डूब जाता हों मस्ती में...
रफ़्तार बढ़ जाती है मेरे पारकर की धीमे से...
चश्मे को मेरे दायें हाथ की उंगलियाँ बार बार संभालती हैं...
पन्ना कब भर गया पता ही न चला...
घंटे कब बीत गए....और पता न चला....
यु लिख के न जाने क्या मिलता है मुझे...
पन्नो में उडेल के ख़ुद को क्या मिलता है मुझे...
पर मजबूर हूँ ख़ुद से शायद मैं भी...
लिखने की लत का शिकार हूँ में भी...

भावार्थ...

Sunday, May 10, 2009

मन्नत !!!

खुदा तूने अगर तारा जो बनाया है मुझे...
तो अब कुछ चमकने का हुनर भी दे दे...
लोग जब तेरे सजदे के लिए सर उठाते हैं...
तो मुझे बस बुझा बुझा सा पाते हैं...
तुझसे जो करिश्मे की उम्मीद करते हैं...
मुझमें तेरे बे-असर होने का सबब पाते हैं...
में शर्म से अब रातो को नहीं निकलता...
उफक के कौने में कहीं छुपा रहता हूँ...
तुझसे करोडो की उमीदें बंधी हैं...
में इसीलिए मद्धम सा सुलगता रहता हूँ...
तू शहंशाह है तू गरीब नवाज़ है सबका...
इबादतो में फेलाए हुए तेरे नूर की बूँद ही दे दे ...
में भी जगमगा उठून कुछ एक पल के लिए...
ऐसी तकदीर तू मुझ बे-चिराग को दे दे...
कहीं ऐसा न हो कोई तुझसे आस बाँध ले ...
मैं गिरू और कोई तेरा बंदा मन्नत मांग ले ...

भावार्थ...

मैं बाज़ार में !!!

हासिल करने का खाब था मेरा...
जो अब कहीं बिखरा सा पड़ा है...
मोहब्बत का साए की उम्मीद थी...
जो रिश्तो में कहीं उलझी पड़ी है...
कुछ दोस्तों के कह-कहे की आस थी...
जो अब तन्हाई में बुझ सी गई है...
फनकार बनने की खायिश थी दिल में...
रोजी जुटाते जुटाते अब मिट गई है...
गम सुनने को जो एक हमदम मिला ...
अपनी दुनिया बनने में कहीं गुम है...
जोश जो एक दहलीज़ पे कभी उफन पड़ता था...
आज बर्फ बन कर कहीं कोने में छुपा बैठा है...
सपनो को बुनते बुनते मेरे धागे ऐसे उलझे...
खाब और मैं हौले हौले बोझिल से हो गए...
तभी आज मैं...
निस्तेज चेहरा लिए, रोजी का थैला लिए...
मेरा बिखरा हुआ सा वजूद हाथ फेलाए ...
झूठी दुनिया से झूठे सपनो की आस लगाये...
होठो पे झूठी खुशी की लड़ी सजाये...
बाज़ार मैं खडा है बिकने के लिए...
कोई तो आए जो रूहानी दुनिया बुनने वाले को...
सपनो को गजलो, नज़मो में बुनने वाले को...
आज भर के लिए ही सही मगर रोजगार तो दे...
जेहेन की न सही भुजाओ की कीमत-ऐ-बाज़ार तो दे...


भावार्थ...

Tuesday, May 5, 2009

शख्स !!!

आज भी जब उक्ता जाता हूँ झूठ ढोते ढोते...
ऐ.सी की हवा में दिन बिताते बिताते...
ये ऍफ़.एम् के वही गाने गाते गुनगुनाते ...
बड़ी गाड़ियों में युही मंजिले पाते पाते ...
टाई गले की नसों तक दबाते सजाते ...
लोगो के सामने झूठ मूठ मुसुकराते मुस्कुराते ...
फ़ोन पे अजनबियों से बतियाते बतियाते ...
पीजा बर्गेर से अपनी भूख को मिटाते...
आज भी जब उक्ता जाता हूँ यु जीते जीते...
तो...
में नंगे पैर निकल जाता हूँ सुबह सुबह...
किसी नुक्कड़ पे चाय की प्याले थामे...
खुली हवा के कश लिया करता हूँ...
जमीन पे बैठ मिटटी को महसूस करू ...
कुँए से ओख भर पानी पियूं ...
भूख जब उदार में हिलोरे लेती है
कभी मसली प्याज और एक रोटी ...
तो कभी एक रोटी और आधी अचार की मिर्च...
सुकून जन्नत का देती है
तब लगता है कितनी झूठ है सब...
स्वाद खाने में नहीं भूखे होने में है...
तो कभी युही कुछ गजलें गुनगुना लेता हूँ...
उनके आयने आज कितने बेमाने हैं...
मन मेंं युही सोच मुस्कुरा लेता हूँ...
जब सब बेमानी लगता है ...
शाम मन्दिर की सीढियों पे बैठ॥
कृष्ण कनाहिया का कीर्तन सुन लेता हूँ...
टहलते तल्हलते दुनिया की बदली सूरत पे...
हंस लेता हूँ और ऑंखें मूँद लेता हूँ...
सोचता हूँ....
हर चीज़ सुहानी है अगर सोच सही है...
हर इंसान अपना है अगर नीयत सही है...
मगर कहाँ हूँ में और यह दुनिया कहाँ है...
किस ज़माने का हूँ और ये कौन सा जहाँ है...
लेकिन में बेफिक्र हूँ...
जब भी में उक्ता जाता हूँ झूठ को ढोते ढोते...
में इसी तरह जिंदगी को दिन भर में जी लेता हूँ...
जिन्दा हूँ इसी एहसास को कभी कभी जी लेता हूँ...

भावार्थ...

लौट आया !!!

मोहब्बत की हद न मिली मुझे मोहब्बत में...
आख़िर ख़ुद को मय के प्याले में डुबो दिया ...

बारहां उसकी आँखें देखी, जलवे देखे हमने...
आख़िर कलम को सोच को स्याही में डुबो दिया..

फीकापन था उसकी अदाओ में शोखियों में...
हमने तन्हाई को दोस्तों की सादगी में डुबो दिया...

भावार्थ...

Monday, May 4, 2009

तुझसे !!!

तुझ से मेरी जिंदगी को पाक रूह मिली है...
तुझ से दिल के कौने में खुशी की धुप खिली है...

तुझ से सेहरा की परछाई सुनहरी सी लगे...
तुझसे सावन में ठंडी एक बयार चली है....

तुझसे फिजाओ में अंगडाई आती है...
तुझसे उफक के दामन में बदरी की घटा चली है...

तुझसे समंदर में मौज उफनती है लहर बनकर...
तुझसे पपीहे को प्यास की आस मिली है...

तुझसे सवर कर हिना में सुर्ख रंग आता है...
तुझसे अदाओ को मचलने की अदा मिली है...

तुझसे आयते बनी ताबिजो में बंधी हैं जो...
तुझसे नमाजो को इबादत की जजा मिली है...

तुझसे मेरी साँसों में गर्मी घुलती जाती है...
तुझसे मेरी जिंदगी को पाक रूह मिली है...

भावार्थ...

Sunday, May 3, 2009

कुछ शेर !!!

बीज उजाडे हैं जमीं के सीने से जिन्होंने ...
पातियाँ बो रहे हैं वही पेड़ उगाने के लिए...

शमा बुझ गई उनके बुझाने से आख़िर कर...
अब लौ ढूढ़ते हैं अँधेरा रात का मिटाने के लिए...

मैली गंगा की किनारों से जो लौट आए...
अब ओख बढाये फिरते हैं प्यास बुझाने के लिए...

छोड़ दी दुनिया शोर से बचने की खातिर...
बे-सबब है वो बच्चे की किलकारी पाने के लिए...

तुम लिखते रहो 'भावार्थ' कुछ पाने की न सोचो...
लुट चुके हैं वो जो निकले थे सल्तनत बनाने के लिए...

भावार्थ...

Saturday, May 2, 2009

रिश्ते !!!

दुनिया के बेढंगे रिश्तो के तले...
मेरे कितने ही हैं अरमान जले...

कुतरी शख्शियत के लत्ते लिए ...
बुझा दिए मैंने परवाज़ के दिए...

छिल दिए सपने जो थे बुन रहे...
तोड़ दिए मूरत की किनोरे बन रहे...

अब बचा है बस गमो का पुलिंदा ...
मौत को ओढे एक शख्श जिन्दा...

रिस्तो में उलझा सा वजूद लिए ...
खामोश साँस का सिलसिला जिए...

पाक रिश्तो की नीयत है बिगड़ रही...
घुटन लहू, रगों, साँसों तक है बढ़ रही...

अब सुकून बेताब आगोश को है कहाँ...
रिश्ते को मेरी प्यास का अंदाज़ है कहाँ...

नापाक रिश्तो की पनाह में हूँ बढ़ रही ...
तड़प बढ़ रही है या फ़िर में हूँ बढ़ रही ...

भावार्थ...

कालिख !!!

कालिख है ये !!!
जो अब तक है लगी हुई....
मेरे इरादों में है बसी हुई...
नसों में लहू सी दौड़ती...
मेरे हौंसले को मरोड़ती...

कालिख है ये !!!
लोग अपने भी कतराने लगे...
बुझे चिराग नज़र आने लगे...
आंधियां जेहेन में मचलने लगी...
धुप भी छाँव के साए से निकलने लगी...

कालिख है ये !!!
जो अब तक छुटाए नहीं छूटती...
दाग की लकीर अब नहीं टूटती...
मेरे दामन पे उँगलियाँ अब उठ चुकी है...
खुशियाँ जो थी सब रूठ चुकी हैं...

कालिख है ये !!!

भावार्थ...