एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Sunday, November 30, 2008
मैं ने जो गीत तेरे प्यार की खातिर लिखे... !!!
आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ...
आज दूकान पे नीलाम उठेगा उनका...
तू ने जिन गीतों पे रखी थी मुहब्बत कि असास...
आज चांदी के तराजू में तुलेगी हर चीज़...
मेरे अफकार, मेरी शायरी मेरा अहसास...
जो तेरी जात से मंसूब थे उन गीतों को...
मुफलिसी जींस बना ने पे उतर आयी है...
भूक तेरे रुख-ऐ-रंगीन के फसानों के...
‘एवाज्चंद अश’ये-ऐ-ज़रूरत की तमन्नाई है...
देख इस ‘अर्सागाह-ऐ-महनत-ओ-सरमाया में...
मेरे नग्मे भी मिरे पास नहीं रह सकते...
तेरे जलवे किसी ज़रदार कि मीरास सही...
तेरे खाके भी मेरे पास नहीं रह सकते...
आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया होऊं ...
मैं ने जो गीत तेरे प्यार कि खातिर लिक्खे...
साहिर लुधियानवी...
Saturday, November 29, 2008
ताज पे कुछ कबूतर !!!
दहशत में संदेश-ऐ-अमन वो पढने आए...
जिस ताज के सामने चुन्गते हैं दाना जो...
उसकी तामीर को सजदा करने आए...
अरब समंदर जहाँ छूता है शहर को...
जख्मी किनारे को मलहम मलने आए...
संग जिसके साख सा एहसास देते हैं ...
उस इमारत पे सब आंसू बहाने आये...
रहनुमा-ऐ-मुल्क सियासत में गुम रहे...
सबसे पहले शहीदों पे गुल चढाने आए...
कुछ उत्तर-मराठी का भेद करने में गुम रहे ...
वो इबादत-ऐ-जौहर को दिया जलाने आए...
शहर जो जिंदगी के मायने बदल चुका हो ...
जिंदगानी में पहले सा जोश भरने आए...
ताज पे कुछ कबूतर आज उड़ने आए...दशहत में संदेश-ऐ-अमन वो पढने आए...
भावार्थ...
Thursday, November 27, 2008
मौत आज भी संजीदा है !!!
आज फ़िर से खौफ का सन्नाटा आ गया...
कुछ चीखे उन रोंधे हुए गले से फट पड़ी...
मातम मुस्कुराते हुए हर पहलू पे छा गया...
जेहेन का लहू संग बन गया आज फ़िर...
रगों का लहू चढ़ के आंखों में उबल रहा है...
कुछ लहू मोम सा जम गया सड़को पे युही ....
कितना ही लहू लहू बहाने को मचल रहा है....
सिसकियाँ लबो पे गीला एहसास ले आई ...
मौत आख़िर आज भी उतनी ही संजीदा है...
मुरझाये हुए है चेहरे जाने वाली की यादों में...
आँसू का दरिया मौत पर आज भी शर्मिंदा हैं ....
कितने रिश्ते कांच से बिखर गए उस रोज...
ढ़य गए आशियाने के तिनके एक एक कर...
सिमट गए होश-ओ-ख्याल सीले आगोश में...
निशाँ बन गई जीती हकीकत एक एक कर...
हादसे खौफ के बादल हटने नहीं देते जेहेन से...
आंसू बह बह के गिरते हैं सहमी हुई आँखों से...
जलती हुई चिताए रूहे जलती है अपनों की...
तपती रहती हैं जिंदगानियां धधकती राखो से...
तुम मर चुके हो लोग यही एहसास दिलाते हैं...
ये जिद्दी दिल है जो तुमको जिन्दा रखे हुए है...
कान सुनते नहीं ,नज़रे देखती नहीं लोगो को...
तुम और तुम्हारी यादों में ख़ुद को समेटे हुए हैं...
भावार्थ...
Wednesday, November 26, 2008
काश मैं सीख जाऊं !!!
बातें झूठी मूटी सी बुनना सीख जाऊं...
सीख जाऊं बेहूदगी पे हसना मुस्कुराना ...
सच को मरोड़ पेश करना सीख जाऊं...
फीकी बातों को दिलचस्प बनाना सीख जाऊं ...
ओछी धुनों को हरपल गुनगुनाना सीख जाऊं...
सीख जाऊं इन बकवासों पे कहकहे लगाना...
दूसरो के गमो पर झूठी आहें भरना सीख जाऊं...
बेढंग तरीको से ख़ुद सवरना सीख जाऊं...
दे कर किसी को वादा मुकरना सीख जाऊं...
सीख जाऊं शतरंज के सभी मोहरे चलना ...
उड़ते हुए पाखी के पर कुतरना सीख जाऊं...
दिल बिना मिलाये गले लगाना सीख जाऊं...
हर बात पे उनकी हाँ कहना सीख जाऊं...
कहते हैं वो सीख जाऊं में दुनिया के तरीके ...
जिंदगी को पल पल मार जीना सीख जाऊं...
भावार्थ...
Tuesday, November 25, 2008
नहीं चाहिए मुझे !!!
नहीं चाहिए मुझे ! नहीं चाहिए मुझे !
झूठे रिश्तो में जीती नाग़बार जिंदगी...
टुकडो में बिखरी ये बेशुमार जिंदगी...
अपनों में सिमटी ये बेकरार जिंदगी...
नहीं चाहिए मुझे ! नहीं चाहिए मुझे !
ढलती शाम के साथ पनपती जिंदगी...
उगती सुबह के साथ थमती जिंदगी...
बे-समय बनती और मिटती जिंदगी...
नहीं चाहिए मुझे ! नहीं चाहिए मुझे !
मयकदों में उलझी पड़ी बेहोश जिंदगी...
खरीदी हुई बाँहों में पड़ी मदहोश जिंदगी...
बाज़ार-ऐ-जमीर में खड़ी खामोश जिंदगी...
नहीं चाहिए मुझे ! नहीं चाहिए मुझे !
ख्वाइशों को जूनून में ढालती जिंदगी...
ख़ुद को बस खुदी से संभालती जिंदगी...
तन्हाईओं में डर के ये भागती जिंदगी...
नहीं चाहिए मुझे ! नहीं चाहिए मुझे !
हकीकत जानकर भी अनजान जिंदगी...
सरहदे जीतने को ये लहूलुहान जिंदगी...
जीतकर भी उसी जीत पे हैरान जिंदगी...
नहीं चाहिए मुझे ! नहीं चाहिए मुझे !
भावार्थ...
Monday, November 24, 2008
हमको ख़ुद ही से आगे जाना है...!!!
जीत का नया आयाम बनाना है...
सबकी निगाह बस फलक तक है...
उनके पार है मंजिल उसे पाना है...
ये मुश्किलें आएँगी और जाएँगी...
इरादों को मुश्किलों से न घबराना है...
कोशिशों में न तेरा जूनून कम हो...
हौसलों की सर-बुलंदी को पाना है...
तोहमते लगे तो समझ तरकी पर है तू...
अपनी धुन में बस युही चलते जाना है...
चल पड़े जो तेरे हौसलों का कारवाँ...
हर मंजिल को तेरे कदमो पे आना है...
हमको ख़ुद ही से आगे जाना है...
जीत का नया आयाम बनाना है...
भावार्थ...
Sunday, November 23, 2008
जिन्हें नाज़ है हिंद पे...
ये कूचे ये नीलम घर दिलकशी के...
ये लुटते हुए कारवाँ ज़िन्दगी के...
कहाँ हैं कहाँ है मुह्जिस खुदी के..
जिन्हें नाज़ है हिंद पे...
वो कहाँ हैं कहाँ है कहाँ है ...
ये पुरपेच गलियां ये बदनाम बाज़ार...
ये गुमनाम राही ये सिक्को की झंकार...
ये इस्मत के सौदे ये सौदों पे तकरार....
जिन्हें नाज़ है हिंद पे...
वो कहाँ हैं वो कहाँ है कहाँ है ...
ये सदियों से बेखौफ सहमी सी गलियां...
ये मसली हुई अद्खिली जर कलियन...
ये बिकती हुई खोखली रंगरलियाँ ...
जिनको नाज़ है हिंद पे...
वो कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं ?
वोह ujale दरीचो में पायल की चन चन..
थकी हारी साँसों पे तब्लो की ठन ठन ...
ये बेरूह कमरों में खांसी की आवाज़...
जिहें नाज़ है हिंद पे वो...
कहाँ है कहाँ है कहाँ है...
ये फूलो की गजरे वो पीको के छींटे...
ये बेबाक नज़ारे ये गुस्ताख फितर...
ये ठलके बदन और बीमार चहेरे
जिन्हें नाज़ हैं हिंद पे वो...
कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ है...
यहाँ पीर भी आ चुके और जवान भी...
नौ मंद बेटे और अब्बा मियां भी...
य बीवी है बेटी है और माँ bhii...
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो...
कहाँ है कहाँ है कहाँ है ...
मदद चाहती है ये हवा की बेटी॥
यशोदा की हमजिंस राधा की बेटी...
पागाम्बर की उम्मत जुलेह्खन की बेटी.
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो...
कहाँ है कहाँ है कहाँ है...
जरा मुल्क के रहबरों को बुलाओ॥
ये कूचे ,यह गलियां ये मंजर दिखाओ...
जिन्हें नाज़ है हिंद उनको लाओ...
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो...
कहाँ है कहाँ है कहाँ हैं...
साहिर लुधियानवी...
Saturday, November 22, 2008
ठुकरा के पी गया...
इस दिल की बेबसी पे घबरा के पी गया...
ठुकरा रहा था मुझे बड़ी बेरुखी से जहाँ...
में आज सब जहाँ को ठुकरा के पी गया...
ये हँसते हुए फूल ये महका हुआ गुलशन...
ये रंग में और ये नूर में डूबी हुई राहें...
ये फूलो का रस पिके मचलते हुए भंवरे...
में दू भी तो दू भी क्या तुम्हे शोख नज़रो...
ले दे कर मेरे पास कुछ आँसू हैं कुछ आहें हैं...
साहिर लुधियानवी...
Thursday, November 20, 2008
करार आए !!!
तड़पते जेहेन को मेरे जेहनात मिले तो करार आए...
मुझे पपीहे को बूंदों का तस्वीर मिले तो करार आए...
सुकून-ऐ-हयात ढूढ़ते हैं हर एक पल में बिखरने वाले...
सुकूत-ऐ-शब् ढूढ़ते हैं इन उजालों के नशे में डूबने वाले...
हुस्न-ऐ-याज़दान ढूढ़ते हैं ये हुस्न-ऐ-बुता पूजने वाले...
आवारा तलाश को मेरी राह मिले तो करार आए...
मुझ पपीहे को बूंदों का पयाम मिले तो करार आए...
यादें कुछ एक धुंधली तस्वीर के सिवा कुछ भी नहीं ...
रिश्ते कुछ आहन जंजीरों के सिवा कुछ भी नहीं...
किस्मत कुछ खिची लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं...
हकीकत कुछ यु बन सवर के मिले तो करार आए...
मुझ पपीहे को बूंदों का पयाम मिले तो करार आए...
उमड़ती पतंग की परवाज़ बस आसमान भर उड़ने तक है ...
चढ़ती मय की दरकार बस छुपे अरमान उगलने तक है ...
बढती जफा की बद-हालत बस लहू राहो पे बिखरने तक है...
काबू मुझे ख़ुद के जज्बात पर मिले तो करार आए..
मुझ पपीहे को बूंदों का पयाम मिले तो करार आए...
मेरे मुल्क के अमीर हैं जो गम-ऐ-तन्हाई लिए फिरते हैं...
मेरे मुल्क के रंगीन हैं जो खौफ-ऐ-रुसवाई लिए फिरते हैं...
मेरे मुल्क के रहनुमा हैं जो फ़िक्र-ऐ-बादशाही लिए फिरते हैं...
इस मुल्क को मेरे उसकी सर-बुलंदी मिले तो करार आए...
मुझ पपीहे को बूंदों का पयाम मिले तो करार आए...
भावार्थ...
Wednesday, November 19, 2008
दो अजनबी अजनबी रहो पे !!!
एक और निकाह, एक और शादी, एक दास्ताँ पुरानी ...
एक और पाबन्दी, एक और कसक,एक और कहानी ...
कुछ अपना कहने वाले होंगे...
और न जानने वालों की भीड़ आएगी...
कुछ घंटो की रौनक फिजा में...
जिंदगी गुलज़ार सी महक जायेगी...
दो अजनबी अजनबी रहो पे ...
अजनबी अंदाज़ से निकल जायंगे...
बेचैन जिस्म सेहरा से तपते...
कुछ एक पल को गिरी बूंदे पायंगे...
रूह की तासीर ही आज़ादी की है ...
जिमेदारियां बेडियाँ बन लहरायेंगी...
मकसद भी शादी के अजीब से है...
अपने किए पे वो फ़िर पछतायेंगे...
प्यास बुझाने को तो बाज़ार काफ़ी हैं...
बेजार रिश्ते को यु ही ढोने का मतलब क्या है...
तनहाई उस बुढापे की कटेगी कैसे...
दिल लगाने को हस्ती मिटाने का मतलब क्या है...
जो तुमको बनानी हैं खानदान की सीढ़ी ...
मासूम को यु ही मसलने का मतलब क्या है...
हमसफ़र की चाहत जो है भी अगर...
उमीदों के अम्बार लगाने का मतलब क्या है...
जीते जागते हँसते बोलते इंसान को...
रिवाजों को ढोता मजदूर बनाने का मतलब क्या है...
सादगी का तो खुदा का तोहफा है जिसे...
उसे रंगीन चीथडो से सजाने का मतलब क्या है...
खुलकर जीने को बेताब एक और रूह को ...
शादी में मुजस्समे से सजाने का मतलब क्या है...
अग्नि पर लिए गए रूहानी वादों को...
कटघरे में आख़िर घसीटने का मतलब क्या है...
फ़िर कहीं से एक खुदखुशी की खबर...
झूल गई एक और लैला की ख़बर...
दहेज़ को प्रताडित बहु की ख़बर...
तलाक पे आमदा बेगम की ख़बर...
नापाक रिश्तों के बनने की ख़बर...
सालों से बस घुटती रूह की ख़बर...
कमरों से उठती चीखो की खबर ...
कोख में मसले अंश की ख़बर...
अपनों की घिनोनी हरकतों की ख़बर...
इन्तहा इसकदर हो जिस इब्तिदा की...
उस दर्द-शुदा सफर की चाहत क्यो हो ?...
जर्द हो जाएँ जिससे ख़ुद के जमीर के चेहरे...
उस रंगीनियत को ओढ़ने की चाहत क्यों हो ?
कुछ अरमानो को जिंदगी देने की खातिर...
कई ख्वाईशों को मिटाने की चाहत क्यों हो ?
जिंदगी तो तन्हाई को भी पुरी दुनिया बना सकती है...
जिंदगी तो किसी शख्स के बिना भी मुस्कुरा सकती है...
क्यों न ऐसी ही पाख सी जिंदगी जी जाए...
क्यों न खुले आसमा में परवाज़ ली जाए...
अपने अफकारो को बहती दिशा दी जाए...
भावार्थ...
दोस्ती !!!
सिर्फ़ मकसद के लिए हमसे मिलने न आया करो...
गम की फितरत ही है तन्हाई मैं उफनने की ...
सर्द रातें बिन हमारे कहकहों के न गुज़ारा करो...
तुम्हारे दर्दो से भी मुझे उतनी ही मोहब्बत है...
सिर्फ़ खुशियाँ बिखेरने मेरे यहाँ न आया करो...
दोस्त मानते भी हो या सिर्फ़ कहते ही हो मुझे...
रूह को कुरेदती बातो को भी हमें बताया करो...
मेरे पास भी अगर तुम्हारे राज महफूज नहीं है...
तो मय के नशे मैं उन्हें तुम बडबडाया न करो...
रूठने और मनाने से रिश्तो की कशिश रहती है...
पर रूठने और मनाने मैं फासला बढाया न करो...
दोस्ती खुदा का बेनाब तोहफा है जिंदगी को दोस्त ...
बेशकीमती एहसासों को युही तुम जाया न करो...
भावार्थ...
Sunday, November 16, 2008
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है !!!
मुझे मेरे रास्ते से गुमराह किया जा रहा है...
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है...
मुझे हर बात बेखौफ कहने में कैफ मिलता है...
मेरे उसी अंदाज़ पर मुझे शर्मिंदा किया जा रहा है...
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है...
उनको मालूम है मेरा अंदाज़-ऐ-बयां सबसे जुदा है ...
तो मुझे मेरे हर एक अल्फाज़ पे टोका जा रहा है...
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है...
मेरे मरासिम ही तो हैं मेरी हस्ती की बुनियाद ...
मेरे हबिबो को एक एक कर के खरीद जा रहा है...
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है...
हवा रोक दी, धुंद भर दी फलक तक, पर काट दिए...
और मुझे आकाश में उड़ने का फरमान दिया जा रहा ....
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है...
इन्कलाब के ख्याल तो मेरे जेहेन में रहते हैं...
और मुझे मेरे पहनावे पे तलब किया जा रहा है...
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है...
वो ख़ुद तो बुन न सके एक ख्याल भी कभी...
और मेरे अफकारो को धुंधला तसव्वुर कहा जा रहा है...
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है...
मुझे मेरे रास्ते से गुमराह किया जा रहा है...
भावार्थ...
फ़िर बाज़ार गया मैं...!!!
कुछ और खरीदने के बहाने ही सही पर बाज़ार गया मैं...
हर मुमकिन चीज़ जो थी बाज़ार के कौनो में ले आया ...
फ़िर भी अपने घर के वीराने को भरने को बाज़ार गया मैं...
शाम ढले जब खुदा का नूर बुझ गया मेरी रूह के दिए से ...
उन झूठे उजालो की फिराक में ही सही पर बाज़ार गया मैं...
काटने दोड़ने लगी हैं सभी जानी पहचानी सी शकले मुझे...
किसी अजनबी भीड़ में गुम होजाने को फ़िर बाजार गया मैं...
समाज के ढंग, सलीके और तरीकों से मेरा जेहेन उख्ता गया ...
तो लहू बन गए उस जमीर को बेचने की खातिर बाज़ार गया मैं...
भावार्थ...
जो बात तुझमें है !!!
तेरी तसवीर में नही
तसवीर में नही...
रंगों में तेरा अक्स ढला, तू ना ढल सकी
साँसों की आंच जिस्म की खुशबू ना ढल सकी
तुझ में जो लोच है, मेरी तहरीर में नही
तहरीर में नही
जो बात तुझ में है,
तेरी तसवीर में नही
बेजान हुस्न में कहाँ, रफ़्तार की अदा
इनकार की अदा है, ना इकरार की अदा
कोई लचक भी जुल्फ-ऐ-गिरहगीर में नही
गिरहगीर में नही
जो बात तुझ में है,
तेरी तसवीर में नही
दुनिया में कोई चीज़ नहीं है तेरी तरह
फिर एक बार सामने आजा किसी तरह
क्या और एक झलक मेरी तक़दीर में नही
तक़दीर में नही
जो बात तुझ में है,
तेरी तसवीर में नही
साहिर लुधियानवी...
Saturday, November 15, 2008
नाराज ये खाब हैं या तू मेरी जिंदगी !!!
कुछ तो बता ऐ मेरी अजनबी जिंदगी...
एक खाब था देखा मासूम बचपन का...
माँ से लिपट कर झूठी-मूटी अनबन का...
खिलौनो से फूटती उस मधुर छनछन का...
क्यों अतीम सी लुटी भला मेरी जिंदगी...
नाराज ये खाब है या तू मेरी जिंदगी...
खाब था शयद कुछ कर गुजरने का...
दुनिया के रास्तो पे नई तरह चलने का...
हाथो में लिखी तकदीर बदलने का...
क्यों हार हर बार दी तुने ऐ जिंदगी...
नाराज ये खाब हैं या तू मेरी जिंदगी...
खाब था एक हसीं जा मूरत का साथ मिले...
उसके गेसू उसकी अदा की सौगात मिले...
जवानी के तड़पते सेहरा को बरसात मिले...
क्यों बेवफाई मोहब्बत में भर दी जिंदगी...
नाराज ये खाब हैं या तू मेरी जिंदगी...
खाब था भटकती जिंदगी को सुकून मिले ...
हमसफ़र मिले अगर तो बस तन्हाई मिले...
रानाई में न बहने का कुछ हौसला मिले ...
क्यो दर्द लिखने की तमन्ना दी जिंदगी ...
नाराज ये खाब हैं या तू मेरी जिंदगी...
नाराज ये खाब हैं या तू मेरी जिंदगी...
कुछ तो बता ऐ मेरी अजनबी जिंदगी...
भावार्थ...
मीलों है खामोशी बरसों है तनहाई...
भूली दुनिया कभिकी तुझे भी मुझे भी...
फिर क्यों आँख भर आयी...
कोई भी साया नहीं राहों मैं...
कोई भी आएगा न बाहों मैं...
तेरे लिए मेरे लिए कोई नहीं रोनेवाला...
झूठा भी नाता नहीं चाहूं मैं...
तू ही क्यों डूबा रहे आहों मैं...
कोई किसी संग मरे ऐसा नहीं होनेवाला...
कोई नहीं जो यूँ ही जहाँ मैं बातें पीर परायी...
किसका रास्ता देखे ए दिल ए सौदाई...
तुझे क्या बीती हुई रातों से...
मुझे क्या खोई हुई बातों से...
सेज नहीं चिता सही जो भी मिले सोना होगा...
गई जो डोरी छूती हाथों से...
लेना क्या टूटे हुए सातों से...
खुशी जहाँ मांगी तूने वहीँ मुझे रोना होगा...
न कोई तेरा न कोई मेरा फिर किसकी याद आई...
किसका रास्ता देखे ए दिल ए सौदाई...
साहिर लुधियानवी...
Friday, November 14, 2008
कांच में महफूज ख्वाब !!!
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
हवा जिंदगी की चलो ऐसी वो मचलने लगे...
ख़ुद चले गुरूर की परछाई भी साथ चल पड़ी...
होसलें ने कुछ दम भरा खुदाई साथ चल पड़ी...
कुछ एक बूँद ठहरी फलक पे वो गरजने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
अम्बर पे सर उठाया फ़िर मंजिल नज़र आई...
तूफ़ान से उमडे समंदर पे उड़ती सी लहर आई...
हकीकत की दुनिया पे मेरे खाब उड़ने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
साँस थमने लगी तो साँस बन गए मेरे खाब...
रुत बिगड़ी तो रुत बन के संवर गए मेरे खाब...
वो मेरी तमन्नाओ की सूरत बन उभरने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
जिंदगी से महरूम संग भी आज जिन्दा हैं ...
परवाज़ को मोहताज इंसान आज परिंदा हैं...
छुपे अरमान खुलके आईने में सवारने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
हवा जिंदगी की चलो ऐसी वो मचलने लगे...
भावार्थ...
मन रे तू कहे न धीर धरे !!!
मन रे तू काहे न धीर धरे
ओ निर्मोही मोह न जाने जिनका मोह करे
मन रे तू काहे न धीर धरे
इस जीवन की चढ़ती ढलती
धुप को किस ने बाँधा
रंग पे किस ने पहरे डाले
रूप को किस ने बाँधा
काहे यह जातां करे
मन रे तू काहे न धीर धरे
उतना ही उपकार समझ कोई
जितना साथ निभा दे
जनम मरण का मेल है सपना
यह सपना बिसरा दे
कोई न संग मरे
मन रे तू काहे न धीर धरे
ओ निर्मोही मोह न जाने जिनका मोह करे
हो मन रे तू काहे न धीर धरे
साहिर लुधियानवी...
Thursday, November 13, 2008
में हर एक पल का शायर हूँ !!! ( Original Poem )
हर एक पल मेरी कहानी है
हर एक पल मेरी हस्ती है
हर एक पल मेरी जवानी है
रिश्तों का रूप बदलता है, बुनियादें ख़तम नहीं होती
ख्वाबों की और उमंगो की, मियादें ख़तम नहीं होती
एक फूल में तेरा रूप बसा एक फूल में मेरी जवानी है
एक चेहरा तेरी निशानी है, एक चेहरा मेरी निशानी है
में हर एक पल का शायर हूँ...
तुझको मुझको जीवन अमृत, अब इन हाथों से पीना है
इनकी धड़कन में बसना है, इनकी साँसों में जीना है
तू अपनी अदाएं बख्श इन्हें में अपनी वफाएं देता हूँ
जो अपने लिए सोची थी कभी, वोह सारी दुआएं देता हूँ
में हर एक पल का शायर हूँ...
साहिर लुधियानवी...
कैसे मैं जिंदगी जिए जाऊं !!!
मैं कैसे बता खाने का थाल सजाऊँ ...
अंतडिया लाखों पानी को मोहताज़ हैं...
मैं सागर को अपने कैसे छलकाऊ...
अधनंगे बदन को छिपाए फटी उतरन...
मैं बता कैसे ख़ुद सज-धज के इतराऊ...
सिली पन्नियों से बुनी टूटे टाट की छत...
कैसे संगमरमर की मैं ठंडक पाऊँ...
छाले बनते हैं लहू रिसता रहता है पैरो से...
कैसे मैं जूतों का नर्म एहसास पाऊं...
जिंदगी मोहताज है कितनी जीने को...
तू ही बता कैसे मैं जिंदगी जिए जाऊं...
भावार्थ...
Wednesday, November 12, 2008
तेरा इश्क इश्क, इश्क इश्क...
मेरे शौक़-ऐ-खाना ख़राब को, तेरी रहगुज़र की तलाश है...
मेरे नामुराद जूनून का है इलाज कोई तो मौत है...
जो दावा के नाम पे ज़हर दे उसी चारागर की तलाश है...
तेरा इश्क है मेरी आरजू, तेरा इश्क है मेरी आबरू
दिल इश्क जिस्म इश्क है और जान इश्क है...
ईमान की जो पूछो तो ईमान इश्क है...
तेरा इश्क है मेरी आरजू, तेरा इश्क है मेरी आबरू...
तेरा इश्क में कैसे छोड़ दूँ, मेरी उम्र भर की तलाश है...
जानसोज़ की हालत को जानसोज़ ही समझेगा...
में शमा से कहता हूँ महफिल से नहीं कहता क्योंकि...
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...
सहर तक सबका है अंजाम जल कर ख़ाक हो जाना...
भरी महफिल में कोई शम्मा या परवाना हो जाए क्योंकि...
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...
वेह्शत-ऐ-दिल रस्म-ओ-दीदार से रोकी न गई...
किसी खंजर, किसी तलवार से रोकी न गई...
इश्क मजनू की वो आवाज़ है जिसके आगे....
कोई लैला किसी दीवार से रोकी न गई, क्योंकि...
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...
वो हंसके अगर मांगें तो हम जान भी देदें...
हाँ ये जान तो क्या चीज़ है ईमान भी देदें क्योंकि...
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...
नाज़-ओ-अंदाज़ से कहते हैं की जीना होगा...
ज़हर भी देते हैं तो कहते हैं की पीना होगा...
जब में पीता हूँ तो कहतें है की मरता भी नहीं...
जब में मरता हूँ तो कहते हैं की जीना होगा....
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...
मज़हब-ऐ-इश्क की हर रस्म कड़ी होती है...
हर कदम पर कोई दीवार खड़ी होती है...
इश्क आजाद है, हिंदू न मुसलमान है इश्क...
आप ही धर्म है और आप ही ईमान है इश्क...
जिस से आगाह नही शेख-ओ-बरहामन दोनों...
उस हकीकत का गरजता हुआ ऐलान है इश्क...
इश्क न पूछे दीं धर्म नु, इश्क न पूछे जातां...
इश्क दे हाथों गरम लहू विच, डूबियाँ लाख बराताँ के
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क
राह उल्फत की कठिन है इसे आसान न समझ..
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...
बहुत कठिन है डगर पनघट की...
अब क्या भर लॉन में जमुना से मटकी...
में जो चली जल जमुना भरण को...
देखो सखी जी में जो चली जल जमुना भरण को...
नंदकिशोर मोहे रोके झाडों तो...
क्या भर लॉन में जमुना से मटकी...
अब लाज राखो मोरे घूंघट पट की...
जब जब कृष्ण की बंसी बाजी, निकली राधा सज के...
जान अजान का मान भुला के, लोक लाज को ताज के...
जनक दुलारी बन बन डोली, पहन के प्रेम की माला...
दर्शन जल की प्यासी मीरा पि गई विश् का प्याला...
और फिर अरज करी ...
लाज राखो राखो राखो, लाज राखो देखो देखो, ...
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क
अल्लाह रसूल का फरमान इश्क है...
याने हफीज इश्क है, कुरान इश्क है....
गौतम का और मसीह का अरमान इश्क है....
ये कायनात जिस्म है और जान इश्क है...
इश्क सरमद, इश्क ही मंसूर है....
इश्क मूसा, इश्क कोह-ऐ-नूर है...
खाक को बुत, और बुत को देवता करता है इश्क...
इंतहा ये है के बन्दे को खुदा करता है इश्क...
हाँ इश्क इश्क तेरा इश्क इश्क....
तेरा इश्क इश्क, इश्क इश्क...
साहिर लुधियानवी...
Tuesday, November 11, 2008
हिज्र बेइन्तेआह !!!
लिखते लिखते आज मेरी कलम रोने लगी...
न जाने कितनी दर्द भरी उसकी कहानी थी...
कहते कहते दिल से आह बहने सी लगी...
न मिटने वाली वो हिज्र की कोई निशानी थी...
आँसू ख़ुद को रोक न पाये थमी साँस के साथ...
दिल का दरिया बह निकला तेरी याद के साथ...
तन्हाई की परछाई कहाँ मुझसे अनजानी थी...
न मिटने वाली वो हिज्र की ऐसी निशानी थी...
रात रुक रुक कर मेरी सिसकियाँ सुना करती थी ...
हवा बह बह कर गम की दुनिया बुना करती थी...
सावन की सेहरा सी जलती ये दास्ताँ पुरानी थी...
न मिटने वाली वो हिज्र की ऐसी निशानी थी...
बेरंग सा हर रंग मुझे कुछ अब लगने लगा है...
बुझा सा हर नूर मुझे क्यों अब दिखने लगा है...
रूह बिन हर जिस्म जैसे मूरत कोई बेमानी थी ...
न मिटने वाली वो हिज्र की ऐसी निशानी थी...
भावार्थ...
वो सुबह कभी तो आयेगी...
इन काली सदियों के सर से, जब रात का आँचल ढलकेगा...
जब दुःख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा...
जब अंबर जूम के नाचेगा, जब धरती नगमी जायेगी...
वो सुबह कभी तो आयेगी वो सुबह कभी तो आएगी...
जिस सुबह की खातिर जग जग से, हम सब मर मर कर जीते हैं...
जिस सुबह के अमरिअत की बूँद में, हम जहर के प्याले पिटे हैं...
इन भूखी प्यासी रूहों पर, एक दिन तो करम फरामायेगी...
वो सुबह कभी तो आयेगी वो सुबह कभी तो आएगी...
माना के अभी तेरे मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं ...
मिट्टी का भी हैं कुछ मोल मगर, इंसानों की कीमत कुछ भी नहीं ...
इंसानों की इज्जत जब जूठें सिक्कों में ना तोली जायेगी...
वो सुबह कभी तो आयेगी वो सुबह कभी तो आएगी...
साहिर लुधियानवी...
Monday, November 10, 2008
बूंदों को मिला पारदर्शी जिस्म !!!
हवा में ये उड़ती हुई मद्धम सर्दी घुंघराले बादर सी है...
ओस का घहरा समंदर जिस कोहरे के आँचल में है...
वोह फिजा में घुली नशीली हवा की एक नज़र सी है...
जम गई पानी की बूँद बूँद जैसे किसी ने जादू किया हो...
बूंदों को मिला पारदर्शी जिस्म खुदा की कोई मैहर सी है....
ठंडक रूह बनके आस पास हर एक जर्रे में बस चुकी है...
थमी हुई इन्सां की ये सहमी दुनिया सर्दी की कहर सी है....
जमी जमी नदी जो सूरज को देख कभी कभी रेंगती सी है...
हर एहसास जिसमें सुन्न हो जाए ऐसी ठंडी लहर सी है...
भावार्थ...
Sunday, November 9, 2008
बेरंग शोखी !!!
उसके चेहरे पे न अब नज़र आती शोखी...
हया बन जो कभीथी खिलखिलाती शोखी...
वोह हैं और फिरभी आगोश तनहा है...
बला का कहर कभी थी जो ढाती शोखी...
निश्तर सी गिरती थी जो दिलो पे कभी ...
अब कोई भी असर न कर पाती शोखी...
न हो रंग फिजा में तो ख़ुद छाने का हुनर ...
अब तो बेरंग बेनूर और बदहाल है शोखी...
नज़रो में, होठो पे, गेसुओं से सवरती थी...
आँसू के गिरहो में है वो पनाह पाती शोखी...
लचक, मटक, सवर कर चलती थी कभी...
टूटे,बोझिल रिश्तो में लडखडाती शोखी...
वो ग़ज़लों ,नज़मो शेरो में जो सराही गई...
ख़ुद के होने पे भी अब वो तरस खाती शोखी...
भावार्थ...
Saturday, November 8, 2008
आदत है जिए जाना भी !!!
कुछ एक और नाकामी मिले तो सुकून आए...
रास्तो को मेरे न मंजिल मिले तो सुकून आए...
हौसले मेरे डगमगाए तो हैं पर अभी टूटे नहीं हैं...
पत्थर से ये तिनका बन बिखर जाए तो सुकून आए...
किस्मत सेहरा में आई तो तपिश ले कर आई ...
गर्मी नसों में लहू बन उतर जाए तो सुकून आए...
चलते चलते न जाने कौन सा मंजर मिलेगा मुझे...
लडखडाते कदम अगर चल न पायें तो सुकून आए...
मेरी धुंधले वजूद के होने के गवाह हैं मेरे अपने...
पहचान उनके जेहेन से उतर जाए तो सुकून आए...
सिसकियों के सावन जो बहे मेरी तन्हाईओं में...
संग-ऐ-सहेरा मेरी वही आँखें हो जाए तो सुकून आए...
किसी न क्या खूब कहा है आदत है जिए जाना भी...
अब तो बस ये बुरी लत छूट जाए तो सुकून आए...
भावार्थ...
Thursday, November 6, 2008
एक शाम साहिल पे...!!!
मदहोश लहरें हर बार मिटा गई...
में उफनते समंदर को ताकता रहा...
सूरज की गर्मी उसमें पनाह पा गई...
न सुर्ख लाल और न चटक पीला मंजर...
लालिमा हल्दी में लिपटी वहां छा गई...
कुछ तैरते जहाज नजरो से बोझिल हुए...
कश्ती हर एक लौट किनारे पे आ गई...
मछलियाँ खुश हैं जाल सारे घर लौटे गए...
जिंदगी एक और दिनका तोहफा पा गई...
हाथ में हाथ डाले शाम और रात मिले...
जलते हुए दिन को रातकी चांदनी भा गई...
पाखी लौटने लगे अपने घरोंदे को...
मुझको बुलाने भी तन्हाई आ गई...
भावार्थ
Wednesday, November 5, 2008
जिंदगी उस मुकाम पे है...!!!
जब कुछ नहीं चाहिए...कुछ भी नहीं !!
न सोहरत की रौनक ...जुगनू सी !!
न पैसो की खनक... गूंगी सी !!
न ओहदे का लालच... फीका सा !!
न खोखली हलचल... पल भर की !!
न इश्क की इनायत ... झूठी सी !!
न हुस्न की नजाकत ... रुखी सी !!
न रिश्तो के ताने-बने... गुथे गुथे से !!
न रिवाजों के त्यौहार सुहाने... उजडे से !!
न बातें कहूं न बातें सुनूँ... बक बक सी !!
न गीत कहूं न कहानी बनू...बेढंग सी !!
न किसी की चाहत... अजनबी सी !!
न किसी की इबादत... बेदिल से !!
क्या दुनिया का कोई ऐसा कौन मिलेगा...
जहाँ इंसान इस मुकाम पे जिया जाए ...
बस जिया जाए !!! बस जिया जाए !!!
भावार्थ...
Tuesday, November 4, 2008
बदल कर भी ये दुनिया नहीं बदली !!!
चका चौंध में भी हर नज़र रही धुंधली...
वही वहशी निगाहें और वही बिकते जिस्म...
दमकते बाज़ार की पर सीरत नहीं बदली...
तराजू तोलते थे कल,तराजू तोलते हैं आज...
बाज़ार बदला मगर कीमत नहीं बदली...
किनारों पे टकराता है गम से भरा समंदर...
तरंग बदली मगर उसकी लहर नहीं बदली...
भावार्थ...
Monday, November 3, 2008
सुरमई अखियों में !!!
निंदिया के उड़ते पाती रे...
अखियों मै आज साथी रे...
रारी रा रूम ओ रारी रूम....२
सुरमई अखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा...२
रारी रा रूम ओ रारी रूम....२
सच्चा कोई सपना देजा ...
मुझको कोई अपना देजा...
अंजना सा मगर कुछ पहचाना सा...
हलक फुल्का शबनमी...
रेशम से भी रेशमी...
सुरमई अखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा...२
रारी रा रूम ओ रारी रूम....२
रात के रथ पे जाने वाले...
नींद का रस बरसाने वाले...
इतना केर दे की मेरी आँखे भर दे॥
आखों मैं बसता रहे...
सपना ये हँसता रहे...
सुरमई अखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा...२
रारी रा रूम ओ रारी रूम....२
गुलज़ार...
Sunday, November 2, 2008
सुबह के पहले पहर जिंदगी अजीब थी !!!
फुटपाथ के बिस्तर सिमट रहे थे...
रिक्शे वालो के झुंड बन गए थे...
चाय की दुकाने कुकुरमुत्तो सी हर तरफ़...
कांपते जिस्मो को कुछ बूँद गर्मी दे रही थी...
धूल सडको पे से कौनो पे सिमटी जा रही थी...
चौराहे वीराने में जाग गए...
मुरझाये चेहरे अलाव तापते बैठे थे...
पन्नी पल्स्टिक कूदे के ढेर से उठ चुकी थी ...
अख़बार बांटती सायकिलें एक साथ निकली...
स्याही में लिपटी खबरे ताज़ी ताज़ी थी ...
मजदूरों की टोली फेक्ट्री खुलने के इंतज़ार में...
ठण्ड में बीडी पे बीडी फूँके जा रही थी ...
ढूढ़ वालो की गाड़ी पल पल पे निकलती थी ...
बस यही दुनिया जागी और उनकी सुबह ख़तम हुई...
बाकी दुनिया अभी "गुड मोर्निंग" बोलेगी...
भावार्थ...
फुर्सत !!!
अपनी मसरूफियत से कुछ पल चुरा के...
मैं बना रही हूँ फुर्सत....
आसान नही है ये...
इसमे जगह पाने...
बीते सालों की कितनी बातें ...
मेरे सामने चक्कर लगा रही हैं...
याद है...तुम्हारी वो घड़ी जो...
मेरे पास रह गई थी...
फुर्सत में उसकी टिक टिक...
हाय !!परेशान कर दिया है...
वक्त का एहसास ही तो भूलना था कैसे भूलूं ?...
और अब ये किताब के पन्ने...
उड़ उड़ के वहीँआ जाते हैं ...
जहाँ तुम्हारा नाम लिखा है ...
कैसे वो पेन तुम अपने होंठो में दबाये रखते थे ...
नीले पड़ जाते थे होंठ...
मैंने जिस रुमाल से पोंछा था ...
आज तक नही धो पायी तुम्हारी खुशबू ...
सामने खड़ा आइना जिसमें कभी...
मेरी -तुम्हारी...
मतलब हमारी तस्वीर साथ थी....
इस आईने का पानी आंखों में उतर रहा है ...
अब तो ये भी तंग कर रहा है...
और ....याद है
वो पानी जिसके किनारे पे ...
हम डूब गए थे..........
और ये नोटजो तुम्हारी जेब से चुराए थे कभी...
अब इनकी कीमत कुछ बढ़ गई होगी शायद...
ऐ फ़ोन कमबख्त
जब भी बजता हैलगता है..............
हम घंटो बातें करते थे न...
क्या कहते थे???अब तो कुछ भी याद नही ....
जम्हाई लेती हूँ तो...
लगता है तुमने मुहपे हाथ रख दिया हो...
"अरे बस ना कल शायद सोयी नही"...
"मेरे बारे में सोच रही थी न ...
"तब मैंने "ना "कहा था ...
झूठ कहा था ...
मेरे ये हाथ कितनी बार थामे थे ...
टेढी मेढी लकीरें बनाने के बहाने ...
मैं भी अनजान सी बन जाती थी ...
और अब देखो इन लकीरों में ...
तुम्हारा नाम नही ...
काश तब अपने नाम की ...
एक लकीर भी बना देते...
मैं कुरेद कुरेद केहरा रखती...
पर मिटने न देती ...
और क्या मैं और मेरा ...
सब कुछ क्या क्या कहूँ ...
हाँ लगता है मुझे कभी ...
फुर्सत नही दोगे तुम.....
शमा...
Saturday, November 1, 2008
बिखरे जज्बात !!!
वो अजनबी लाता रहा अजनबी एहसास...
अजनबी से जुड़ी है मेरी अजनबी प्यास...
अजनबी खाबो में भी वही अजनबी...
फ़िरभी जारी है उस अजनबी की तलाश...
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कतरा कतरा कर के कतरा दरिया में जा मिला...
कतरे कतरे में उसके इतनी बेसब्री थी...
उसके हर कतरे में ख़ुदको मिटाने का जूनून था...
कतरे को अपने वजूद की इतनी बेकद्री थी ...
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लहू आज फ़िर लहूलुहान है इंतेशार से ...
लहू के प्यासे बन्दों का लहू उबल रहा है...
लहू में सने धड लहू चूते हुए सर ढूढ़ते हैं...
रगों में बहता हुआ लहू रोमो पे जम रहा है...
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भावार्थ
दे दो
तुम्हे उनकी कसम,ये दुःख ये हैरानी मुझे दे दो
मैं देखूं तो सही ,दुनिया तुम्हे कैसे सताती है
कोई दिन के लिए अपनी निगहबानी* मुझे दे दो
ये माना मैं किसी काबिल नही हूँ इन निगाहों में
बुरा क्या है अगर इस दिल की वीरानी मुझे दे दो
वो दिल जो मैंने माँगा था मगर गैरों ने पाया था
बड़ी शय है अगर उस की पशेमानी* मुझे दे दो
नगह्बानी =देख रेख
पशेमानी =पछतावा
गीत
हमने तो जब कलियाँ मांगी कांटो का हार मिला
खुशबुओं की मंजिल ढ़ूंडी तो गम की गर्द मिली
चाहत के नगमें चाहे तो आंहें सर्द मिली
दिल के बोझ को दूना कर गया जो भी गमख्वार मिला
जाने वो कैसे लोग थे जिन के प्यार को प्यार मिला
बिछड़ गया हर साथी देकर पल दो पल क साथ
किस को फुर्सत है जो थामे दीवानों क हाथ
हम को अपना साया तक अक्सर बेजार मिला
जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला
इस को भी जीना कहते हैं तो यूँ ही जी लेंगे
उफ़ ना करेंगे लैब सी लेंगे आंसू पी लेंगे
गम से अब घबराना कैसा गम सौ बार मिला
जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला
हमने तो जब कलियाँ मांगी कांटो ka हार मिला
खूबसूरत मोड़.
ना मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूं दिल नवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत अंदाज़ नज़रों से
ना मेरे दिल की धड़कन लड़खडाए मेरी बातों में
ना ज़ाहिर हो तुम्हारी कशमकश का राज़ नज़रों से
तारुर्फ़ रोग हो जाए तो उसका भूलना बेहतर
तआल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफसाना जिसे तकमील तक लाना न हो मुमकिन
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों.