एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Friday, October 31, 2008
जिंदगी मुट्ठी से रेत की तरह बहती रही...
और इंसान कहाँ गिर के जाएगा...
बेहरहम तड़प आसमान छु रही है...
न जाने कब वो रहनुमा आएगा...
हर सुबह बैचैनी की साँस लेती है...
दिन भर होसले टूटते बिखरते रहते हैं...
शाम थक हार के बिस्तर पे पड़ जाती है...
रातो को जुगनू सहमे सहमे से बहते हैं...
मकसद जीने के बेमानी लगते हैं...
सिक्को की खनक चुभती है दिल में...
हर रोज वही मरते रहने का एहसास...
जिए जाना भी खौफ है मुर्दा शहर में...
किस्मत अब मनचाहे तराने नहीं छेड़ती ...
हाथ की रेखाओं के तो बस अवशेष बचे हैं...
मुकद्दर ख़ुद से रूठ कर बैठा है कौने में...
भाग्य के हसी कारवां के बस निशाँ बचे हैं...
सुकून के चंद लम्हे बुने साल बीत गए...
जिंदगी मुट्ठी से रेत की तरह बहती रही...
बचपन,जवानी,बुढापा मौसम से आए...
इंसानियत मेरी रोम रोम से रिसती रही...
भावार्थ...
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है !!!
ये महलो ये तख्तो ये ताजो की दुनिया...
ये इंसान के दुश्मन समाजो की दुनिया...
ये दौलत के भूखे रिवाजो की दुनिया..
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है !!!
हर एक जिस्म घायल हर एक रूह प्यासी...
निगाहों में उलझन दिलों में उदासी....
यहाँ एक खिलौना है इंसान की हस्ती
ये बस्ती है मुर्दा परस्तो की बस्ती...
यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती...
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो है !!!
जवानी भटकती है बदकार बनकर...
जवान जिस्म सजते हैं बाज़ार बनकर
यहाँ प्यार होता है व्यापार बनकर...
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है !!!
ये दुनिया जहाँ आदमी कुछ नहीं है...
वफ़ा कुछ नहीं दोस्ती कुछ नहीं है...
जहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है...
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...
जला दो इसे फूँक डालो ये दुनिया...
मेरे सामने से हटालो ये दुनिया
तुम्हारी है तो तुम्ही संभालो ये दुनिया...
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है....
साहिर लुधियानवी...
Thursday, October 30, 2008
गीला गीला सा सच !!!
किनारे से मिले फसाने हकीकत कहे जाते हैं...
तैरती हकीकतें अब भी फ़साने समझे जाते हैं...
कुछ नहीं सच और कुछ नहीं झूठ यु तो...
जो सीरत भीड़ सी वही सच और झूठ बन जाते हैं...
रौशनी देने वाले अंधेरे में चिराग ढूढ़ते हैं ...
बेरुखी भरे समंदर में एक बूँद आस ढूढ़ते हैं...
कब के मर चुके जमीर इस दुनिया में...
और वो बाज़ार में आबरू और ईमान ढूढ़ते हैं...
कुछ एक खवाब बस घुट जाने को पनपते हैं...
कुछ ख्याल रिवाजो में सिमट जाने को बनते हैं...
हर बात होठो से उठी हकीकत नहीं बनती...
कुछ अरमान सिर्फ़ बुझ जाने को उफनते हैं...
क्यों जीने के ये मकसद मुझे रिझाते नहीं...
रंगरलियाँ, ऐशो-आराम क्यों मुझे भाते नहीं...
हकीकत मुझे हर एक मंजर में नज़र आती है...
दुनिया के बनाये नज़ारे मुझे नज़र आते नहीं...
भावार्थ...
कुछ शेर !!!
सीला हुआ साहिल काफ़ी न था लहरों को रोक पाने को...
उठ कर गिरते हुए पानी की सीरत मीठी न थी...
हवाओ का रुख काफ़ी था हिलोरों को शोला बनाने को...
दरिया का कतरा कतरा प्यास से कहीं मर न जाए...
साँसों में रोके हुए है नमी सेहरा कहीं उखड न जाए...
पपीहा बूँद की परवाज़ का अरमान लिए जीता है ...
ओस को प्यासा कोहरा धुंध में कही घुल न जाए...
हर एक मंजर यादो के पत्तो से बना है शायद...
हर एक पहर तेरे एहसासों से बना है शायद ...
कितना अजीब सा है मेरा नादान दिल...
जिससे खफा है उसीके वादों से बना है शायद...
लिखता हूँ उसका नाम और फ़िर मिटा देता हूँ...
कैसे कैसे हर रोज में ख़ुद को सजा देता हूँ...
दीवानगी यह नहीं तो और क्या है तू ही बता ...
जलाता है इश्क और मैं साँसों को बुझा देता हूँ...
भावार्थ...
Wednesday, October 29, 2008
राम बनवास से आज लौट आए शायद !!!
बारूद उड़ उड़ के हवा को रोंद रहा है...
बाज़ार भीड़ से घुटन में दम खो रहे हैं...
राम बनवास से आज लौट आए शायद....
अंधेरे को उजाला सुकून से जीने नहीं देता है...
जानवर उठ कर आदमी के हैवान को देखते हैं...
भूखो को सजी मिठाइयां बदनसीबी याद दिलाती हैं...
राम बनवास से आज लौट आए शायद...
आसमान को आग ने झुलसा दिया है...
धरती धमाको से सुन्न सी पड़ी हुई है....
शाम और रात ने कान बंद केर लिए हैं...
राम बनवास से आज लौट आए शायद...
रावण और उसके इरादे अब भी जिन्दा है...
पता नहीं कौन से असुर को मार के लौटे हैं....
अँधेरा लोगो के दिलो में आज भी गहरा हैं...
राम बनवास से आज लौट आए शायद....
तभी लोग दिवाली मना रहे हैं....
भावार्थ...
Sunday, October 26, 2008
दिल हूम हूम करे...
दिल हूम हूम करे घबराए...
घन धम धम करे गरजाए...
एक बूँद कभी पानी की ...
मोरी अंखियों से बरसाए...
दिल हूम हूम करे...
तेरी झोरी डरूं...
सब सूखे पात जो आए
तेरा छुआ लागे...
मेरी सूखी डार भर आए
दिल हूम हूम करे...
जिस तन को छुआ तुने...
उस तन को छुपाऊँ...
जिस मन को लागे नैना...
वोह किसकी दिखाऊँ
ओ मेरे चंद्रमा
तेरी चांदनी आग लगाये
तेरी ऊंची अटारी...
मैने पंख लिए कटवाय....
दिल हूम हूम करे॥
गुलज़ार...
Saturday, October 25, 2008
हसरतें !!!
सिमटती बिखरती हसरते ...
ये मिटती सवरती हसरतें..
उसके खाब का मीठा एहसास..
न बुझ पाये वो दबी सी प्यास...
तन्हाई में आगोश में वो पास....
ये बुझती सुलगती हसरतें...
अपने आँचल में भरती हसरतें ...
उलझी सी इश्क की ये नज़र...
साँसों का मद्धम सा ये मंजर...
उसके पहलू में शामो ये सहर...
ये जलाती सहलाती हसरतें...
मुझको अपना बनाती हसरते...
अरमानो की गहरे समंदर...
लहरों की मचलते से सजर...
ख्वाइशों के मनचाहे कहर...
ये उठती गिरती हसरतें...
ये सजती बिगड़ती हसरतें...
भावार्थ...
बीती न बीते न रैना...गुलजार !!!
कोरे हैं नींद से नैना...
नैनो के सपने भिगोके...
आए तो बोले न बैना...
बीते न बीते न रैना -२
रातो के पन्नो पे न कोई कारा...
न कोई संगी न कोई बाती..
आंगनमें उतरे न सुबह के पाखी...
न कोई सजन न कोई साथी...
बीते न बीते न रैना...3
तारो में उड़ती हैं पागल हवाएं...
मरू अकेले न जाना ...
बादल के टीले पे उगते बबूल
टीले पे घर न बनाना...
बीते न बीते न रैना...4
गुलजार...
Thursday, October 23, 2008
भूख की शकले...!!!
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है...
सुबह शायद सबसे संगदिल है...
बच्चो की बिलख उड़ उड़ के आती है...
एक रोटी और तीन पेट क्या खुदाई है ...
उजड़ते बचपन में भूख उभर आती है...
रुंदन की घटा हर रोज युही बरसती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है....
चौराहे पे एक गोले से निकली लड़की...
न जाने कितनी तरह से ख़ुद को मोडे है...
भूख भी क्या करतब सिखाती है...
अपने बचपन को पगली पीछे छोडे है...
अदाकारी भी इंसान में ऐसे ही बसती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है...
जो है वो शायद जिन्दा रखने को काफ़ी नहीं...
रास्ता सूझता नहीं उस बुझती सोच को...
भीख मागने पे जमीर आ खड़ा होता है ....
चुरालिये कुछ एक टुकड़े भूक मिटाने को.....
चोरी जन्मजात होने का न निशाँ रखती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है...
भूखी माँ क्या खिलाये भूखे बच्चे को...
दूध आँचल से अब नहीं रिसता उसके...
फ़ुट पड़ता है उसका गुस्सा बचपन पे...
जब चीखते बच्चे खीचते है हाथ उसके...
ख़ुद से नारजगी गुस्सा बनके उभरती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है....
टूटा बदन और बिखरा हुआ जेहेन...
कहाँ से जिन्दा होने का हौसला लाये...
भूख का बाँध कभी तो टूटेगा....
सांसी चलने का फ़ैसला कहाँ से लाये...
हैवानियत इंसान में यही से पनपती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है....
भावार्थ...
में डरने लगा हूँ !!!
तन्हाई में अक्सर आईने से भी मैं डरने लगा हूँ।
खौफ मेरी रूह में है कॉम-ऐ-इंतेशार से इतना।
अब तो हिचकियों , डकारो से भी डरने लगा हूँ।
लहू का सावन था वो बस चुका है मेरे जेहेन में।
सुर्ख लाल सी हर एक चीज़ से में डरने लगा हूँ।
भजन और अजान पढने वाले कत्ल पे आमदा हैं।
अब खुदा क्या , शिव क्या इन नामो से डरने लगा हूँ।
भावार्थ...
Wednesday, October 22, 2008
सर उठा ऐ दबी हुई मखलूक... !!!
मुस्कुरा ऐ ज़मीन-ऐ-तीरह-ओ-तार...
सर उठा ऐ दबी हुई मखलूक...
देख वो मगहर्बी उफक के करीब...
आंधियां पेच-ओ-ताब खाने लगीं...
और पुराने कमार-खाने में ...
कुहनाह शातिर बहम उलझाने लगे...
कोई तेरी तरफ़ नहीं निगरान...
ये गिरां-बार सर्द जंजीरें...
जंग-खुर्दा हैं, आहनी ही सही...
आज मौक़ा’ है टूट सकती हैं...
फुर्सत-ऐ-याक नफस ग़नीमत है...
सर उठा ऐ दबी हुई मखलूक...
साहिर लुधियानवी...
उर्दू:
तीरह-ओ-तर्क - Dark
मखलूक- people
मगहर्बी-western
उफक-horizon
पेच-ओ-ताब-Restlesnes,anxiety
कमार-खाने-Gamble house
कुहनाह-Old ancient
गिरां-बार-Heavy
जंग-खुर्दा-Rusted
आहनी-Iron
फुर्सत-ऐ-याक नफस-a free moment
Tuesday, October 21, 2008
भूख हिलोरे लेती है हर सुबह...
भूख हिलोरे लेती है हर सुबह...
और लोग घर से निकल पड़ते हैं...
कुछ पकी तो कुछ कच्ची नीद लिए...
कोई चमकता चेहरा तो कोई बासी मुँह लिए....
कोई शानदार कपड़े में तो कोई फटे लत्ते सिये...
भूख हिलोरे लेती है हर सुबह...
और लोग घर से निकल पड़ते हैं...
कुछ लैपटॉप तो कुछ फावडा लिए हुए...
कुछ बड़े तो कुछ छोटे सपने बुने हुए...
कुछ जीते तो कुछ मरे जमीर को लिए हुए॥
भूख हिलोरे लेती है हर सुबह...
और लोग घर से निकल पड़ते हैं...
कुछ नौसिखए हैं तो कुछ पुराने हैं....
कुछ पहचाने चेहरे कुछ अनजाने हैं....
कुछ दिलचस्प तो कुछ भूले फ़साने हैं...
भूख हिलोरे लेती है हर सुबह...
और लोग घर से निकल पड़ते हैं...
कुछ बातें बनाने तो कुछ हुनर आजमाने...
कुछ शरीर बेचने तो कुछ आशियाँ बनाने...
कुछ हस्ती बनाने तो कुछ हस्ती मिटाने....
भूख हिलोरे लेती है हर सुबह...
और लोग घर से निकल पड़ते हैं ...
भावार्थ...
Monday, October 20, 2008
मैं चलता रहा !!!
कोहरा था और हवा चल रही थी...
ऐसा लग रहा था जैसे बादल
उड़ उड़ कर मुझे छु कर जा रहे हौं....
पेडो की नाक बह रही थी ठण्ड से...
और सड़के चुपचाप लिपटी पड़ी हुई थी...
पोस्ट लैंप बस ख़ुद को गर्मी दे रहा था...
कच्चा उजाला रास्ते में झांकना चाह रहा था...
ओस कोहरे में से टप-टप रिस रही थी...
हर चीज़ गर्मी को तरस रही थी...
लेकिन मैं रुका नहीं बस चलता रहा...
प्लास्टिक को अपने बोरे में भरता रहा...
इससे पहले कि ठण्ड मेरी रगों मैं बह जाए...
मेरी साँसे इस कोहरे में रुकी रह जाए...
ये धड़कता दिल पत्थर सा हो जाए...
मैं कूडे के ढेर पे झुकता रहा और चलता रहा...
भावार्थ...
Sunday, October 19, 2008
मिलन !!!
अपने आगोश के समंदर में समा लो...
तन्हाई साहिल पे बिखरी हुई है...
ख़ुद की चाहत की लहरों में बहा दो...
जेहेन का तूफान मेरा थमता नहीं...
इन खयालो को अंजाम मिलता नहीं...
ये इन्तहा है उसकी तमन्ना की...
साँसों में किसीका निशाँ मिलता नहीं...
रात शाम के ढलने का इंतज़ार करती है...
सुबह फ़िर न होने का ख्याल रखती है...
ख़ुद को एक अनजान फलक पे ले आओ...
बारिश ख़ुदको जलाने की ख्वाइश रखती है...
दो अक्सों को आख़िर एक सांचे में ढलना है...
तन्हा तमन्नाओ को हवाओ सा मचलना है...
दूरियां अपने होने का निशाँ ढूढती रह जाए...
आ जाओ तुमको मुझसे कुछ ऐसे मिलना है...
भावार्थ...
Friday, October 17, 2008
तू नहीं आया अजनबी !!!
तेरे इंतज़ार में रात भर खाबो के साथ खेलती रही।
खामोश रात की तन्हाई में मैं तेरी राह देखती रही।
पत्थर सी बन गई आँखें अजनबी को सोचती रही।
पर तू नहीं आया अजनबी !!!
पर तू नहीं आया अजनबी !!!
सुबह मुझे तेरे प्यार की किरने उढाने आई।
धुपहर मुझे नीद के खिलोने से बहलाने आई।
नटखट शाम भी तेरा नाम से मुझे चिढाने आई।
पर तू नहीं आया अजनबी !!!
पर तू नहीं आया अजनबी !!!
फिजाओ के पंक्षी उड़ उड़ कर सामने जाते रहे।
हवाओ के नर्म हाथ मेरी गेसुओं को सहलाते रहे।
तेरे ख्याल मुझे पतंग की तरह ले कर जाते रहे।
पर तू नहीं आया अजनबी !!!
पर तू नहीं आया अजनबी !!!
अश्क मेरे बह कर सेहरा दिल की प्यास बुझाते रहे।
आँखों के काजल बह कर मेरे गालो तक आते रहे।
तेरी हिज्र के ख्याल सिसकियाँ होठो तक लाते रहे।
पर तू नहीं आया अजनबी !!!
पर तू नहीं आया अजनबी !!!
भावार्थ...
इरादों को जब तेरे हौसलों के रास्ते मिलते हैं।
मंजिल के ये फलक जमीं पे आके मिलते हैं।
मुट्ठी भर है आसमां जो तू चले अगर।
बालिश्त भर है समंदर जो तू नापले अगर।
एक राह लेले तू कारवां ख़ुद बनने लगते हैं।
इरादों को जब होसलों के रास्ते मिलते हैं।
इरादों को जब तेरे होसलों के रास्ते मिलते हैं।
मंजिल के ये फलक जमीं पे आके मिलते हैं।
हर कदम जो तेरा बढे तेरे दिलकी आवाज़ हो।
मंजिल पर ही रुके तेरे खाब की वो परवाज़ हो।
चीरकर मझधार कोही तो साहिल मिलते हैं।
इरादों को जब तेरे होसलों के रास्ते मिलते हैं।
इरादी को जब तेरे होसलों के रास्ते मिलते हैं।
मंजिल के ये फलक जमीं पे आके मिलते हैं।
ये अंजान राहे कहीं तुझको गुमराह न कर पाये।
गर्दिशों मैं हो जो तारे अगर ये होसले न मुरझाये।
अंजाम के क्षितिज पार ही नए आगाज़ मिलते हैं।
इरादों को जब तेरे होसलों के रास्ते मिलते हैं।
इरादों को जब तेरे होसलों के रास्ते मिलते हैं।
मंजिल के ये फलक जमीं पे आके मिलते हैं।
भावार्थ...
Thursday, October 16, 2008
काश में एक ऐसी नज़्म लिख पाऊँ !!!
सागर सी गहराई लिए किसी साहिल पे बैठी हो।
जैसे रात सी तन्हाई किसी विधवा ने सिमेटी हो।
जिसका हर पहलू पिघले हुए कांच से सिला हो।
जिसका सांचा ख़ुद के आईने मैं एकसार ढला हो।
काश मैं इए ऐसी नज़्म लिख पाऊँ जो।
अनगिनत खयालो को चंद अल्फाजो में कह दे।
जज्बातों के तूफ़ान को उसके आस्तां पे बह दे।
मेरी चाहत की गुजारिश को उसकी हाँ की मोहर दे दे।
पनपते रिश्तो के वजूद को अंजाम की ख़बर दे दे।
काश मैं इए ऐसी नज़्म लिख पाऊँ जो।
मेरी रूह की गर्मी से उस संगदिल को पिघला दे।
रोंधि आवाज़ की चीख से उसके जमीर को हिला दे।
कसक और चाक के निश्तर से उसके अश्क बहा दे।
पल में मेरे खाब और हकीकत के फासले मिटा दे।
काश में एक ऐसी नज़्म लिख पाऊँ जो।
करोडो को उनकी नींद से जागने पे मजबूर कर दे।
डूबने जा रहे कारवां को उस दलदल से दूर कर दे।
हकीकत पे पड़े परदे को कुछ एक पल को हटा दे।
इन डगमगाते रिश्तो की नाव को किनारे से लगा दे।
काश में एक ऐसी नज़्म लिख पाऊँ।
जिसका हर एक अल्फाज़ हजारो की आवाज़ बन जाए।
जो अधूरे आज की तस्वीर आने वाले कल को दिखलाये।
जो बीते कल के अफ़साने इक नए अंदाज़ में बुन लाये।
जो लोगो की जिंदगी से कुछ एक लम्हे फूलो से चुन लाये।
काश में एक ऐसी नज़्म लिख पाऊँ।
भावार्थ...
Wednesday, October 15, 2008
काश !!!
दिन की थकन जिसके सिरहाने ढह जाए।
ऐसा आगोश जिसमें टूट कर बिखर पाऊँ।
जहाँ मेरे ख़ुद के होने का एहसास मिट जाए।
गम के सेहरा में उसकी बातें बारिश सी हो।
एक नर्म छुवन से उसकी दर्द काफूर हो जाए।
अजनबी वोही मुझे रिश्ता बनके मिल जाए।
जिंदगी को मेरी काश साहिल मिल जाए।
भावार्थ..
कुछ ख़ास है कुछ पास है
कुछ ख़ास है कुछ पास है।
कुछ अजनबी एहसास है।
कुछ दूरिया नजदीकियां।
कुछ हस पड़ी तन्हायिया।
क्या ये खुमार है क्या ऐतबार है।
शायद ये प्यार है प्यार है शायद।
क्या ये बहार है क्या इंतज़ार है।
शायद ये प्यार है प्यार है शायद।
कुछ साज़ है जागे से हैं जो सो।
अल्फाज़ है छुप से नशे में खो।
नज़रे ही समझे ये गुफ्तगू सारी।
कोई आरजू ने ली अंगडाई प्यारी।
कहना ही क्या तेरा दखल न हो कोई।
दिल को दिखा दिल की शकल का कोई।
दिल से थी मेरी इक शर्त ये ऐसी।
लगी जीत सी मुझको ये हार है कैसी।
ये कैसा बुखार है क्यों बेकरार है।
शायद ये प्यार है प्यार है ये शायद।
जादू सवार है न इखित्यार है शायद।
शायद ये प्यार है प्यार है ये शायद।
कुछ ख़ास है कुछ पास है।
कुछ अजनबी एहसास है।
कुछ दूरिया नजदीकियां।
कुछ हस पड़ी तन्हायिया।
इरफान सिद्दीकी...
Monday, October 13, 2008
अजीब सा है ये एहसास बड़ा !!!
जिस रिश्ते को में जीता हूँ।
कुछ घंटे लम्हे बन जाते हैं।
उन लम्हों में सदियाँ जीता हूँ।
एक असर है उसकी बातो में।
जो बाँध के मुझको रखता है।
कुछ अदाओं का है सुरूर जुदा।
जो नशा सा बन कर बहता है।
डांट में उसकी प्यार है इतना।
गम ख़ुद ब ख़ुद मिट जाते हैं।
अंदाज़-ऐ-बयां भी कुछ ऐसा है।
दर्द छुईं-मुईं से सिमट जाते हैं।
अजीब सा है ये एहसास बड़ा।
न कह पाऊँ और न सह पाऊँ।
कुछ घुला घुला सा हूँ उसमें।
न थम पाऊँ और न बह पाऊँ।
भावार्थ...
कश्ती का खामोश सफर है !!!
शाम भी है तन्हाई भी।
दूए किनारे पे बजती है।
लहरों की शाहनाही भी।
आज मुझे कुछ कहना है।
आज मुझे कुछ कहना है।
लेकिन यह शर्मीली निगाहें मुझको इज्ज़त दे तो कहूं।
यह मेरी बेताब उमंगे थोडी फुर्सत दे तो कुछ कहूं।
आज मुझे कुछ कहना है।
आज मुझे कुछ कहना है।
जो तुमको कहना है मेरे दिल की ही बात न हो।
जो हो मेरे खाबो की मंजिल है उसकी बात न हो।
कहते हुए डर सा लगता है कह कर बात न खो बैठूं।
यह जो जरा सा साथ मिला है यह भी साथ न खो बैठूं।
कब से तुम्हारे रस्ते में तुम्हारे फूल बिछाये बैठी हूँ।
कह भी चुको जो कहन है में आस लाफाये बैठी हूँ।
दिल ने दिल की बात समझ ली अब मुँह से क्या कहना है।
आज नहीं तो कल कह देंगे अब तो साथ ही रहना है।
कह भी चुको जो कहना है।
छोड़ो अब क्या कहना है।
साहिर लुधियानवी...
कभी कभी (Original Poem)
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है।
की जिन्दगी तेरी जुल्फ की नर्म छाव में।
गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थी।
यह तीरगी जो मेरी जीस्त का मुक्कदर है।
तेरी नज़र की स्वाओं में खो भी सकती थी।
अजब न था की में बैगाना-ऐ-आलम रह कर।
तेरे जमाल की रोनायिओं में खो रहता।
तेरा गुदाज़ बदन तेरी नीमबाज़ आखें।
इन्ही कुछ एक फसानो में में खो रहता।
पुकारती जब मुझे तल्खियाँ ज़माने की।
तेरे लबो से हलावत के घूँट पी लेता।
हयात चीखती फिरती न बर न सर और।
में जुल्फ के घनेरी सायों में छुप के जी लेता।
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है।
की अब तू नहीं तेरा गम तेरी जुस्तजू भी नहीं।
गुज़र रही है कुछ इस तरह जिंदगी कि ।
जैसे इसको किसी सहारे की आरजू भी नहीं।
ज़माने भर के गमो को लगा चुका हूँ गले।
गुजर रहा हूँ कुछ अनजानी रहगुज़ारों से।
मुहिल साए मेरी तरफ़ बढ़ के आते हैं।
हया को मौत के पुरहोल खार जारो से।
न कोई ज्यादा न मंजिल न रौशनी का सुराग।
भटक रही है उन खलाओं में जिंदगी मेरी।
उन्ही खलाओं में रहा जाऊंगा खोकर युही।
में जनता हूँ मेरी हम नफस फिर भी युही।
मेरे दिल में कभी कभी यह ख्याल आता है।
साहिर लुधियानवी....
Sunday, October 12, 2008
कैफियत-६
दिल में सौ चिराग झिलमिलाने लगते हैं।
फूल क्या सफूगे क्या चाँद क्या सितारे क्या।
सब रकीब कदमो पे सर झुकने लगते हैं।
रक्स करने लगती हैं मूरतें अजंता की।
मुद्दतो की लब-बसता गान गाने लगते हैं।
फूल खिलने लगते हैं उजडे उजडे गुलशन में।
प्यासी प्यासी धरती पे अम्ल चने लगते हैं।
लम्हों भर को ये दुनिया जुल्म छोड़ देती है।
लम्हों भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं।
जब भी चूम लेता हूँ इन हसी आँखों को।
सौ चिराग अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं।
कैफी आज़मी...
Saturday, October 11, 2008
तेरे अक्स से बनी हूँ मैं !!!
तेरे आईने में सजी हूँ मैं।
कहाँ तुझसे जुदा हूँ में।
कहाँ तुझसे जुदा हूँ में।
तेरी साँसे मेरी साँस बन चुकी।
तेरी बाहें मेरा आगोश बन चुकी।
कहाँ तुझसे खफा हूँ में।
कहाँ तुझसे जुदा हूँ में।
नजरो के आशियाँ में तू।
सपनो की इस जहाँ में तू।
कहाँ तुझसे रिहा हूँ में।
कहाँ तुझसे जुदा हूँ में।
मेरी प्यास का आगाज़ है तू।
मेरी तलाश का अंजाम है तू।
कहाँ तुझबिन जिया हूँ में।
कहाँ तुझसे जुदा हूँ में।
मेरी रातो की गहराई तू।
मेरे दिनों की बेइन्तिहाई तू।
कहाँ तुझसे रिहा हूँ में।
कहाँ तुझसे जुदा है में।
मेरे इश्क की वो खुदाई तू।
मेरे खाबो की बेपनहाई तू।
कहाँ तुझसे बचा हूँ में।
कहाँ तुझसे जुदा हूँ में।
तेरे अक्स से बनी हूँ में।
तेरे आईने में सजी हूँ में।
कहा तुझसे जुदा हूँ में।
कहाँ तुझसे जुदा हूँ में।
भावार्थ...
Friday, October 10, 2008
अपनी शख्शियत के गुलाम !!!
और आज आनेवाले कल से रूठा है।
थमा पानी बहते पानी से नाराज है।
सकरी गलियां चौडी सड़कों से खफा हैं।
रास्ते मंजिलो से नाक मुँह सिकोड़ते हैं।
और फूल अपने कांटो से परेशान है।
ये कलियाँ फूलो से जलने लगी हैं।
जवानी को बचपन चिढा रहा है।
और जवानी से बुढापा खार खा रहा है।
सर्दियाँ बरसात से बात नहीं करती।
और बरसात गर्मियों से गुमसुम है।
शहर गावों की सादगी ढूढ़ते हैं।
और भीड़ तन्हाई का शीशा नहीं देखती।
बादल फलक को देख हैरान है।
और बादल धरती को आँख भर नहीं सुहाते।
रेंगते इंसान को पंछी की परवाज़ खटकती है।
हाथी को शेर की रफ़्तार की कसक है।
अजीब सी बैचैनी पाले ये दुनिया कैसी है।
तुम मेरे से नहीं तो मेरे नहीं हो सकते।
सपने जो में न देखूं मेरे हो नहीं सकते।
शायद हम अपनी शख्शियत के गुलाम है।
दूसरो को अपना न सके इसीलिए गुमनाम हैं।
भावार्थ...
Wednesday, October 8, 2008
मायने ढूढती हूँ जिंदगी के जो मैं !!!
तो लोग पगली कहने लगते हैं।
बुजुर्गो के बिछाये रास्ते जो बदलू।
तो लोग पगली कहने लगते हैं।
मेरी तो सोच का निश्तर ही मेरा खूनी है।
जिस्म भला क्या करे जब रूह ही जुनूनी है।
रोज तन्हाई मुझे अपनी शकले दिखाती है।
कभी अँधेरा तो कभी खामोशी बन के आती है।
दिलके गुबार जो बाहर लाती हूँ।
तो लोग पगली कहने लगते हैं।
मायने ढूढती हूँ जिंदगी के जो मैं ।
तो लोग पगली कहने लगते हैं।
रिश्तो की अहमियत कोई मुझको बतलाये।
अजनबी बंधे खिची रेखाओ से न बाहर आयें।
एहसान चुकने के लिए जन्म एक काफ़ी नहीं।
उमीदे पूरा करने को तो सात जन्म काफ़ी नहीं।
अपनी तरह जीने लगती हूँ जो।
तो लोग पगली कहने लगते हैं।
मायने ढूढती हूँ जिंदगी के मैं ।
तो लोग पगली कहने लगते हैं।
कोई हो जो कुछ पाने की चाह से आजाद हो।
हर चाहत हो मेरी मुझसे जुड़ी हर फरियाद हो।
जिसकी हर दुआ में मेरा नाम शामिल रहे।
मैं उसके जेहेन मैं और वो मेरे दिल मैं रहे।
जब उस शख्स को ढूढने लगती हूँ।
तो लोग पगली कहने लगते हैं।
मायने ढूढती हूँ जिंदगी के मैं ।
तो लोग पगली कहने लगते हैं।
बुजुर्गो के बिछाये रास्ते बदलू।
तो लोग पगली कहने लगते हैं।
भावार्थ
तेजाब !!!
दिल ओ दिमाग का हर एक
Monday, October 6, 2008
मेरा नन्द गोपाल !!!
मोती अनमोल सा। मेरा नन्द गोपाल।
बासुरी बजाये वो। मेरा नन्द गोपाल।
गयिया चराए वो। मेरा नन्द गोपाल।
रास रचाये वो। मेरा नन्द गोपाल।
गोपियाँ रिझाये वो। मेरा नन्द गोपाल।
ग्वालो संग खेले वो। मेरा नन्द गोपाल।
बलराम संग खेले वो। मेरा नन्द गोपाल।
राधा का श्याम। मेरा नन्द गोपाल।
सब का घनश्याम। मेरा नन्द गोपाल।
ब्रिज का मुरारी। मेरा नन्द गोपाल।
जग पालन हारी। मेरा नन्द गोपाल।
देवकी नन्दन। मेरा नन्द गोपाल।
देव अभिनन्दन। मेरा नन्द गोपाल।
यशोदा का कन्हिया।मेरा नन्द गोपाल।
गोपी मन बसिया। मेरा नन्द गोपाल।
मथुरा समाये। मेरा नन्द गोपाल।
द्वारिका बसाये। मेरा नन्द गोपाल।
सब असुर भगाए। मेरा नन्द गोपाल।
गोवेर्धन उठाये। मेरा नन्द गोपाल।
चंदा सा चकोर सा। मेरा नन्द गोपाल।
मोती अनमोल सा। मेरा नन्द गोपाल।
भावार्थ...
Friday, October 3, 2008
मेरा अस्तित्व हैरान है
और में एक बुद्धू सा बना बैठा हूँ।
कागज़ को आसमान सा समझाता हूँ।
इन्द्रधनुष को बहरूपिया समझ बैठा हूँ।
स्याही की नदी के किनारे मेरी नाव है।
लेखनी के पेड़ उगते क्यों नहीं।
समंदर से कुछ अल्फाज़ हथेली पे लिए।
ये मेरे आसमान को भरते क्यों नहीं।
ये कहानियो के जंगल जो जल रहे हैं।
तन्हाई इनकी आग बन गई।
नज़्म, गज़ले खौफ-शुदा हैं सभी।
रूह उनकी शोर में घुल गई।
आज अँधेरा दिवाली मना रहा है।
उसने तारे इतने दूर-दूर जलाये हैं।
मेरी आँखें आसमान तक रही हैं।
हर्फ़ उसपर अबतक नहीं उतर पाये हैं।
कुछ हवाएं चमकने लगी कहीं।
जुगनू उसकी रौशनी में गुम हो गए।
मेरा अस्तित्व हैरान सा है उसके होने पे।
और ये कुछ अल्फाज़ आस्मां पे सो गए।
भावार्थ...
Wednesday, October 1, 2008
कोई तो था !!!
कोई तो था जो रंगभेद से टकराया था।
अफ्रीका में जिसने सपना एक दिखाया था।
जला के सारे भेद भाव के बिल्ले उसने।
गोरो को समानता का पाठ सिखाया था।
कोई तो था !!!
कोई तो था जिसने अहिंसा लाठी थामी थी।
स्वराज के दीवाने को कहाँ मंजूर गुलामी थी।
सत्याग्रह से ही स्वराज मिलेगा भारत को।
हिंसा को मिटा दिलो से सत्य की राह दिखा दी थी।
कोई तो था !!!
जिसकी एक आँख हिंदू तो दूजी मुसलमा थी।
दिल में जिसके राम, मोहम्मद की महिमा थी।
सालो पुराने समाज की नींव को जिसने।
धर्म निरपेक्ष बना बढाई भारत की गरिमा थी।
कोई तो था !!!
सालो से दबे को उसने 'हरिजन' कह अपनाया था।
हिंदू थे वो उनको जिसने हिंदू का एहसास कराया।
हर जाति से उपर होता उस इंसान का ब्रह्म स्वरुप।
हर जाति को "समान" समझ अपने गले लगाया था।
कोई तो था !!!
अंग्रेजो भारत छोड़ो का नारा खूब लगाया था।
'असहयोग' का विचार भारत को फ़िर सुझाया था।
न कोई गोली, न कोई बम न कोई कत्ल-ऐ-आम।
ख़ुद झुक कर ही जिसने अंग्रेजो को झुकाया था।
कोई तो था !!!
भावार्थ...
(२ अक्टूबर २००८, गांधी जयंती के उपलक्ष्य में )
बिलखते रिश्ते !!!
वोह फ़िर भी कहते है कि हम साथ जी रहे हैं।
न तो रास्ते हैं पाक और न ही कारवा पाक है।
हमसफर भी अब नापाक सीरत को जी रहे हैं।
सात जन्मो के वादे सब अफ़साने से लगते हैं।
चाँद लम्हे भी वो दोनों अजनबी से जी रहे हैं।
कत्ल है जमीर और हैवानियत सवार है अब।
दो रूह कबकी मर चुकी बस दो शरीर जी रहे हैं।
कितने गम और न जाने कितनी कसक दफ़न है ।
फ़ुट पड़ते है जो चाक बस उन ही को सी रहे हैं।
रिश्ते बिलख रहे हैं और लोग दर्द पी रहे हैं।
वोह फ़िर भी कहते है कि हम साथ जी रहे हैं।
भावार्थ...