Tuesday, November 22, 2011

बहला भी गए तडपा भी गए...

तस्कीन-ए-दिल-ए-महजू  न  हुई  वो  साइ-ए-करम  फरमा  भी  गए...


उस साइ-ए-करम का क्या कहिये बहला भी गए तडपा भी गए...



एक अर्ज़-ए-वफ़ा भी कर न सके कुछ कह न सके कुछ सुन न सके...

यहाँ हम ने ज़बान ही खोली थी वहां आँख  झुकी शरमा भी गए...



आशुफ़्तगी-ए-वहशत  की  क़सम  हैरत की क़सम हसरत की क़सम...

अब आप कहे  कुछ  या  न कहे हम राज़-ए-तबस्सुम  पा भी गए...



रूदाद-ए-गम-ए-उल्फत उन  से  हम  क्या कहते क्यों न कहते ....

एक हर्फ़ न निकला होठों से से  और  आँख में  आंसू आ भी गए...



अरबाब-ए-जूनून  पे फुरकत  में अब क्या कहिये क्या क्या गुज़रा ...

आये थे सवाद-ए-उल्फत में कुछ्ह खो भी गए कुछ पा भी  गए...



ये  रंग-ए-बहार-ए-आलम  है  क्या  फिक्र  है  तुझ  को  ए साकी ...

महफ़िल तो तेरी सूनी न हुई कुछ उठ भी गए कुछ्ह आ भी गए...



इस महफ़िल-ए-कैफ-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफानी में...

सब जाम-बा-काफ बैठे रहे हम पी भी गए छलका भी गए...


असरार उल हक उर्फ़ "मजाज़"

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