तस्कीन-ए-दिल-ए-महजू न हुई वो साइ-ए-करम फरमा भी गए...
उस साइ-ए-करम का क्या कहिये बहला भी गए तडपा भी गए...
एक अर्ज़-ए-वफ़ा भी कर न सके कुछ कह न सके कुछ सुन न सके...
यहाँ हम ने ज़बान ही खोली थी वहां आँख झुकी शरमा भी गए...
आशुफ़्तगी-ए-वहशत की क़सम हैरत की क़सम हसरत की क़सम...
अब आप कहे कुछ या न कहे हम राज़-ए-तबस्सुम पा भी गए...
रूदाद-ए-गम-ए-उल्फत उन से हम क्या कहते क्यों न कहते ....
एक हर्फ़ न निकला होठों से से और आँख में आंसू आ भी गए...
अरबाब-ए-जूनून पे फुरकत में अब क्या कहिये क्या क्या गुज़रा ...
आये थे सवाद-ए-उल्फत में कुछ्ह खो भी गए कुछ पा भी गए...
ये रंग-ए-बहार-ए-आलम है क्या फिक्र है तुझ को ए साकी ...
महफ़िल तो तेरी सूनी न हुई कुछ उठ भी गए कुछ्ह आ भी गए...
इस महफ़िल-ए-कैफ-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफानी में...
सब जाम-बा-काफ बैठे रहे हम पी भी गए छलका भी गए...
असरार उल हक उर्फ़ "मजाज़"
उस साइ-ए-करम का क्या कहिये बहला भी गए तडपा भी गए...
एक अर्ज़-ए-वफ़ा भी कर न सके कुछ कह न सके कुछ सुन न सके...
यहाँ हम ने ज़बान ही खोली थी वहां आँख झुकी शरमा भी गए...
आशुफ़्तगी-ए-वहशत की क़सम हैरत की क़सम हसरत की क़सम...
अब आप कहे कुछ या न कहे हम राज़-ए-तबस्सुम पा भी गए...
रूदाद-ए-गम-ए-उल्फत उन से हम क्या कहते क्यों न कहते ....
एक हर्फ़ न निकला होठों से से और आँख में आंसू आ भी गए...
अरबाब-ए-जूनून पे फुरकत में अब क्या कहिये क्या क्या गुज़रा ...
आये थे सवाद-ए-उल्फत में कुछ्ह खो भी गए कुछ पा भी गए...
ये रंग-ए-बहार-ए-आलम है क्या फिक्र है तुझ को ए साकी ...
महफ़िल तो तेरी सूनी न हुई कुछ उठ भी गए कुछ्ह आ भी गए...
इस महफ़िल-ए-कैफ-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफानी में...
सब जाम-बा-काफ बैठे रहे हम पी भी गए छलका भी गए...
असरार उल हक उर्फ़ "मजाज़"
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