Wednesday, November 30, 2011

होता है शब्-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे...

बाज़ीचा-ए-अत्फाल है दुनिया मेरे आगे...


होता है शब्-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे...



[ baazeechaa = play/sport, atfaal = children ]


इक खेल है औरंग-ए-सुलेमान मेरे नज़दीक...

इक बात है 'एइजाज़-ए-मसीहा मेरे आगे...



[ auraNg = throne, 'eijaz = miracle ]



जुज़ नाम नहीं सूरत-ए-आलम मुझे मंज़ूर...

जुज़ वहम नहीं हस्ती-ए-आशिया मेरे आगे...



[ juz = other than, aalam = world, hastee = existence,

ashiya = things/items ]


होता है निहां गर्द में सेहरा मेरे होते...

घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मेरे आगे...



[ nihaaN = hidden, gard = dust, sehara = desert, jabeeN = forehead ]



मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे ?

तू देख के क्या रंग तेरा मेरे आगे...


सच कहते हो, खुद्बीन-ओ-खुद_आरा न क्यों हूँ ?

बैठा है बुत-ए-आइना_सीमा मेरे आगे...



[ KHudbeen = proud/arrogant, KHud_aaraa = self adorer,

but = beloved, aainaa_seemaa = like the face of a mirror ]


फिर देखिये अंदाज़-ए-गुल_अफ्शानी-ए-गुफ्तार...

रख दे कोइ पैमाना-ओ-सहबा मेरे आगे...



[ gul_afshaanee = to scatter flowers, guftaar = speech/discourse,

sahaba = wine, esp. red wine ]


नफरत का गुमान गुज़ारे है, मैं रश्क  से गुज़रा...

क्यों कर कहूं, लो नाम न उसका मेरे आगे...



[ gumaaN = doubt, rashk = envy ]



ईमान मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ्र...

काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे...



[ kufr = impiety, kaleesa = church/cathedral ]



आशिक हूँ, पे माशूक_फरेबी है मेरा काम...

मजनूँ को बुरा कहती है लैला मेरे आगे...



[ farebee = a fraud/cheat ]



खुश होते हैं पर वस्ल में यों मर नहीं जाते...

आयी शब्-ए-हिजरां की तमन्ना मेरे आगे...



[ hijr = separation ]



है मौज_जान  इक कुल्ज़ुम-ए-खून, काश, यही हो...

आता है अभी देखिये क्या-क्या मेरे आगे...



[ mauj_zan = exciting, qulzum = sea, KHooN = blood ]



गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँहों में तो दम है...

रहने दो अभी साघर-ओ-मीना मेरे आगे...



[ jumbish = movement/vibration, saaGHar-o-meena = goblet ]



हम पेशा-ओ-हम_मशरब-ओ-हम_राज़  है मेरा...

'ग़ालिब' को बुरा क्यों कहो अच्छा मेरे आगे !



[ ham_pesha = of the same profession, ham_masharb = of the

same habits/a fellow boozer, ham_raaz = confidant ]

 
'ग़ालिब'

आज कल हमारी मोहब्बत का जिक्र है...

आज कल हमारी मोहब्बत का जिक्र है...
तुझे इश्क  और मुझे ज़माने की फ़िक्र है...

किस तरह पलता  मेरा इश्क दुनिया में..
उसे चिराग बुझाने मुझे जलाने की फ़िक्र है...

इश्क के दो पहलू इसी तरह से रहे... 
उसे हवस और मुझे इश्क निभाने की फ़िक्र है...
ये नहीं की उसके इरादे नेक नहीं...
मुझे हवा की उसे भीतर के आदम की फ़िक्र है...


भावार्थ...

जालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा...

आंख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा..
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा...

डूबते डूबते क्षित को उछाल अड़े दूं..
में न अहिं तो कोई तो साहिल पे उतर जाएगा...

जिंदगी तेरी अत है तो हए जाने वाला..
तेरी बक्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा...

जब्त लाजिम है मगर दुःख है क़यामत का फ़राज़...
जालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा...

अहमद फ़राज़ !!!


Thursday, November 24, 2011

जो था पसंद हमें न वो काम मिला...

जो था पसंद हमें न वो काम मिला...
नापसंद था जो वो हमें तमाम मिला...

जिंदगी इस बे-इख्तियारी में रही  ...
काम के आदमी को न काम का  काम मिला...

कौम की चक्की में पिसते रहे हम ...
सजदे को न खुदा मिला न ही राम मिला...

राह-ए-इश्क पे निकल गए इतना...
न आगाज़ नसीब न ही अंजाम मिला...

जिंदगी से जिंदगी चुराती रही उम्र ...
उसकी बेवफाई का  न कोई पैगाम मिला...

जो था पसंद हमें न वो काम मिला...
नापसंद था जो वो हमें तमाम मिला...


भावार्थ

नज़्म उलझी हुई है सीने में...

नज़्म उलझी हुई है सीने में...


मिसरे अटके हुए है होंठो पर...

उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह...

लफ्ज़ कागज़ पे बैठते ही नहीं...

कब से बैठा हुआ हूँ में जानम...

सादा कागज़ पे लिख के नाम तेरा...

बस तेरा नाम ही मुकम्मल है...

इस से बेहतर भी नज़्म क्या होगी?

गुलज़ार  !!!



Wednesday, November 23, 2011

शायर-ए-फितरत हूँ में !!!

शायर-ए-फितरत हूँ में जब फ़िक्र फरमाता हूँ मैं...
रूह बन कर जर्रे जर्रे में समां जाता हूँ मैं...

आके तुम बिन  इस तरह घबराता हूँ मैं..
जैसे हर शय में किसी शय की कमी पाता हूँ मैं...

तेरी महफ़िल तेरे जलवे फिर तकाजा क्या जरूर ...
ले उठा जाता हूँ जालिम ले चल जाता हूँ मैं...

हाय री मजबूरियाँ करके मोहब्बत के लिए...
मुझको समझाते हैं वो और उनको समझाता हूँ मैं...

एक दिल है उअर तूफ़ान-ए-हवादिस ए जिगर...
एक शीशा है की हर पत्थर से टकराता हूँ मैं ..

जिगर मोरादाबादी !!!

किसी का यु तो हुआ कौन हुआ

किसी का यु तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी...
ये हुस्न-ओ-इश्क तो धोखा है सब मगर फिर भी...

किसी का यु तो हुआ कौन हुआ उम्र भर फिर भी...

हज़ार बार जमाना इधर से गुज़ारा है...
नयी नयी सी है  कुछ देर इधर रहगुज़र फिर भी...

तेरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है...
उतर गया रग-ए-जाँ में ये निश्तर  फिर भी...

किसी का यु तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी...
ये हुस्न-ओ-इश्क तो धोखा है सब मगर फिर भी...

फ़िराक गोरखपुरी...

Tuesday, November 22, 2011

ये जो कौलो-करार है क्या है...

ये जो कौलो-करार है क्या है...
शक्ल है या एक वार है क्या है...

ये जो उठता है दिल में रह रह कर..
अब्र है या गुबार है क्या है...

जेर-इ-लब एक झलक तबस्सुम की...
बर्फ है या शरार है क्या है...

कोई दिल का मकाम समझाओ..
घर है या रहगुज़ार है क्या है...

फ़िराक गोरखपुरी !!!

फ़िराक गोरखपुरी

फिराक एक नयी सूरत निकल तो सकती है...
वो आँख कहती है दुनिया बदल तो सकती है...
कड़े हैं कोस बहुत मंजिल-ए- मोहब्बत के..
मिले न छाव मगर धुप ढल तो सकती है...
सुना है बर्फ के टुकड़े हैं दिल  हसीनों के...
कुछ आंच पा के चांदी पिघल तो सकती है...

फ़िराक गोरखपुरी !!!

तो और क्या होगा !!!

बेवा से बेवफाई का सिला  क्या  होगा...
न फटेगी धरती  तो फिर और क्या होगा...

बचपन को बच्चो से छीन कर जो ...
न बाढ़ से उजड़ेंगे  तो और क्या होगा...

हमसफ़र से मोहब्बत का दोखा कर...
तन्हाई से न तड़पेंगे तो और क्या होगा...

पाक रिश्तो को तिनके का सहारा दे कर...
तूफ़ान में न बिखरेगे तो और क्या होगा...

भुला के किसी शरीफ का एहसान जो ...
न दर दर वो भटकेंगे तो और क्या होगा...

चुपके से  वहशियत को देते है अंजाम जो...
लाइलाज बेमारी से न मरेंगे तो और क्या होगा...

न नूर की इबादत न पत्थर को सजदा...
वो बौराते  हुए न फिरेंगे तो और क्या होगा...

बेवा से बेवफाई का सिला क्या  होगा...
न फटेगी धरती  तो फिर और क्या होगा...

भावार्थ

तोड़कर अहद-इ-करम न आशना हो जायिए.. !!!

तोड़कर अहद-इ-करम न आशना हो जायिए..
बंदा परवर जाईये अच्छा खफा हो जायिए...

राह में मिलिए कभी मुझ से तो अजरा-ए-सितम
होठ अपने काट के फ़ौरन जुदा हो जाईये..

जी में आता ही उस शोख-इ तगाफुल केश से..
अब न मिलिए फिर कभी और बेवफा हो जाईये...

हाय री बे-इख्तियारी ये तो सब कुछ हो मगर..
उर सरापा नाज़ से क्यों कर खफा हो जाईये...

तोड़कर अहद-इ-करम न आशना हो जायिए..
बंदा परवर जाईये अच्छा खफा हो जायिए...

जोश मलीहाबादी !!!

तार्रुफ़ !!!

खूब पहचान लो असरार हूँ मैं...

जिंस-ए- उल्फत का  तलबगार हूँ मैं...

इश्क ही इश्क है दुनिया मेरी... 
फितना-ए-अक्ल से बेज़ार हूँ मैं...


छेड़ती है जिसे मिज़राब-ए-आलम ... 
साज़-ए-फितरत का वही तार हूँ मैं...


ऐब जो हाफ़िज़-ओ-खय्याम में था 
हाँ कुछ इस का भी गुनाहगार हूँ में ...


ज़िंदगी क्या है गुनाह-ए -आदम... 
ज़िंदगी है तो गुनाहगार हूँ मैं... 

मेरी बातों में मसीहाई  है...
लोग  कहते हैं की बीमार हूँ मैं...


एक लपकता हुआ शोला हूँ मैं...
एक चलती हुई तलवार हूँ मैं...


असरार उल हज "मजाज़" 

बहला भी गए तडपा भी गए...

तस्कीन-ए-दिल-ए-महजू  न  हुई  वो  साइ-ए-करम  फरमा  भी  गए...


उस साइ-ए-करम का क्या कहिये बहला भी गए तडपा भी गए...



एक अर्ज़-ए-वफ़ा भी कर न सके कुछ कह न सके कुछ सुन न सके...

यहाँ हम ने ज़बान ही खोली थी वहां आँख  झुकी शरमा भी गए...



आशुफ़्तगी-ए-वहशत  की  क़सम  हैरत की क़सम हसरत की क़सम...

अब आप कहे  कुछ  या  न कहे हम राज़-ए-तबस्सुम  पा भी गए...



रूदाद-ए-गम-ए-उल्फत उन  से  हम  क्या कहते क्यों न कहते ....

एक हर्फ़ न निकला होठों से से  और  आँख में  आंसू आ भी गए...



अरबाब-ए-जूनून  पे फुरकत  में अब क्या कहिये क्या क्या गुज़रा ...

आये थे सवाद-ए-उल्फत में कुछ्ह खो भी गए कुछ पा भी  गए...



ये  रंग-ए-बहार-ए-आलम  है  क्या  फिक्र  है  तुझ  को  ए साकी ...

महफ़िल तो तेरी सूनी न हुई कुछ उठ भी गए कुछ्ह आ भी गए...



इस महफ़िल-ए-कैफ-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफानी में...

सब जाम-बा-काफ बैठे रहे हम पी भी गए छलका भी गए...


असरार उल हक उर्फ़ "मजाज़"

अब अक्सर चुप चुप रहे हम...

अब अक्सर चुप चुप रहे हम...
यु ही कहो लब खोले हैं...

पहले फ़िराक को देखा होता....
अब तो अभूत कम बोले हैं...

दिन में गम को देखने वालो..
अपने अपने हारों का...

जाओ न तुम इन खुश्क आँखों पे...
हम रातों को रोले  हैं...

पहले फ़िराक को देखा होता....

अब तो अभूत कम बोले हैं...


गम का फ़साना सुनने वालो..
आखिर शब् आराम  करो...

कल ये कहानी  फिर छेड़ेंगे ...
हम भी जरा अब सो लेते हैं...

पहले फिराक देखा होता...
अब तो बहुत कम बोले हैं...


फ़िराक गोरखपुरी !!!


मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाकात का आलम...

मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाकात का आलम...
खामोश अदाओं में वो जज्बात का आलम...

अल्लाह रे वो शिद्दत-ए- जज्बात का आलम..
कुछ कहते  हुए उनकी  हर बात का आलम...

वो नज़रों ही नज़रों में सलावत की दुनिया...
वो आँखों ही आँखों में जवावात का आलम...

मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाकात का आलम...

खामोश अदाओं में वो जज्बात का आलम...


जिगर मुरादाबादी !!!

Monday, November 21, 2011

एक ऐसी लोरी लिखूं... !!!

एक ऐसी लोरी लिखूं...
जो तुमको खाब दिखाए...
दूर देश से जा कर...
जो परियों की दुनिया लाये...

एक ऐसी लोरी लिखूं...
जिसे सुनकर तुम सो जाओ...
आँखों में आंसू न रहे कभी...
तुम उसके बोलों में खो जाओ...

एक ऐसी लोरी लिखूं...
जो तुमसी मीठी सुरीली हो...
जो धीमी धीमी सी आहट हो..
जो खिलोनो सी ही सजीली हो...

एक ऐसी लोरी लिखूं...
जो तुमको खाब दिखाए...
दूर देश से जा कर...
जो परियों की दुनिया लाये...

भावार्थ

नन्हा सा खाब !!!

मोहब्बत के आसमा में...
उल्फ़त के बादल उमड़ते रहे...
पाक रिश्ते के इर्द गिर्द...
प्यार की मदहोशी बिखरी...
इश्क ही इश्क था दामन तले...
दो रूह बस इकसार हो गयी...

वही एकसार नन्हा सा खाब हो तुम...

जो साया है मोहब्बत का...
जो परछाई है उल्फत की...
जो वजूद है रिश्ते का...
जो निशानी है प्यार की...
जो परछाई है इश्क की...


वही एकसार नन्हा सा खाब हो तुम...

जो खुदा का नूर है...
जो शिव का कनेर है...
जो इबादतों का स्वरुप है...
जो प्रणव का तोहफा है...
जो अवंतिका की याद  है...

वही एकसार नन्हा सा खाब हो तुम


भावार्थ

आपकी नज़रों ने समझा प्यार के काबिल मुझे !!!

आपकी  नज़रों  ने समझा प्यार के काबिल मुझे ...
दिल की ए धड़कन ठहर जा मिल गयी मंजिल मुझे...

जी हमें मजूर है आपका ये फैसला..
कह रही है हर नज़र बंद परवर शुक्रिया

हस के अपनी जिंदगी में कर लिया शामिल मुझे...
दिल की ए धड़कन ठहर जा मिल गयी मंजिल मुझे...

आपकी मंजिल हूँ में मेरी मंजिल आप हैं...
क्यों में तूफ़ान से दारू मेरी साहिल आप हैं...

कोई तुफानो से कह दे मिल गया साहिल मुझे..
दिल की ए धड़कन ठहर जा मिल गयी मंजिल मुझे...

पड़ गयी दिल पे मेरे आपकी परछाईयाँ ...
हर तरफ बजने लगी सेकड़ों  शहनायियाँ ...

दो जहाँ की खुशियाँ हो गयी हांसिल मुझे...
दिल की ए धड़कन ठहर जा मिल गयी मंजिल मुझे...

आपकी  नज़रों  ने समझा प्यार के काबिल मुझे ...
दिल की ए धड़कन ठहर जा मिल गयी मंजिल मुझे...

राजा मेहँदी अली खाँ !!! ( फिल्म : अनपढ़)

He wrote some other beautiful songs such as...

आ गले लग जा की ये हंसी रात फिर हो न हो... (मेरा साया)
मेरे पिया गए रंगून...(रंगून )

Raja Mehdi Ali Khan was the first lyricist to introduce Aap in film songs, such as Aap ki nazron…. (Anpadh), Aap kyon roye (Woh Kaun Thi?), Aap ne apna banaya (Dulhan Ek Raat Ki).

Sunday, November 20, 2011

क्या पाया और क्या खोया !!!

शोहरत की तमन्ना...
दौलत की चाह ...
या फिर...

हस्ती बनाने का फितूर...
या किसी अफकार की तलब...
कुछ ऐसी है...

जैसे पपीहे को बूँद...
या पतंगे को लौ..

मिलती तो है मगर...

उस मकाम पे सुध नहीं होती...
कि क्या पाया और क्या खोया...

भावार्थ

Monday, November 7, 2011

उनकी आँखों में !!!

उनकी आँखों में जब नमी देखी...
हुस्न के चार सू गमी देखी...

कौन सी बात वो छुपाये हैं..
आने जाने में अब कमी देखी...

उनकी आँखों में जब नमी देखी...
हुस्न के चार सू गमी  देखी...

बेसबब जब वो मुस्कुराने लगे...
अब के कुछ बात बनी सी देखी...

उनकी आँखों में जब नमी देखी...
हुस्न के चार सू गमी  देखी...

रुके रोशन पे इस कदर साए...
फूल पर धूल सी जमी देखी...

हुस्न के चार सू गमी देखी...
उनकी आँखों में जब नमी देखी...

हजरत !!!









बेसब्र तमन्ना !!!

वो कौन सा सजर है तेरा जहाँ न इश्क बेशुमार हो ..
वो कौन सा मंजर है तेरा जहाँ न  तेरा खुमार हो...

रात की बेसुध तन्हाई नर्म बाहों में कैद हो..
वो कौन सा पल है जिसमें  न तेरा  प्यार हो ...

आहट भी जहाँ दिल की सुनायी देने लगे...
वो कौन सा पहर है जब न तेरा इंतज़ार हो ...

उठ उठ कर बेसब्र तमन्ना मचली है मेरी...
वो कौन सा पहलू है जहाँ न तेरा इज़हार हो ...

कैद कर लो अपने ख्यालो में मुझे मेरी जाँ...
वो कौन सा खाब है जिसमें न तेरा इकरार हो...


वो कौन सा सजर है तेरा जहाँ न इश्क बेशुमार हो ..
वो कौन सा मंजर है तेरा जहाँ न  तेरा खुमार हो...



भावार्थ