में अपने ख्वाब से बिछड़ा नज़र नही आता।
और तू इस सदी में अकेला नज़र नही आता।
अजीब दबाव है इन बाहरी हवाओं का॥
घरों का बोझ भी उठता नज़र नही आता।
में एक सदा पे हमेशा को घर छोड आया था।
मगर पुकारने वाला ख़ुद नज़र नही आता।
तेरी राह से हटाने को हट गया लेकिन ।
मुझे कोई भी रास्ता नज़र नही आता।
धुआं भरा है यहाँ सभी की आन्खो में ।
किसी को घर मेरा जलता नज़र नही आता।
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में चाहता भी यही था वो बेवफा निकले।
उसे समझाने का कोई तो सिलसिला निकले।
किताब-ऐ-माजी के औराक उलट के देख ज़रा।
न जाने कौन सा सफाह मुड़ा हुआ निकले।
जो देखने में बहुत ही क़रीब लगता है।
उसी के बारे में सोचो तो फासला निकले।
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वसीम बरेलवी...
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