चल चल के राह पे थक चुका है इस दौर का आदमी।
चुन चुन के कांटे ख़ुद छिल चुका है इस दौर का आदमी।
यू तो अपने ख्वाबो का सैलाब लिए फिरता है सीने में ।
बुन बुन के उनमें ख़ुद घुट चुका है इस दौर का आदमी।
उसूल फूक के उसने अपनी रूह की चिता जलाई है फ़िर।
जल जल के उन्ही में मिट चुका है इस दौर का आदमी।
ये वासना का बहाव जो उसको भवर में लिए जा रहा है।
घुल घुल के उसी में ख़ुद घुल चुका है इस दौर का आदमी।
इसका असली चेहरा पहचानना मुश्किल है बड़ा रिश्तो में।
रख रख के नकाब बेचेहरा हो चुका है इस दौर का आदमी।
भावार्थ...
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