इस दौर के ठहरे बादल न जाने कैसे बरसेंगे।
पपीहा क्या अब तो इंसा भी जीने को तरसेंगे।
उजियाला दिन छोटा और काली रात बड़ी होगी।
डरी जिंदगी भी बेखौफ मौत के साथ खड़ी होगी।
हुनर के अरमान बीच बाज़ार बिकने को बिखरेंगे।
पपीहा क्या अब तो इंसा भी जीने को तरसेंगे।
खोखले लोग, सोच खोखली , खोखली बातें सारी।
दस्तूर दौर यही होगा रोएगी खोखल दुनिया सारी।
सच का बोझ उठाते उठाते रूह भी एक दिन रोदेगी।
ये झूट की शौहरत आने वाली पीड़ी का रुख मोडेगी।
उसूल के अश्क भी सावन भादो इस तरह से बरसेंगे।
पपीहा क्या अब तो इंसा भी जीने को तरसेंगे।
इस दौर के ठहरे बादल न जाने कैसे बरसेंगे।
पपीहा क्या अब तो इंसा भी जीने को तरसेंगे।
भावार्थ...
एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Wednesday, April 30, 2008
पपीहा क्या अब तो इंसा भी जीने को तरसेंगे !!!
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