इस दौर के ठहरे बादल न जाने कैसे बरसेंगे।
पपीहा क्या अब तो इंसा भी जीने को तरसेंगे।
उजियाला दिन छोटा और काली रात बड़ी होगी।
डरी जिंदगी भी बेखौफ मौत के साथ खड़ी होगी।
हुनर के अरमान बीच बाज़ार बिकने को बिखरेंगे।
पपीहा क्या अब तो इंसा भी जीने को तरसेंगे।
खोखले लोग, सोच खोखली , खोखली बातें सारी।
दस्तूर दौर यही होगा रोएगी खोखल दुनिया सारी।
सच का बोझ उठाते उठाते रूह भी एक दिन रोदेगी।
ये झूट की शौहरत आने वाली पीड़ी का रुख मोडेगी।
उसूल के अश्क भी सावन भादो इस तरह से बरसेंगे।
पपीहा क्या अब तो इंसा भी जीने को तरसेंगे।
इस दौर के ठहरे बादल न जाने कैसे बरसेंगे।
पपीहा क्या अब तो इंसा भी जीने को तरसेंगे।
भावार्थ...
एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Wednesday, April 30, 2008
पपीहा क्या अब तो इंसा भी जीने को तरसेंगे !!!
Tuesday, April 29, 2008
और मेरा अक्स मौत की बाँहों में था......!!!
उसने बेवफा क्या कहा मुझसे।
में अपनी वाफाओ पे रोने लगा।
तान्हे आ आ कर चुभने लगे।
मेरा मिजाज ख़ुद बिगड़ने लगा।
उसकी नजरो में जो देखा मैंने।
अपने आप को संभल न पाया।
लोगो को क्या समझाऊं।
क्यों में मरासिम बना न पाया।
मजबूरियां जहर उगलने लगी।
मेरी साँसे भी फिर उखड़ने लगी।
में उसे ज्यों ही भूलने लगा।
उसकी यादो का दर्द बढ़ने लगा।
मैंने उसके चेहरे से ज्यों रुख मोडा।
मेरा वजूद ने मेरा साथ छोडा।
उसका अक्स मेरी आंखो में था।
और मेरा अक्स मौत की बाँहों में था...
भावार्थ...
Wednesday, April 23, 2008
मैंने जिंदगी का नक्शा देखा तो घबरा गया !!!
मैंने जिंदगी का नक्शा देखा तो घबरा गया।
में खुले आसमान का इतनी आदी हो गया।
कब्र का ख्याल जो आया तो में घबरा गया।
में अजनबियों से मिलता रहा गले सफर में।
अपनों की वफ़ा याद आई तो में घबरा गया।
रिश्तो के समुंदर में उतर तो गया कुछ सोच कर।
कसक का भवर जो याद आया तो में घबरा गया।
में जवानी के जोश में हमसफर छोड़ आया रास्ते पे।
तनहा बुढापा खड़ा नज़र आया तो में घबरा गया।
भावार्थ...
Tuesday, April 22, 2008
जब मैं !!!!
उन पीले किनारों पे लाल काई बिचा कर।
पानी हरा सा और पत्थर गुलाबी बनाऊँगा।
फिर उसकी तह मैं नीले कंकड़ बिछाऊँगा।
में जब अपने ख्वाबो का समंदर बनाऊँगा....
काले कमल की हरी पत्तियों पे ओस हटाकर।
उनमें नारंगी गुलाब की कतार लगाऊँगा।
बीच मैं नीला गेंदा और हरा गुद्हल बिछाऊँगा।
में जब अपने सपनो का गुलज़ार सजाऊँगा।
पूरे आसमान को एक जैसा सतरंगी बनाकर।
इन तैरते बादलों को लाल पीला बनाऊँगा।
उसपे हाथ से बैंगनी इन्द्रधनुष सजाऊँगा।
में जब मैं अपने अरमानों का समां जगमगऊंगा।
मैं अपना समंदर बनाऊँगा....
मैं अपना गुलज़ार सजाऊँगा....
मैं अपना समां जगमगऊंगा...
पर तब...
जब मैं अपनी आखों मैं रौशनी पाऊँगा !!!
भावार्थ....
Sunday, April 20, 2008
में आज एक खुश इंसान को ढूढने निकला।
में आज एक खुश इंसान को ढूढने निकला।
पर चमकती दुनिया का सच बड़ा कड़वा निकला।
घर से निकला तो रिक्शे वाला टकरा गया।
मैंने अपना अलाप उसी से शुरू किया।
क्यों भयिया आप बड़े खुश हो।
अपनी धूम में तुम तो जैसे गम हो।
बोला भाई, उधार का रिक्शा है, उधार की खुशी।
दो जून की रोटी भी नहीं मिलती किस बात की खुशी।
उसको ५ रूपये मैंने धीमे से थमाए।
खुश इंसान को ढूढने को मैंने कदम बढाये।
ये सूट बूट में टाई लगाये साहब बड़े खुश हैं।
मैंने अपना परिचय उनको करव्या।
अपनी शोद का उनमान मैंने उनको बताया।
वो बोला ये सूट-बूट तो दिखावा है।
सालो से मैंने गुलामी का जीवन बिताया है।
कहने को में बड़ी कम्पनी में कार्यरत हूँ।
पर चोटी सी खशी के लिए में सालो से प्रयासरत हूँ।
में निराश होकर इन डाक्टर से जा मिला।
उनके गौर-वर्ण पर खुशी ढूढने निकला।
आप बड़े खुश है डाक्टर साहिब सेवा से।
आपको तो पुण्य इतना मिलगा समाज सेवा से।
डाक्टर झल्लाया बोला १६ घंटे काम करता हूँ।
उसके बाद भी लोगो का उगला गुसा सहता हूँ।
जब अपनों के लिए समय न हो तो क्या जीना।
खुशी तो दूर की बात है सुकून का मिल जाए जीना।
में आज एक खुश इंसान को ढूढने निकला।
पर चमकती दुनिया का सच बड़ा कड़वा निकला।
भावार्थ...
Saturday, April 19, 2008
तेरा इश्क भी है एक बहरूपिया 'जाना' !!!
कभी जिदगी तो कभी मौत सा 'जाना'।
तू तो चली जाती है रूठ कर मुझसे।
तेरा हिज्र कर देता है कत्ले-आम 'जाना'।
तू है तो हर रिश्ता अपन सा लगता है।
वरना इस शहर में मैं तो हूँ काफिर 'जाना'।
हमसफ़र तुझसे हर मंजर मंजिल सा है।
वरना हर मंजिल मेरेलिए एक सफर 'जाना'।
तेरे प्यार का एहसास इतना खूबसूरत है।
मजार में भी लगता है जैसे में अमर 'जाना'।
तेरा इश्क भी है एक बहरूपिया 'जाना'।
कभी जिदगी तो कभी मौत सा 'जाना'।
भावार्थ...
Friday, April 18, 2008
तू ही बता कि में तुझको भुलाऊँ कैसे !!!
तेरी यादों के जेवर में बता उतारू कैसे।
तू ही बता कि में तुझको भुलाऊँ कैसे।
सिन्दूर तो भर दिया मांग में उसने पर।
केशु में छुपी तेरी खुशबू बिखेरूं कैसे।
लाली तो लिपट गई इन लबो पे उसकी।
पर तेरे लबो का ये एहसास मिटाऊँ कैसे।
ख्वाब सजने लगे है उसके इन आंखो में।
तेरी सूरत जो बसी है उसको हटाऊं कैसे।
मेरा बाँहों में वो भर भर के आता तो है।
पर अपने आगोश से तेरी रूह निकालूँ कैसे।
मेरे जिस्म के करीब तो वो आ गया लेकिन।
तू बता तुझे साँसों के भीतर से हटाऊं कैसे।
मैंने उसको अपना सब कुछ सौप दिया लेकिन।
अपने भीतर पल रहा तेरा अंश मिटाऊँ कैसे।
भावार्थ....
Thursday, April 17, 2008
में अपने ख्वाब से बिछड़ा नज़र नही आता।
और तू इस सदी में अकेला नज़र नही आता।
अजीब दबाव है इन बाहरी हवाओं का॥
घरों का बोझ भी उठता नज़र नही आता।
में एक सदा पे हमेशा को घर छोड आया था।
मगर पुकारने वाला ख़ुद नज़र नही आता।
तेरी राह से हटाने को हट गया लेकिन ।
मुझे कोई भी रास्ता नज़र नही आता।
धुआं भरा है यहाँ सभी की आन्खो में ।
किसी को घर मेरा जलता नज़र नही आता।
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में चाहता भी यही था वो बेवफा निकले।
उसे समझाने का कोई तो सिलसिला निकले।
किताब-ऐ-माजी के औराक उलट के देख ज़रा।
न जाने कौन सा सफाह मुड़ा हुआ निकले।
जो देखने में बहुत ही क़रीब लगता है।
उसी के बारे में सोचो तो फासला निकले।
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वसीम बरेलवी...
अपने हर हर लफ्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊगा।
उस को छोटा कह मैं कैसे बडा हो जाऊगा।
तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नही।
मैं गिरा तो मसला बन कर खडा हो जाऊगा।
मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफर।
रास्ता रोका गया तो काफिला हो जाऊगा।
सारी दुनिया की नज़र में है मेरा अहद-ऐ-वफ़ा।
एक तेरे कहने से क्या मैं बेवफा हो जाऊगा।
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लहू न हो तो कलाम तरजुमा नही होता
हमारे दौर में आनसू ज़ुबा नही होता
जहा रहेगा वही रौशनी लुतायेगा ।
किसी चराग का अपना मकान नही होता
ये किस मकाम पे लाई है मेरी तन्हाई ।
कि मुझ से आज कोई बादगुमा नही होता।
में उस को भूल गया हू ये कौन मानेगा ।
किसी चराग के बस में धुआ नही होता ।
'वासिम' सदियों की आन्खो से देखिये मुझको।
वो लफ्ज़ हूँ जो कभी दासता नही होता।
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वसीम बरेलवी...
आते आते मेरा नाम सा रह गया ।
उस के होन्ठो पे कुछ कान्पता रह गया।
मेरे सामने ही गया और में उसे ।
रास्ते की तरह बस देखता रह गया।
झूठ वाले कही से कही बढ़ गए ।
और मैं था की सच बोलता रह गया।
आंधियो के इरादे तो अच्छे न थे।
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया।
वसीम बरेलवी....
Monday, April 14, 2008
लोरी...आओ रे सपनो आ जाओ।
आओ रे सपनो आ जाओ।
मेरी रानी को भी सुला जाओ।
गुड्डा गुद्दिया की शादी होगी ।
थोड़ा सोना होगा थोडी चांदी होगी।
आओ रे सपनो आ जाओ।
मेरी सलोनी को तुम सजा जाओ।
आओ रे सपनो आ जाओ......
नन्हें नन्हें तारे लाना हाथ में।
गुडिया को खिलाना साथ में।
आओ रे सपनो आ जाओ।
चंदा को झूले में तुम झुला जाओ।
आओ रे सपनो आ जाओ.....
लुका-छुपी भी खेलेगी ये ।
पासम पासम भी खेलेगी ये।
आओ रे सपनो आ जाओ।
गुडिया रानी को तुम खिला जाओ।
आओ रे सपनो आ जाओ.....
ये धीमे धीमे जो हवा चले है।
साथ में इसके ये फिजा चले है।
आखों में निंदिया बहा जाओ।
मेरी बुलबुल को तुम सुला जाओ।
आओ रे सपनो आ जाओ.....
आओ रे सपनो आ जाओ।
मेरी बिटिया को तुम सुला जाओ।
आओ रे सपनो आ जाओ।
मेरी रानी को तुम सुला जाओ।
आओ रे सपनो आ जाओ।
मेरी रानी को भी सुला जाओ।
भावार्थ...
लोरी सुने हुए आज कितने साल हो गए !!!
माँ याद आई तो अश्क मेरे सैलाब हो गए।
गिनता रहा उन तारो को उस शब-ऐ-रोज।
माँ की याद में सब के सब हिलाल हो गए।
हर बात उसकी मेरे चेहरे पे खुशी भर देती थी।
सिर्फ़ रो सकता हूँ ये न जाने कैसे मेरे हाल हो गए।
काश वो माँ का आँचल मिल जाए कुछ रोज।
जिंदगी की धुप में हम तो बदहाल हो गए।
कभी पगली, कभी मासूम सी थी मेरी माँ।
असली चेहरा देखे किसीका कितने साल हो गए।
उसका साया जैसे ख्वाबो की कायनात थी मेरी।
वरना कुछ सपने सजोने में हम निहाल हो गए।
भावार्थ...
Saturday, April 12, 2008
दुनिया की तकदीर की लकीर !!!
इस भीड़ की तासीर अजीब सी है।
हर कोई अपनी तन्हाई में खुश है।
जैसे प्यार खुश्क हो गया हो।
रिश्तो में जैसे दीमक लग गया हो।
वादों को किसी ने तोडा नहीं कत्ल किया है।
वफ़ा ने प्यार को छोड़ वासना को थमा है ।
अबे सुनाई नहीं देता। अबे दिखाई नहीं देता.....
हर कोई भीड़ में इक दूसरे को बोलता दिखता है।
चीख इतनी हैं कि हर इन्सान बहरा हो जाए।
नामुमकिन हैं कोई किसी पे मेहरबा हो जाए।
दोस्ती फीकी पड़ती नज़र आ रही है...
'जैसे को तैसा' कि सोच इसको भीतर से खा रही है।
हर किसी को दूसरे से उम्मीद है पर।
ख़ुद किसी उम्मीद को छूना नहीं चाहते।
जब मन करे दोस्ती कि दुहाई दे दो।
दोस्ती के लिए कुछ पल देना नहीं चाहते।
काया का काया पलट हो चुका है...
आलस ने मन में अधिकार कर लिया है।
ये पुरी भीड़ के भीड़ बीमार है।
तन्हाई को सबने ही स्वीकार कर लिया है।
दुनिया की तकदीर की लकीर।
न जाने किस तरफ़ मुड़ रही है...
भावार्थ॥
Friday, April 11, 2008
फकीरी भी क्या वाकया है !!!
न गर्मी, न सर्दी, न बारिश।
बस एक संजीदा सा एहसास साँसों का।
हर तरफ़ शोर मगर मैंने तन्हाई ओढ़ी है।
हर तरफ़ ग़मगीन चेहरे पर मैंने खुशी ओढ़ी है।
लोगो में कोई कमी नहीं नज़र आती।
हर शक्ल में नूर जैसे जगमगाया हो।
हर तरफ़ मेरे दुनिया सोती है।
मेरी हर परवाज ख्वाबो की होती है।
मेरी हर चाहत छोटी, और खुशी बड़ी है।
जो मुझे चाहिए हर जर्रे में बसी है।
लोगो की रफ्तार पे हसी आती है।
न जाने क्यों जिंदगी बुढापा चाहती है।
घड़ी की टिक टिक सबको डरती है।
मेरे आगोश में रूह की दस्तक आती है।
कुछ पाने का ख्वाब मुझे गुदगुदाता है।
मैं खो जाना चाहता हूँ जो भी मैंने पाया है।
लोग समेटने में लगे हैं और में बिखेरने में।
फकीरी भी क्या वाकया है !!!
Monday, April 7, 2008
अफ्वायें ...तेरे मेरे प्यार की अफ्वायें ...
अफ्वायें ...तेरे मेरे प्यार की अफ्वायें ...
किस घड़ी तेरे सुरूर छा गया मेरी रूह पे।
न नज़र का यकीं हुआ न ऐतबार दिल पे।
अफ्वायें ...तेरे मेरे प्यार की अफ्वायें ...
अफ्वायें ...तेरे मेरे प्यार की अफ्वायें ...
लम्हा तन्हाई का जब मुझे रुलाने लगा था।
तेरा साया मेरे पास छुप के आने लगा था।
ना पता सासों को न खबर पहुँची आस्ता पे।
न नज़र का यकीं हुआ न ऐतबार दिल पे।
अफ्वायें ...तेरे मेरे प्यार की अफ्वायें ...
अफ्वायें ...तेरे मेरे प्यार की अफ्वायें ...
रास्ते तेरे नाम से मुझको बुलाने लगे थे।
मेरे काफिले तेरी तरफ़ मुडके जाने लगे थे।
तेरा इंतज़ार करने लगी ये नज़र साहिल पे।
न नज़र का यकीं हुआ न ऐतबार दिल पे।
अफ्वायें ...तेरे मेरे प्यार की अफ्वायें ...
अफ्वायें ...तेरे मेरे प्यार की अफ्वायें ...
खामोशियाँ गुम होने लगी मेरे आगोश से ।
रुस्वायें रूठ कर जाने लगी मेरे आगोश से।
तस्वीर बनने लगी फ़िर तेरी मेरे दिल पे।
न नज़र का यकीं हुआ न ऐतबार दिल पे।
अफ्वायें ...तेरे मेरे प्यार की अफ्वायें ...
अफ्वायें ...तेरे मेरे प्यार की अफ्वायें ...
Sunday, April 6, 2008
इस दौर का आदमी !!!
चुन चुन के कांटे ख़ुद छिल चुका है इस दौर का आदमी।
यू तो अपने ख्वाबो का सैलाब लिए फिरता है सीने में ।
बुन बुन के उनमें ख़ुद घुट चुका है इस दौर का आदमी।
उसूल फूक के उसने अपनी रूह की चिता जलाई है फ़िर।
जल जल के उन्ही में मिट चुका है इस दौर का आदमी।
ये वासना का बहाव जो उसको भवर में लिए जा रहा है।
घुल घुल के उसी में ख़ुद घुल चुका है इस दौर का आदमी।
इसका असली चेहरा पहचानना मुश्किल है बड़ा रिश्तो में।
रख रख के नकाब बेचेहरा हो चुका है इस दौर का आदमी।
भावार्थ...
Thursday, April 3, 2008
हर बार गठरी खोलता हूँ !!!- त्रिवेणी
में नाम लिखता रहा और वो उसको मिटाता रहा।
वो और में अपनी अपनी-२ आदत पे कायम रहे।
में और ये समुंदर दोनों ही गम से भरे हैं.....
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ये हवा जो आती है और चली जाती है खिड़कियों से ।
इसके ठहरने की उम्मीद भी नहीं रखता में यू तो।
में खफा हूँ ये मेरे सनम सी बनती जा रही है .....
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वो मेरा नाम लिख रुमाल, वो ऊन का हाथ से बना स्वेटर।
वो कुछ लिखे ख़त, वो चूड़ी का जोडा और वही तेरी शौल।
हर बार गठरी खोलता हूँ, रोता हूँ और फिर बंद कर देता हूँ।
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भावार्थ...
Wednesday, April 2, 2008
और ये तेरी जुदाई....!!!
वही रास्ते, वही सबा,वही मंजर।
वही साँसे , वही रूह, वही नज़र।
और ये तेरी जुदाई ....
वही गुल, वही वस्ल, वही सेहरा।
वही केशु, वही अक्स, वही चेहरा।
और ये तेरी जुदाई ....
वही हसी, वही खुशी, वही बातें।
वही चाँद, वही जिया, वही राते।
और ये तेरी जुदाई ....
वही बाम, वही सीना, वही शाम।
वही रंज, वही कसक, वही जाम।
और ये तेरी जुदाई ....
भावार्थ...
Tuesday, April 1, 2008
जिंदगी ऐसी सूरत भी दिखायेगी सोचा न था !!!
जिंदगी ऐसी सूरत भी दिखायेगी सोचा न था।
हर धागा खुशी का यू उल्झायेगी सोचा न था।
युही घंटो गुजर जाते है भीड़ में चलते चलते।
अपनों से कुछ पल न मिल पायेंगे सोचा न था।
अब खुशियों को बाज़ार में ढूढ़ता फिरता हूँ में।
घर की खुशियाँ इस तरह बिखर जायेंगी सोच न था।
कौन सा जश्न मना रहा हूँ में हर रोज पता नहीं मुझे।
त्यौहार घर के सभी वीराने हो जायेंगे सोचा न था।
कौन सी ख्वाइश है ये जो पुरी नहीं होती सालो से।
माँ की आँखे जुदाई से भीग जायेगी यू सोचा न था।
न जाने खुदा क्या है न पता है भगवान् का जिंदगी में।
आस्था की बाती इस कदर बुझ जायेगी सोचा न था।
मस्ती के दौर जो चलते है अजनबियों के साए में।
दोस्तो के कह-कहे बिछुड़ जायेंगे कभी सोचा न था।
कुछ कर गुज़रने की तमन्ना भी ये अजीब सी निकली।
तन्हाई इस कदर भर जायेगी जिंदगी में सोचा न था।
भावार्थ...
जाने वाले तू अपनी याद भी लेकर जा !!!
तेरे प्यार का बाकी हर एक निशाँ लेकर जा।
छोड़ दे मुझे तन्हाई के कोहरे में अब तो।
जिंदगी में छायी मेरी हर बहार लेकर जा।
तुझे बेवफा का नाम कोई नहीं देगा यहाँ।
तू अपनी वफाओ का हर पयाम ले कर जा।
किस्मत की कहानी मान कर जी लूंगा मैं तो।
मेरी जिंदगी से बस अपना उनमान लेकर जा ।
कैसे दिलाऊँ यकीं तुझे कि मैं मर चुका हूँ अबतो।
दिल में धसा हुआ अपना निश्तार ले कर जा।
निश्तार :खंजर, उनमान : शीर्षक
भावार्थ...