बेसुध होके आज बांसुरी बजी कि होठ खून से रच गए ...
अंधेरे की परछाई ओढे रात जागी कि तारे सारे बिछ गए...
सुर छुपे थे जो कहीं लकड़ी की नसों में वो सब उगल दिए...
उँगलियों ने फ़िर वही घाव सारे छु के आज छिल दिए ...
तड़प थी उम्र भर कि जो बांसुरी में साँस बन के भर गई ...
आँख रोई आंसू बिन और दिल कि आह रक्त नीला कर गई...
जिंदगी गर बेपनाह जो है तो बस मौत के आगोश में है...
जो जिन्दा है पर है मरा हुआ वही असल एक होश में है...
कृष्ण न तो तू रहा न रास रहे न ही द्वापर कि वो लीला रही...
सालो तक बांसुरी बजी और तन्हाई उसके वजूद से लिपटी रही...
भावार्थ...
अंधेरे की परछाई ओढे रात जागी कि तारे सारे बिछ गए...
सुर छुपे थे जो कहीं लकड़ी की नसों में वो सब उगल दिए...
उँगलियों ने फ़िर वही घाव सारे छु के आज छिल दिए ...
तड़प थी उम्र भर कि जो बांसुरी में साँस बन के भर गई ...
आँख रोई आंसू बिन और दिल कि आह रक्त नीला कर गई...
जिंदगी गर बेपनाह जो है तो बस मौत के आगोश में है...
जो जिन्दा है पर है मरा हुआ वही असल एक होश में है...
कृष्ण न तो तू रहा न रास रहे न ही द्वापर कि वो लीला रही...
सालो तक बांसुरी बजी और तन्हाई उसके वजूद से लिपटी रही...
भावार्थ...
1 comment:
Bhai teri kavitaon ko padh ke lagta hain hum iss duniyan main karne kya aaye hain.....
Yahan bhavarth he nahin samjh aata aur tu itni badi kavita likh deta hain....
Bhai this is what we call as multi facet personality...a perfectionist....a scholar....
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