Friday, April 24, 2009

कल !!!

आज बदल जायेगा...
गया कल मिट जायेगा...
आने वाला कल सुहाना है...
...
भावार्थ


Thursday, April 23, 2009

है बस_की हर इक उनके इशारे में निशाँ और
करते हैं मोहब्बत तो गुज़रता है गुमान और

या_रब!, न वोः समझें हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको, जो न दे मुझको जुबां और

अबरू से है क्या उस निगेह-ऐ-नाज़ को, पैवंद?
है तीर मोक़र्रार, मगर उसकी है कमान और

तुम शेहर में हो तो हमें क्या ग़म जब उठेंगे
ले आयेंगे बाज़ार से जा_कर, दिल_ओ_जान और

हर_चाँद सुबुक_दस्त हुए बुत_शिकनी में
हम हैं तो अभी राह में हैं संग-ऐ-गिरां और

है खून-ऐ-जिगर जोश में दिल खोल के रोता
होते जो कई दीदा-ऐ-खून या न निशाँ और

मरता हूँ उस आवाज़ पे हर_चाँद सर आर जाए
जल्लाद को लेकिन वोः कहे जाएँ की "हाँ और!"

लोगोंको है खुर्शीद-ऐ-जहाँ_ताब का धोका
हर रोज़ दिखाता हूँ मैं इक दाग़-ऐ-निहां और

हैं और_भी दुनिया में सुखन_वर बहोत अच्छे
कहते हैं की "ग़लिब" का है अंदाज़-ऐ-बयान

...मिर्जा गालिब

हाट !!!

लोग चींटियों की तरह जमा थे वहां...
कोई कब किससे टकरा जाए कुछ पता नहीं...
जहाँ पाव रखने की जगह न थी...
वहां लोग रफ़्तार में नज़र आ रहे थे...
धरती में सब्जियों के ढेर लगे थे...
और हर ढेर पे ढेर सारे लोग खड़े थे...
कोई हाथ बढ़ा रहा था तो कोई पैसे ही...
कोई सब्जी की टोकरी तो कोई ऐसे ही...
गोल गोल कतार लगी थी हर तरफ़....
एक बात कोई कहे तो पता ही नहीं चलता था...
हर बात को ऊँची आवाज़ में कई बार बोलो...
तब कहीं जा कर कुछ बात बनती...
गैस के लैंप जल जल को उजाला कर रहे थे...
दूकान दार पसीने में लथ-पथ तोलने में लगा था...
कोई कोई तो उसके इमां पे शक कर बैठते...
उससे फ़िर से तोलने की जिद कर बैठते...
खरीदने और बेचने का दौर जारी रहा...
आज फ़िर हाट लगी कुबेरपुर में...

भावार्थ...

Sunday, April 19, 2009

काश !!!

काश !!!

लबो से न सही आँखों से ही सही...
कोई बात जो उसने कभी कही होती...

साथ चलते रहने की जिद जो कभी...
उसके दिल में भी अगर रही होती...

मेरे चेहरे को पढने को कोशिश अगर...
उसने भीगी रातो को जो कभी की होती...

लकीरों में बुझते मेरे मुकद्दर की आह....
अपने हाथ में लेकर उसने कभी सही होती....

पलक तक आकर नींद रुक जाती थी....
उँगलियाँ मेरे सर पे उसकी कभी रही होती...

समंदर की आस थी मुझे उसके साए से...
मेरी प्यास उसने कभी महसूस की होती...

तो मैंने फ़िर यु जहर खाया न होता...
मौत को यु गले लगाया न होता...
तन्हाई से यु पीछा छुडाया न होता...

भावार्थ...

Saturday, April 18, 2009

खुदाई !!!

एक चाहत मिली और कई चाहते टूट गई...
एक अरमा मिला और कई खायिशे छूट गई....

सपने बंद आँखों का हमको तोहफा भर ही थे...
दर्द से दूर थे और बस तभी ये नींद टूट गई...

तमन्नाओ को जेहेन में हम अपने पिरोते गए...
जुड़ने वाली थी कड़ी और आखरी गाँठ छूट गई...

जन्नत खुदा ने बख्शी तो तेरे लम्हों जितनी थी...
तू तो नाराज़ थी मगर अब तेरी याद भी रूठ गई...

भावार्थ...

Thursday, April 16, 2009

आज फ़िर कोई बात चले...

आज फ़िर कोई बात चले...

चौखट से उठ कर में अपनी जाऊं...
भरी दुपहरी को ठेंगा दिखाऊँ...
उनकी सुनूँ कुछ अपनी सुनाऊं...

आज फ़िर कोई बात चले...

चाय के प्याले फ़िर उठने लगें...
कह-कहे हवा में फ़िर घुलने लगे...
बंद दिलो के दरवाज़े भी खुलने लगे...

आज फ़िर कोई बात चले...

चिदी, पान, हुकुम,ईंट हो हाथ में...
बेगम,बाद्शाहम गुलाम हो साथ में...
दहला पकड़, रमी की बाजियां हो रात में...

आज फ़िर कोई बात चले...

भावार्थ...

Tuesday, April 14, 2009

नफरत !!!

पान की पीक की तरह ...
लोग गुस्से को क्यों थूक नहीं देते...
पाल लेते हैं उसको सीने में ...
महबूबा की तरह...
फ़िर उनको उसकी लत लग जाती है...
और उनकी नफरत जब कभी...
सहन नहीं होती उगल पड़ती है...
कभी हिंदू पे तो कभी मुसलमा पे...



भावार्थ ...

Monday, April 13, 2009

फज़ल !!!

उसने दो पुराने गीत जब दिल से गाये थे ...
तब कहीं जाके कुछ सिक्के आए थे...

आंख होती तो शायद शक्ल दिख जाती...
सपने उसने जो अंधेरे में सजाये थे...

मुस्कुरा पड़ता है लोगो की बात सुन कर...
भिखारी के आगे उसने हाथ बढाये थे....

कोसता था खुदा को वो उसका बचपन था...
फज़ल है हाथ पाव उसने साजे बनाये थे...

रात उसकी सन्नाटे से और दिन शोर से है...
दो कान उसने ऐसे आँख जैसे बनाये थे...

रेल की पटरियां तय करता चला गया ...
उसके कदमो ने मंजिल के रास्ते पाये थे...

भावार्थ...

आरोप !!!

खून में जब तलब बस जाती है न ...
दिमाग पर इंसा के काबू नहीं रहता...
नसों में बस ये जूनून बहता है ...
इंसान फ़िर वो इंसान नहीं रहता...
पिघला हुआ कांच जब लबो को छूता है...
जिंदगी को होश-ओ-हवास नहीं रहता....

तुम पूछती हो कैसा हूँ...

मौत का सफर एक लम्हे का होता है...
आदमी जिंदगी भर डरता है उससे...
खौफनाक कुछ है तो ये तन्हाई है ...
जिन्दा हो कर भी मुर्दा सा है उससे...


कहाँ ले आई जिंदगी मुझे...

इतनी कसक है इसको मेरे वजूद से...
सूखे दरिया में डुबाने का ख़याल रखती है....
बिखर जाने का मेरे इसको कहाँ गम...
ख़ुद से जुदा करने का ख्याल रखती है....

होश में नहीं रहता में आज कल ...
बेहोश दुनिया नशे में कहती है...

खून में जब तलब बस जाती है न ...


भावार्थ...

Saturday, April 11, 2009

युगल !!!

तन्हाई में आँख मींचे ...
एक दूजे को पास खींचे ...
जेहेन के बादलो में....
तैरते तैरते हम दोनों...
कई बार गुनगुनाये हैं....
मौज के हर्फ़,गम के लफ्ज़...
हथेली पे फूंक से उडाये हैं...
तर्ज़ की मद्धम आंच पर ...
ग़ज़ल के धुएँ उठाये हैं....
सोच की झीनी सी छत पे ...
ओस के सामियाने बिछाये हैं..
मैं और मेरे गीत अक्सर युही ....
तन्हाई में आँख मींचे...
एक दूजे को पास खींचे...
बहते रहते हैं...

भावर्थ

Monday, April 6, 2009

मुझको बचाओ माँ ...

मुझको बचाओ माँ, मुझको बचाओ माँ...
जिंदगी की धुप मुझे भी दिखाओ माँ...
तेजधार वाली कैंची क्यों है बढ़ रही...
घुटन मेरी साँसों में क्यों है चढ़ रही ...
नन्ही परी को अपने आगोश में छुपाओ माँ ...
मुझको बचाओ माँ, मुझको बचाओ माँ...

एक तेरे सिवा सबसे यहाँ अनजानी हूँ में ...
तू ही कहती थी मोहब्बत की निशानी हूँ में...
अपनेपन का साया मुझपे लाओ माँ...
मुझको बचाओ माँ, मुझको बचाओ माँ...

क्यों है दुश्मन मेरे अभी से अजनबी...
रिश्तो के जाल में भी न फसी हूँ अभी...
इस कलियुग की परछाई हटाओ माँ...
मुझको बचाओ माँ,मुझको बचाओ माँ...

मुझको बचाओ माँ, मुझको बचाओ माँ...
जिंदगी की धुप मुझे भी दिखाओ माँ...

मुझको बचाओ माँ ...

भावार्थ...

Sunday, April 5, 2009

मुसाफिर !!!

रात के मुसाफिर को जिंदणी सजा सी लगे...
अंधेरे को साँस भर पी पी जाना ...
काले शामियाने में जी जी जाना...
घटाओ में लिपटी हवा बैरी खिजा सी लगे...
रात के मुसाफिर को जिंदणी सजा सी लगे...

रात के मुसाफिर को...

खटकती है कदमो की आहट भी दिल में...
सुलगती है बढ़ने की चाहत भी दिल में...
बिखरा पड़ा वजूद भी खुदा की रजा सी लगे...
रात के मुसाफिर को जिंदणी सजा सी लगे...

रात के मुसाफिर को ...

काटते हैं जुगनुओ के ये दंश बार बार...
चीरती है फूँस की गीली शीत बार बार...
मील के पत्थरों की दूरी बुरी फिजा सी लगे...
रात के मुसाफिर को जिंदणी सजा सी लगे...

रात के मुसाफिर को जिंदणी सजा सी लगे...

भावार्थ...

Saturday, April 4, 2009

उठो !!!

सर पे है दिन, धुप चिल्मिला रही ,रात अभी तू सो रही...
जुल्म है बुलंद, हम हुए अपंग, आवाज़ अभी है खो रही...

बुझे हो तुम, गिरे हो तुम , तुम धड हो सर कटे हुए...
उखड़े हो तुम, उजडे हो तुम, इंसान हो तुम बस लुटे हुए...

सारे तंत्र हुए ध्वस्त, संसद हुआ है पस्त, नाट्य-तंत्र है बचा...
चूहा भी कुतर चुका,गीदड़ भी गुज़र चुका, कुक्कुर-मन्त्र है बचा...

होली है तो, तू रंग छोड़ ,तू अब क्रान्ति की राख मल...
गलियाँ छोड़, रंग रलियाँ छोड़ तू अब आवाम के साथ चल...

भावार्थ

Friday, April 3, 2009

बांसुरी !!!

बेसुध होके आज बांसुरी बजी कि होठ खून से रच गए ...
अंधेरे की परछाई ओढे रात जागी कि तारे सारे बिछ गए...

सुर छुपे थे जो कहीं लकड़ी की नसों में वो सब उगल दिए...
उँगलियों ने फ़िर वही घाव सारे छु के आज छिल दिए ...

तड़प थी उम्र भर कि जो बांसुरी में साँस बन के भर गई ...
आँख रोई आंसू बिन और दिल कि आह रक्त नीला कर गई...

जिंदगी गर बेपनाह जो है तो बस मौत के आगोश में है...
जो जिन्दा है पर है मरा हुआ वही असल एक होश में है...

कृष्ण न तो तू रहा न रास रहे न ही द्वापर कि वो लीला रही...
सालो तक बांसुरी बजी और तन्हाई उसके वजूद से लिपटी रही...

भावार्थ...