हर एक बात पे कहते हो तुम तू क्या है।
तुमही कहो कि ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है।
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा।
कुरदेते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है
न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा।
कोई बताओ कि वो शोख-ऐ-तुम्दुखू क्या है।
रगों में दौड़ते फिरते के हम नहीं कायल।
जब आंख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है।
रही न ताकत-ऐ-गुफ्तार और अगर हो भी।
तो किस उम्मीद पे कहिये की आरजू क्या है।
हुआ है शाह का मुसाहिब फिरे है एक रात।
वरना शहर में गालिब की आबरू क्या है।
हर एक बात पे कहते हो तुम तू क्या है।
तुमही कहो कि ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है।
मिर्जा गालिब...
1 comment:
Badhiya gazal padhane ka abhar
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