मुझे इंसान के सांचे से निकाल ऐ खुदा।
दम मेरा इसमें अब रोज घुटने लगा है।
झूट का दीमक और लालच की सीलन।
जलन और इंतेशार इसमें बसने लगा है।
मुझे इंसान के सांचे से निकाल ऐ खुदा।
दम मेरा इसमें अब रोज घुटने लगा है।
यह सांचा जो किसी को इबादतों से मिला।
कितने पूजन और कितनी नमाजो से मिला।
जिसको ममता ने पाला तो प्यार ने नवाजा।
फीका सा कौन सा रंग इसपे चढ़ने लगा है।
मुझे इंसान के सांचे से निकाल ऐ खुदा।
दम मेरा इसमें अब रोज घुटने लगा है।
धूल इसके हर जर्रे में भीतर तक बस गई।
इसकी सीरत हैवानियत सी बन गयी।
इसका हर एक पुर्जा रिस रिस के गिरा।
दौर का माहौल इसको अब निगलने लगा है।
मुझे इंसान के सांचे से निकाल ऐ खुदा।
दम मेरा इसमें अब रोज घुटने लगा है।
में जिन्दा हूँ और रहूँगा इसके गिरने के बाद।
रूह की पहचान रहेगी इसके बिखरने के बाद।
में क्यों रोज मरू इस पहनावे से तू ही बता।
इसका मंजर तो ख़ुद रोज बदलने लगा है।
मुझे इंसान के सांचे से निकाल ऐ खुदा।
दम मेरा इसमें अब रोज घुटने लगा है।
तू निकाल सके तो निकाल वरना कोई बात नहीं।
वरना मुझको अक्ल की तलवार तुने दी ही है।
कौन करेगा नरक और स्वर्ग का फ़ैसला।
मेरा ख़ुद को ख़ुद से जुदा करने का हौसला बढ़ने लगा है।
मुझे इंसान के सांचे से निकाल ऐ खुदा।
दम मेरा इसमें अब रोज घुटने लगा है।
भावार्थ...
3 comments:
BAHUT SACHCHI KAWITA.
में जिन्दा हूँ और रहूँगा इसके गिरने के बाद।
रूह की पहचान रहेगी इसके बिखरने के बाद।
में क्यों रोज मरू इस पहनावे से तू ही बता।
इसका मंजर तो ख़ुद रोज बदलने लगा है
these lines are so beautiful!
Thanks a lot Asha Ji...n Vinay ji...
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