ताज महल से लगा एक छोटा सा मजार।
शायद किसी गुमनाम कैस का है प्यार।
जिसको संगमरमर की चांदनी न मिली।
न शाहजहाँ की मोहब्बत सी उम्र मिली।
पर आज भी सुर्ख लाल पत्थर के सामने।
संगमरमरी ताज भी फीका सा लगता है।
मोहब्बत इस कदर है उसके इर्द गिर्द की।
ताज बस एक वीरान ईमारत सा लगता है।
पास मैं खड़ा जैसे वो ताज से कह रहा हो।
जहाँ हुनर के हाथ कटे हो वहां मोहब्बत रह नहीं सकती।
जहाँ खून की बूँद गिरी हो कभी वहां इबादात हो नहीं सकती।
ताज में तो लोग बस ईमारत देखने आते हैं।
और यहाँ सब मोहब्बत का सुकून पाते हैं।
हर वीरबार को ये मजार दुल्हन सी सजती है।
दिल से उठी मोहब्बत की नमाज सी पढ़ती है।
यहाँ लोग प्यार का रूहानी धागा बांधते हैं।
और अपनी मोहब्बत के लिए मन्नते मांगते हैं।
काश ताज का नाम मोहब्बत को जिए जाता।
मुमताज का नाम भी लैला सा लिया जाता।
पर अफ़सोस शहंशाह शाही ईमारत तो बना पाया।
पर उसके जर्रों में मोहब्बत खरीद के न भर पाया।
भावार्थ...
2 comments:
this is extreme.........
iam lacking in words to praise this masterpiece of poetry!!!
the beauty of taj has faded today in my eyes...
Thanks a lot....my friend
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