Monday, September 15, 2008

खून फिर खून है !!! साहिर लुधियानवी...

जुल्म फ़िर जुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है।
खून फिर खून है टपकेगा तो जम जाएगा।

ख़ाक-ऐ-सेहरा पे जामे या काफ-ऐ-कातिल पे जमे।
फर्क-ऐ-इन्साफ पे या पा-ऐ-सलासल पे जमे।
तेघ-ऐ-बेदाद पे या लाश-ऐ-बिस्मिल पे जमे।
खून फ़िर खून है टपकेगा तो जम जाएगा।

लाख बैठे कोई छुप कर के कहीं गाहों में।
खून ख़ुद देता है जल्लादों के मसकन के सुराग।
साजिशें लाख ओढ़ती रहें जुल्मत के नकाब।
ले के हर बूँद निकलती है हथेली पे चिराग।

जुल्म की किस्मत-ऐ-निकराह-ओ-रुसवा से कहो।
जब्र की हिकमत-ऐ-पुरकार के इमा से कहो।
मेह्मल-ऐ-मजलिस-ऐ-अक्वाम की लैला से कहो।
खून दीवाना है दामन से लपक सकता है।
शोला-ऐ-तुंद है खिर्मान पे लपक सकता है।

तुमने जिस खूम को मकतल में दबाना चाह।
आज वो कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है।
खून शोला कहीं नारह कहीं पत्थर बन के।
खून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से।
सर जो उठता है तो दबता नहीं आयिनो से।

जुल्म की बात है क्या जुल्म की औकात है क्या।
जुल्म बस जुल्म है आगाज़ से अंजाम तलक।
खून फिर खून है सौ शक्ल बदल सकता है।
ऐसी शकले जो मिटून तो मिटाए न बने।
ऐसे शोले जो बुझाऊँ तो बुझाये न बने।
ऐसे नारे जो दबाओं तो दबाये न बने।

साहिर लुधियानवी ...

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