एक बैचैनी सी है हर पल
न जाने क्यूँ
शायद हौंसला कम है
और खाब कुछ ज्यादा
या फिर इरादा ही
शायद उतना पुख्ता नहीं है
वरना इसकदर
बेकरारी न सुलगती
एक बैचैनी सी है हर पल
न जाने क्यूँ
न जाने क्यूँ
शायद हौंसला कम है
और खाब कुछ ज्यादा
या फिर इरादा ही
शायद उतना पुख्ता नहीं है
वरना इसकदर
बेकरारी न सुलगती
एक बैचैनी सी है हर पल
न जाने क्यूँ
शायद दिल का जना
जुबान कह नहीं पाती
या फिर आशिक़ी अभी
उस मकाम तक नहीं पहुंची
वरना तामीर-ए-इश्क़
हो ही जाती अपनी
एक बैचैनी सी है हर पल
न जाने क्यूँ
न जाने क्यूँ
अजनबी भीड़ में शायद
कोई अपना नहीं मिला
या फिर तन्हाई की धुंध में
कोई हमसफ़र नहीं दिखा
वरना इस हद तक
तीरगी कभी नहीं रही
एक बैचैनी सी है हर पल
न जाने क्यूँ
न जाने क्यूँ
भावार्थ
९/०८/२०१५
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