दर्पण देखा जब भी मैंने
इक परछाई सी पायी है
मेरे अक्स उजियारे की
कालिख सी सूरत पायी है
कल की गठरी है भारी
आगे बढ़ना है मुश्किल
खायिश तो एक चिंगारी है
इसकी है न कोई मंजिल
जिसने चाही ये मंजिल
उसने आग लगायी है
दर्पण देखा जब भी मैंने
इक परछाई सी पायी है
इक परछाई सी पायी है
मेरे अक्स उजियारे की
कालिख सी सूरत पायी है
कल की गठरी है भारी
आगे बढ़ना है मुश्किल
खायिश तो एक चिंगारी है
इसकी है न कोई मंजिल
जिसने चाही ये मंजिल
उसने आग लगायी है
दर्पण देखा जब भी मैंने
इक परछाई सी पायी है
जिंदगी है ये रोग कोढ़ का
हर दिन रिसता रहता है
मजबूर बड़ा लाचार है तू
दो पाटों में पिसता रहता है
जिसने ओढ़ा मौत का चोला
उसने ही जिंदड़ी पायी है
दर्पण देखा जब भी मैंने
इक परछाई सी पायी है
वक़्त का लट्टू चलता है
और लोग बजाते है ताली
भर भर के रखते हैं मटके
फिर जाते हैं हो कर खाली
खाली रहा जो हर पल में
उसने ही जन्नत पायी है
दर्पण देखा जब भी मैंने
इक परछाई सी पायी है
इक परछाई सी पायी है
वक़्त का लट्टू चलता है
और लोग बजाते है ताली
भर भर के रखते हैं मटके
फिर जाते हैं हो कर खाली
खाली रहा जो हर पल में
उसने ही जन्नत पायी है
दर्पण देखा जब भी मैंने
इक परछाई सी पायी है
मेरे अक्स उजियारे की
कालिख सी सूरत पायी है
कालिख सी सूरत पायी है
भावार्थ
२४/०८/२०१५
No comments:
Post a Comment