Monday, September 29, 2008

बोल हलके बोल हलके !!!...गुलज़ार

धागे तोड़ लाओ चांदनी से नूर के।।
घूंघट बना लो रौशनी से नूर के।
शर्मा गई तो आगोश में लो।
साँसों से उलझी रहीं मेरी साँसे।
बोल हलके बोल हलके।
होठ से मेरे हलके, बोल हलके।

आ नींद का सौदा करें।
एक खाब ले और एक खाब दे।
एक खाब तो आँखों में है।
एक चाँद के तकिये तले।
कितने दिनों से यह असमान सोया नही है।
चलो इसको सुला दे।
बोल हलके बोल हलके।
होठ से हलके बोल हलके।

उम्रें लगी
कहते हुए।
दो लफ्ज़ थे एक बात थी।
वो एक दिन सौ साल का।
सौ साल की वो एक रात थी।
कैसा लगे चुपके दोनों।
पल में सदियाँ बिता दे।
बोल हलकर बोल हलके।
होठ से हलके बोल हलके।

धागे तोड़ लाओ चांदनी से नूर के।।
घूंघट बना लो रौशनी से नूर के।
शर्मा गई तो आगोश में लो।
साँसों से उलझी रहीं मेरी साँसे।
बोल हलके बोल हलके।
होठ से मेरे हलके, बोल हलके।

गुलज़ार

Sunday, September 28, 2008

खामोशी के रास्ते !!!

खामोशी के रास्ते वो मेरे पास आती है।
जो रहूँ भीड़ में तो मुझे तन्हाई रुलाती है।

मंजिल भी बदल देखी लोगो के कहने पे।
क्या करुँ हर सू में वोह ही नज़र आती है।

खुशबू उसकी हवाओ में घुल के बहती है।
और एहसास की बारिश मुझको भिगाती है।

वो कोई खाब हो तो उसको भूल भी जाऊं।
पर साँस है वोह चाह केर भी रुक न पाती है।

जिस्म के भीतर रूह है और मेरी रूह है वोह।
मिट भी जाए जिस्म तो ये रूह मिट न पाती है।

खामोशी के रास्ते वो मेरे पास आती है।
जो रहूँ भीड़ में तो मुझे तन्हाई रुलाती है।

भावार्थ...

मौसम है आशिकाना !!!

मौसम है आशिकाना।
ऐ दिल कहीं से उनको।
ऐसे में ढूढ़ लाना।

कहना है की रुत जवा है
लेकिन हम तरस रहे हैं।
काली घटाओ के साए
विरहन को डस रहे हैं।
डर हैं न मार डाले
सावन का क्या ठिकाना।

सूरज कहीं भी जाए।
तुम पर न धुप आए।
तुमको पुँकारते हैं।
इन गेसुओं के साए।
आ जाओ में बना दूँ।
पलको का शामियाना।

मोसम है आशिकाना।
ऐ दिल कहीं से उनको ।
ऐसे में ढूढ़ लाना,

फिरते हैं हम अकेले।
बाहों में कोई लेले।,
आख़िर कोई कहाँ तक।
तन्हाई से खेले।
दिल हो गई हैं जालिम।
रातें हैं कातिलाना।


यह रात ये खामोशी।
यह खवाब से नज़ारे।
जुगनू है या जमीं पे।
या उतरे हुए हैं तारे।
बेखाब मेरी आँखें।
मदहोश है जमना।

मौसम है आशिकाना।
ऐ दिल कहीं से उनको ।
ऐसे में ढूढ़ लाना।

कैफ भोपाली...

Friday, September 26, 2008

सोच की स्याही !!!

कब से मेरी कोई भी ग़ज़ल खिलखिलाई न थी।
सोच की स्याही हर्फ़ बनके यू मुस्कुरायी न थी।

चन्द ख्वाब भी आए भी तो तैरते फलक बनकर।
उनमें से वो अरमानो की घटा बरस पायी न थी।

मेरे हर एक रिश्ते का तोहफा तो बस हिज्र था।
किसीको अपनाने की तमन्ना मचल पायी न थी।

जो तुम आए तो लगा जिंदगी मेहरबान हो गई ।
उस रोज मौत अपनी आंधी को रोक पायी न थी।

भावार्थ...

Sunday, September 21, 2008

ये अधूरापन भी एक अँधेरा है !!!

ये अधूरापन भी एक अँधेरा है।
जहाँ दूर तक न कोई सवेरा है।

बिखरी
पड़ी है रात दूर तलक।
जर्रे जर्रे में तन्हाई का कोहरा है।

बिलख पड़ते हैं ये बादल अब।
घटाओ का काजल शायद गहरा है।

खामोशी हवा में गुल सी गई है।
दूर तक तेरी यादो का सेहरा है।

भावार्थ...

Friday, September 19, 2008

पंचतत्व से नश्वर शरीर की उत्पत्ति !!!

गुरु के समक्ष रख दिया शिष्य ने एक प्रश्न।
पंचतत्व से हुआ कैसे ये शरीर उत्पन्न।

गुरु बोले, हवन से उत्पन्न हर तत्व जानो।
उसी हवन से हुआ शरीर उत्पन्न तुम मानो।

जो तत्व उस हवन से उत्पन्न होता जाता है।
वही अगले हवन की सामग्री बनता जाता है।

पाँच हवन का विदभत समावेश समझता हूँ।
उनसे फ़िर कैसे उत्पन्न हुई देह ये बतलता हूँ।

पहला हवन ऐसा जिसमें।

आकाश उसकी अग्नि है।
सूरज उसकी सामग्री।
किरने उसका धुआं हो जैसे।
दिन उसकी ज्योति।
चाँद उसकी धधकती लकड़ी।
और तारे उसके अंगारे।

इस हवन में 'शक्ति विश्वास की आहूति देता है।
इस हवन से फ़िर स्वयं राजा सोम निकलता है।

दूसरा हवन ऐसा जिसमें।

इन्द्र देवता अग्नि हैं।
और वायु उसकी सामग्री।
बादल उसका धुआं है।
बिजली उसकी ज्योति है।
कड़क है धधकती लकड़ी।
और गडगडाहट उसके अंगारे।

इस हवन में वो शक्ति सोम की आहूति देता है।
जिससे फ़िर वर्षा का जल धरती पे छलकता है।

तीसरा हवन ऐसा जिसमें।

ये प्रथ्वी अग्नि है
बीतते वर्ष उसकी सामग्री।
आकाश उसका धुआं है।
रात उसकी ज्योति है।
चार दिशाएं धधकती लकड़ी।
और बाकी दिशाएं अंगारे।

इस हवन में वो शक्ति वर्षा की आहूति देता है।
इस हवन से फ़िर इक अन्न स्वरूप जन्मता है।

चौथा हवन की जिसमें।

पुरूष एक अग्नि है।
उसकी आवाज़ उसकी सामग्री।
उसकी साँस हवन का धुआं।
उसकी जीभ ज्योति।
उसके आँख धधकती लकड़ी।
और कान उसके अंगारे।

इस हवन में वो शक्ति अन्न की आहूति देता है।
इस हवन से फ़िर एक बीज स्नायु में उपजता है।

पांचवा हवन ऐसा जिसमें।

स्त्री ख़ुद अग्नि है।
पुरूष लिंग उसकी सामग्री।
उनका मिलन जैसे धुआं सा है।
उसकी योनी एक ज्योति सी है।
काम ज्वाला धधकती लकड़ी है।
और काम पराकाष्ठा हैं अंगारे ।

इस हवन में वो शक्ति बीज की आहोती देता है।
इस हवन से फ़िर नश्वर शरीर उदगत होता है।

भावार्थ...

(प्रेरणा : छ्न्दोग्य उपनिषद )

ताज महल से लगा एक छोटा सा मजार !!!

ताज महल से लगा एक छोटा सा मजार।
शायद किसी गुमनाम कैस का है प्यार।
जिसको संगमरमर की चांदनी न मिली।
न शाहजहाँ की मोहब्बत सी उम्र मिली।
पर आज भी सुर्ख लाल पत्थर के सामने।
संगमरमरी ताज भी फीका सा लगता है।
मोहब्बत इस कदर है उसके इर्द गिर्द की।
ताज बस एक वीरान ईमारत सा लगता है।
पास मैं खड़ा जैसे वो ताज से कह रहा हो।
जहाँ हुनर के हाथ कटे हो वहां मोहब्बत रह नहीं सकती।
जहाँ खून की बूँद गिरी हो कभी वहां इबादात हो नहीं सकती।
ताज में तो लोग बस ईमारत देखने आते हैं।
और यहाँ सब मोहब्बत का सुकून पाते हैं।
हर वीरबार को ये मजार दुल्हन सी सजती है।
दिल से उठी मोहब्बत की नमाज सी पढ़ती है।
यहाँ लोग प्यार का रूहानी धागा बांधते हैं।
और अपनी मोहब्बत के लिए मन्नते मांगते हैं।
काश ताज का नाम मोहब्बत को जिए जाता।
मुमताज का नाम भी लैला सा लिया जाता।
पर अफ़सोस शहंशाह शाही ईमारत तो बना पाया।
पर उसके जर्रों में मोहब्बत खरीद के न भर पाया।

भावार्थ...

Wednesday, September 17, 2008

कोई बात बने !!!...साहिर लुधियानवी

पोंछ के अश्क अपनी आँखों से।
मुस्कुराओ तो कोई बात बने।
सर झुकने से कुछ नहीं होता।
सर उठाओ तो कोई बात बने।

जिंदगी भीख में नहीं मिलती।
जिंदगी बढ़ के चीनी जाती है।
अपन अहक संगदिल ज़माने से।
छीन पाओ तो कोई बात बने।

रंग नस्ल जात और मजहब।
जो भी हैं आदमी से कमतर हैं।
इस हकीक़त को तुम मेरी तरह।
मान जाओ तो कोई बात बने।

नफरतों के जहाँ में हमको ।
प्यार की बस्तियां बसानी हैं।
दूर रहना कोई कमाल नहीं।
पास आओ तो कोई बात बने।

साहिर लुधियानवी...

दिल ही तो है !!! मिर्जा गालिब...

दिल ही तो है न समझो खिश्त।
दर्द से भर न आए क्यों?
रोयेंगे हम हज़ार बार।
कोई हमें सताए क्यों?

गेर नहीं हरम नहीं ।
दर नहीं आस्तां नहीं।
बैठे हैं रहगुज़र पे हम।
गैर हमें हटाये क्यों?

हां वोह नहीं खुदा परिश्त।
हाँ वोह बेवफा सही।
जिसको हो दीनो-दिल अज़ीज़।
उसकी गली में जायें क्यों?

कैदे-ऐ-हयात तो बन्दे गम।
असल दोनों में एक है।
मौत से पहले आदमी।
गम से निजात पाये क्यों?

गालिब खस्ता के बगेर।
कौन से काम बंद हैं।
रोईये जार जार क्या।
कीजये हाय हाय क्यों ?

मिर्जा गालिब...

Tuesday, September 16, 2008

सुर्ख लाल अश्क झड़ के पत्तो पे गिरने लगे !!!

गुल को अपने इर्द गिर्द के कांटे चुभने लगे।
सुर्ख लाल अश्क झड़ के पत्तो पे गिरने लगे।

कौन सा मौसम है ये जो पतझड़ है न बहार।
न बादल घिर के आते हैं न कोई ठंडी फुहार।
न लू लिपटी हुई है न कोहरे का कोई खुमार।

अजीज गुलज़ार के मिजाज भी बदलने लगे।
सुर्ख लाल अश्क झड़ के पत्तो पे गिरने लगे।

न कोई कोयल चहकी न कोई पपीहा आया।
न बुलबुल आई न कुछ कबूतर खबर लाया।
न तुतला के तोता बोला न कोई गुनगुनाया।

वीराने उसे तन्हाई के आगोश में भरने लगे।
सुर्ख लाल अश्क झड़ के पत्तो पे गिरने लगे।

न ये पत्ते हरे रहे न ये टहनियां मटमैली रही।
न कलियाँ गुलाबी न फूल की वो लाली रही।
न कांटो की वो चुभन न डाली की नजाकत रही।

बहती हवा भी जब कसक में सिसकने लगे।
सुर्ख लाल अश्क झड़ के पत्तो पे गिरने लगे।

भावार्थ...

Monday, September 15, 2008

खून फिर खून है !!! साहिर लुधियानवी...

जुल्म फ़िर जुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है।
खून फिर खून है टपकेगा तो जम जाएगा।

ख़ाक-ऐ-सेहरा पे जामे या काफ-ऐ-कातिल पे जमे।
फर्क-ऐ-इन्साफ पे या पा-ऐ-सलासल पे जमे।
तेघ-ऐ-बेदाद पे या लाश-ऐ-बिस्मिल पे जमे।
खून फ़िर खून है टपकेगा तो जम जाएगा।

लाख बैठे कोई छुप कर के कहीं गाहों में।
खून ख़ुद देता है जल्लादों के मसकन के सुराग।
साजिशें लाख ओढ़ती रहें जुल्मत के नकाब।
ले के हर बूँद निकलती है हथेली पे चिराग।

जुल्म की किस्मत-ऐ-निकराह-ओ-रुसवा से कहो।
जब्र की हिकमत-ऐ-पुरकार के इमा से कहो।
मेह्मल-ऐ-मजलिस-ऐ-अक्वाम की लैला से कहो।
खून दीवाना है दामन से लपक सकता है।
शोला-ऐ-तुंद है खिर्मान पे लपक सकता है।

तुमने जिस खूम को मकतल में दबाना चाह।
आज वो कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है।
खून शोला कहीं नारह कहीं पत्थर बन के।
खून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से।
सर जो उठता है तो दबता नहीं आयिनो से।

जुल्म की बात है क्या जुल्म की औकात है क्या।
जुल्म बस जुल्म है आगाज़ से अंजाम तलक।
खून फिर खून है सौ शक्ल बदल सकता है।
ऐसी शकले जो मिटून तो मिटाए न बने।
ऐसे शोले जो बुझाऊँ तो बुझाये न बने।
ऐसे नारे जो दबाओं तो दबाये न बने।

साहिर लुधियानवी ...

Sunday, September 14, 2008

बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों !!! साहिर लुधियानवी...

बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों।
मोहब्बत के दिए जलाके।
मेरी वफ़ा ने उजाड़ दी हैं।
वफ़ा की बस्तियां बनाके।

तुझे भुला देंगे अपनी दिल से।
ये फ़ैसला तो किया है लेकिन।
न दिलको मालूम है न हमको।
जियेंगे कैसे तुमको भुलाके।

कभी मिलेंगे रास्ते में तो।
तप मुँह फेर केर पलट पड़ेंगे।
कहीं सुनेंगे जो नाम तेरा।
तो चुप रहेंगे नज़र झुकाके।

न सोचने पे भी सोचती हूँ की।
जिंदगी में क्या रहेगा।
तेरी तमन्ना को दफ़न करके।
तेरे खयालो से दूर जाके।

साहिर लुधियानवी...

Friday, September 12, 2008

दिल चीज़ है क्या जाना !!!

दिल चीज़ है क्या जाना ये जाँ भी तुम्हारी है।
तेरी बाहों मैं दम निकले हसरत ये हमारी है।

रोती हूँ तड़पती हूँ कटती ही नहीं जालिम।
एक रात जुदाई की ये सौ रात से भारी है।

फूलो की कदर पूछो उस दर्द के माली से।
जिस शख्स ने कांटो पे एक उम्र गुजारी है।

गुम इश्क-मोहब्बत के चलो पूछ ले सादिक से।
इक बाज़ी मोहब्बत की उस शख्स ने हारी है।

दिल चीज़ है क्या जाना ये जाँ भी तुम्हारी है।
तेरी बाहों मैं दम निकले हसरत ये हमारी है।

पाकिस्तानी शायर...

Monday, September 8, 2008

इब्ने मरियम हुआ करे कोई !!! मिर्जा गालिब...

इब्ने मरियम हुआ करे कोई।
मेरे दुःख की दवा करे कोई।

चाल जैसे कड़ी कमान का तीर।
दिल में जैसे जा करे कोई।

बात परवाज जबा कटती है।
वो कहे और सुना करे कोई।

जब तवक्को ही उठ गई गालिब।
क्यों किसी का गिला करे कोई।

इब्ने मरियम हुआ करे कोई।
मेरे दुःख की दवा करे कोई।

मिर्जा गालिब...

Sunday, September 7, 2008

ये न थी हमारी किस्मत !!! मिर्जा ग़ालिब...

ये न थी हमारी किस्मत की विसाल-ऐ-यार होता।
अगर जीते रहते तो ये ही इंतज़ार होता।

तेरे वादे पर जीए हम तो ये जान झूठ जाना।
की खुशी से मर न जाते अगर एतबार होता।

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे-ऐ-नीम कसक।
यह खलिश कहाँ से होती जो ये जिगर के पार होता।

रगे संग से टपकता जो लहू फ़िर न थमता।
जिसे गम समझ रहे हो ये अगर शरार होता।

कहूँ किससे में की क्या है सब-ऐ-गम बुरी बला है।
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता।

हुए मर के हम जो रुसवा हुए क्यों न गर्क दरिया।
न कभी जनाजा उठता न कहीं मजार होता।

उसे कौन देख सकता कि न यगा है न यकता।
जो दुही की बू जो होती तो कहीं दो-चार होता।

ये मसले तस्सवुफ़ ये तेरा बयान गालिब।
तुझे हम बलि समझते जो न वादा खार होता।

ये न थी हमारी किस्मत की विसाल-ऐ-यार होता।
अगर जीते रहते तो ये ही इंतज़ार होता।

मिर्जा ग़ालिब...

Saturday, September 6, 2008

कोई उम्मीद भर नहीं आती !!! मिर्जा गालिब...

कोई उम्मीद भर नहीं आती।
कोई सूरत नज़र नहीं आती।

मौत का एक दिन मुआयल है।
नींद क्यों रात भर नहीं आती।

आती थी हाल-ऐ-दिल पे हसी।
अब किसी बात पर नहीं आती।

जानता हूँ सबा बिता तो जुहूद।
पर तबियत इधर नहीं आती।

हम वहां है जहाँ से हमको भी।
कुछ हमारी खबर नहीं आती।

मरते हैं आरजू में मरने की।
मौत आती है पर नहीं आती।

है ऐसी सी कुछ बात की छुप हूँ।
वरना क्या बात कर नहीं नाती।

काबे किस मुँह से जाऊगे गालिब।
शर्म तुमको मगर नहीं आती।

कोई उम्मीद भर नहीं आती।
कोई सूरत नज़र नहीं आती।

मिर्जा गालिब...

उस रोज !!!

उस रोज !!!
सूरज भी मद्धम था।
हवा भी रुकी रुकी सी थी।
हर लम्हा सालो सा बीत रहा था।

उस रोज !!!
चाँद भी फीका था।
तारे भी गुमसुम से थे।
हर नज़ारा बुझा बुझा सा था।

उस रोज !!!
शरारते चुपचाप थी।
छेड़-खानी कहीं न थी।
झूट-मूट का गुस्सा खामोश था।

उस रोज !!!
वो नज़र आई न थी।
आंसू की नदी रुक पायी न थी।
दिल मेरा उसकी याद से क्यों भर आया था।

उस रोज !!!
वो याद आई थी।
उसकी हर बात याद आई थी।
प्यार की हर एक सौगात याद आई थी।

उस रोज !!! मुझे...

भावार्थ
...

Friday, September 5, 2008

मुझे इंसान के सांचे से निकाल ऐ खुदा !!!

मुझे इंसान के सांचे से निकाल ऐ खुदा।
दम मेरा इसमें अब रोज घुटने लगा है।
झूट का दीमक और लालच की सीलन।
जलन और इंतेशार इसमें बसने लगा है।

मुझे इंसान के सांचे से निकाल ऐ खुदा।
दम मेरा इसमें अब रोज घुटने लगा है।

यह सांचा जो किसी को इबादतों से मिला।
कितने पूजन और कितनी नमाजो से मिला।
जिसको ममता ने पाला तो प्यार ने नवाजा।
फीका सा कौन सा रंग इसपे चढ़ने लगा है।

मुझे इंसान के सांचे से निकाल ऐ खुदा।
दम मेरा इसमें अब रोज घुटने लगा है।

धूल
इसके हर जर्रे में भीतर तक बस गई।
इसकी सीरत हैवानियत सी बन गयी।
इसका हर एक पुर्जा रिस रिस के गिरा।
दौर का माहौल इसको अब निगलने लगा है।

मुझे इंसान के सांचे से निकाल ऐ खुदा।
दम मेरा इसमें अब रोज घुटने लगा है।

में
जिन्दा हूँ और रहूँगा इसके गिरने के बाद।
रूह की पहचान रहेगी इसके बिखरने के बाद।
में क्यों रोज मरू इस पहनावे से तू ही बता।
इसका मंजर तो ख़ुद रोज बदलने लगा है।

मुझे इंसान के सांचे से निकाल ऐ खुदा।
दम मेरा इसमें अब रोज घुटने लगा है।

तू निकाल सके तो निकाल वरना कोई बात नहीं।
वरना मुझको अक्ल की तलवार तुने दी ही है।
कौन करेगा नरक और स्वर्ग का फ़ैसला।
मेरा ख़ुद को ख़ुद से जुदा करने का हौसला बढ़ने लगा है।

मुझे इंसान के सांचे से निकाल ऐ खुदा।
दम मेरा इसमें अब रोज घुटने लगा है।

भावार्थ
...

Thursday, September 4, 2008

बेखुदी बेसबब !!! मिर्जा गालिब...

बेखुदी बेसबब नहीं गालिब।
कुछ तो है जिसकी पर्दागारी है।

दिल में जिगा का जो मुकदमा था।
आज फ़िर उसकी रूबकारी है।

फ़िर उसी बेवफा पे मरते हैं।
फ़िर वही जिंदगी हमारी है।

फ़िर दिया पारा-ऐ-दिल ने सवाल।
एक फरियाद आहोजारी है।

फ़िर हुए गवाह इश्क तलब।
अश्क बारी का हुकुम जारी है।

बेखुदी बेसबब नहीं गालिब।
फ़िर कुछ एक दिल को बेकरारी है।

बेखुदी बेसबब नहीं गालिब।
कुछ तो है जिसकी पर्दागारी है।

मिर्जा गालिब...

Wednesday, September 3, 2008

नुक्तचिन है दिल !!! मिर्जा गालिब...

नुक्तचिन है दिल उसको सुनाये न बने।
क्या बात बने जहाँ बात बनाये न बने।

गैर फिरता है लिए यु तेरे ख़त कि अगर।
कोई पूछे कि यह क्या है तो छुपाये न बने।

कह सके कौन की यह जलावागिरी किसकी है।
परदा छोड़ा हैं वो उसने कि उठाये न बने।

में बुलाता तो हूँ उसको मगर ऐ जज्बा-ऐ-दिल।
उसपे बन जाए ऐसी की बिन आए न बने।

इश्क पे जोर नहीं है ये वोह आतश गालिब।
की लगाये न लगे और बुझाये न बने।

में भूलता हूँ उसको ऐ जलवाए दिल।
उसपे बन जाए कुछ ऐसी की बनाये न बने।

नुक्तचिन है दिल उसको सुनाये न बने।
क्या बात बने जहाँ बात बनाये न बने।

मिर्जा गालिब...

Tuesday, September 2, 2008

हर एक बात पे कहते हो तुम तू क्या है !!!-मिर्जा गालिब

हर एक बात पे कहते हो तुम तू क्या है।
तुमही कहो कि ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है।

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा।
कुरदेते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा।
कोई बताओ कि वो शोख-ऐ-तुम्दुखू क्या है।

रगों में दौड़ते फिरते के हम नहीं कायल।
जब आंख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है।

रही न ताकत-ऐ-गुफ्तार और अगर हो भी।
तो किस उम्मीद पे कहिये की आरजू क्या है।

हुआ है शाह का मुसाहिब फिरे है एक रात।
वरना शहर में गालिब की आबरू क्या है।

हर एक बात पे कहते हो तुम तू क्या है।
तुमही कहो कि ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है।

मिर्जा गालिब...

Monday, September 1, 2008

हजारो ख्वाईशें ऐसी !!! मिर्जा गालिब...

हजारो ख्वाईशें ऐसी की हर ख्वाइश पे दम निकले।
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फ़िर भी कम निकले।

मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का।
उसकी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले।

डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पे।
वो खून जो चश्मे तर से उम्र भर दम-ब-दम निकले।

निकलना खूंद का आदम से सुनते आए हैं लेकिन।
बहुत आबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले।

हुई जिनसे तवक्को खस्तगी की दाद पाने की।
वोह हमसे भी ज्यादा जी खास्ताय्गी-ऐ-सितम निकले।

कहाँ माय खाना का दरवाजा का और कहाँ वाईज।
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था की हम निकले।

हजारो ख्वाईशें ऐसी की हर ख्वाइश पे दम निकले।
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फ़िर भी कम निकले।

मिर्जा गालिब...