कितना फक्र है आँखों पे तुझको...
जरा तेजी से घूमा गर पहिया...
तो उल्टा फिरता दीखता तुझको...
कितन फक्र है नाक पे तुझको...
गर गंध हो हवा सी इर्द गिर्द...
तो कुछ न सूझता तुझको...
कितना फक्र है कान पे तुझको...
गर जरा बढ़ जाये शोर एक हद से...
कुछ न सुन पाए फिर तुझको...
कितना फक्र है जीभ पे तुझको...
गर पानी सा हो जो कुछ भी...
कुछ न स्वाद फिर आये तुझको...
कितना फक्र है छूने पे तुझको...
गर सुन्न हो जाए अंग कोई...
न फिर एहसास हो पाए तुझको...
कितनी बेबस है सोचो पञ्च-मुखी माया...
बाँधने चली है जो एक अजर अमर साया...
मूरख है तू हो हुआ जा रहा बहि-मुखी...
अनंत मस्ती है जरा हो जा तू अंतर मुखी...
अनंत मस्ती है जरा हो जा अंतर मुखी...
मुक्त हो कर देख क्या होता सच में सुखी...
भावार्थ
जरा तेजी से घूमा गर पहिया...
तो उल्टा फिरता दीखता तुझको...
कितन फक्र है नाक पे तुझको...
गर गंध हो हवा सी इर्द गिर्द...
तो कुछ न सूझता तुझको...
कितना फक्र है कान पे तुझको...
गर जरा बढ़ जाये शोर एक हद से...
कुछ न सुन पाए फिर तुझको...
कितना फक्र है जीभ पे तुझको...
गर पानी सा हो जो कुछ भी...
कुछ न स्वाद फिर आये तुझको...
कितना फक्र है छूने पे तुझको...
गर सुन्न हो जाए अंग कोई...
न फिर एहसास हो पाए तुझको...
कितनी बेबस है सोचो पञ्च-मुखी माया...
बाँधने चली है जो एक अजर अमर साया...
मूरख है तू हो हुआ जा रहा बहि-मुखी...
अनंत मस्ती है जरा हो जा तू अंतर मुखी...
अनंत मस्ती है जरा हो जा अंतर मुखी...
मुक्त हो कर देख क्या होता सच में सुखी...
भावार्थ
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