Wednesday, February 4, 2009

एक वाकया !!!

अन्धायारी रात के आँगन मैं ये सुबह के क़दमों कि आहट...
ये भीगी भीगी सर्द हवा, ये हलकी हलकी धुन्द्लाहट
गारी मैं हूँ तनहा महव-जा-सफर और नींद नहीं है आंखों मैं..
भूले बिसरे अरमानों के ख(व)आबों कि ज़मीन है आंखों मैं...
अगले दिन हाथ हिलाते हैं पिछली पीतें याद आती हैं...
गुम-गश्तः खुशियाँ आंखों मैं आंसू बन कर लहराती हैं...
सीने के वीरान गोशों मैं इक तीस सी करवट लेती हैं...
नाकाम उमंगें रोती हैं, उम्मीद सहारे देती है...
वोह राहें ज़हन मैं घूमती हैं जिन राहों से आज आया हूँ...
कितनी उम्मीद से पहुंचा था, कितनी मायूसी लाया हूँ

साहिर
लुधियानवी...

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