एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Friday, February 27, 2009
हजारों ख्वाहिशें ऐसी
बोहत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले
दरे क्यों मेरा कातिल? क्या रहेगा उस की गर्दन पर?
वोह खून, जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूँ दम-बा-दम निकले
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहोत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले
भरम खुल जाए जालिम! तेरी कामत की दराजी का
अगर इस तरहे पर पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
मगर लिखवाये कोई उसको ख़त, तो हम से लिखवाये
हुई सुबह, और घर से कान पर रख कर कलम निकले
हुई इस दौर में मंसूब मुझे से बाद आशामी
फिर आया वोह ज़माना, जो जहाँ में जाम-ऐ-जाम निकले
हुई जिन से तवक्का खस्तगी की दाद पाने की
वोह हम से भी ज्यादा खस्ता ऐ तेघ ऐ सितम निकले
मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफिर पे दम निकले
ज़रा कर जोर सीने पर की तीर-ऐ-पुरसितम निकलेजो
वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले
खुदा के वास्ते परदा न काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो यान भी वही काफिर सनम निकले
कहाँ मैखाने का दरवाजा घलिब और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वोह जाता था के हम निकले
हजारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बोहत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले...
...मिर्जा गालिब
Monday, February 23, 2009
जरूरत !!!
आँखें फ़ुट पड़ती हैं नमी लाने को जले में…
तड़प अल्फाजो की लबो में जो दब सी जाती है…
दिल के गुबार भर भर के आते हैं रूंधे गले में …
बहते सपनो को मेरे कोई साहिल नही मिलता…
भवर बन बन के उमड़ते हैं रातो के तले में…
मकसद उलझा पड़े हैं जरूरत के कांटो में…
अब बुलंदी नहीं रही मेरे खाबो के वल-वले में…
टूट चुक्का है बस बिखरा नहीं है भावार्थ…
गुमनाम है वो इरादे जो पलते थे इस दिल-जले में…
...भावार्थ
जरूरत
धधकते दिलो की दूरियां जब जुबान तय न कर पाए …
आँखें फ़ुट पड़ती हैं नेम लेन को जले में…
तड़प अल्फाजो की लबो में जो दब सी जाती है…
दिल के गुबार भर भर के आते हैं रूंधे गले में …
बहते सपनो को मेरे कोई साहिल नही मिलता…
भवर बन बन के उमड़ते हैं रातो के तले में…
मकसद उलझा पड़े हैं जरूरत के कांटो में…
अब बुलंदी नहीं रही मेरे खाबो के वल-वले में…
टूट चुक्का है बस बिखरा नहीं है भावार्थ…
गुमनाम है वो इरादे जो पलते थे इस दिल-जले में…
...भावार्थ
Sunday, February 22, 2009
दोस्ती को वो मोहब्बत समझ बैठे...!!!
मेरे अफसानो को वो हकीकत समझ बैठे...
मुझे तो युही बस हसने-हसाने की आदत है...
मेरी इस दिल्लगी को वो शरारत समझ बैठे...
मेरी नज़रें झुकी रहकर एहतराम करती है ...
मेरे इन सजदों को वो इबादत समझ बैठे...
उनकी बातों को मैंने कभी दिल से लगाया नहीं...
मेरा दिल दुखाने की इसे वो इजाज़त समझ बैठे...
मुझे खुदा ने दुखो को सुनने का जो दिया है हुनर...
संजीदगी को वो दिल बहलाने की आदत समझ बैठे...
भावार्थ...
Wednesday, February 18, 2009
कितनी गिरहें खोली हैं मैंने .!!!
कितनी गिरहें अब बाकी हैं...
पाओं में पायल बाहों में कंगन...
गले में हंसरी ,कमर बंद, छल्ले और बिछुए...
नाक कान छिदवाए गए...
और जेवर जेवर कहते कहते ....
रीत रिवाज की रस्सियों से मैं जकड़ी गई...
उफ़ कितनी तरह मैं पकड़ी गई...
अब छिलने लगे हैं हाथ पाओं...
और कितनी खराशे उभरी हैं...
कितनी गिरहें खोली हैं मैंने...
और कितनी रस्सियाँ उतरी हैं...
अंग अंग मेरा रूप रंग...
मेरे नैन नक्श मेरे भोले पैर...
मेरी आवाज़ मैं कोयल की तारीफ हुई...
मेरी जुल्फ सौंप जुल्फ रात...
मेरी जुल्फ घटा मेरे लब गुलाब...
आँखें शराब....
ग़ज़ल नज़्म कहते कहते...
मैं हुस्न और इश्क के अफसानो में जकड़ी गई...
कितनी तरह मैं पकड़ी गई...
मैं पूंछूं जरा मैं पूछूं जरा...
आँखों मैं शराब दिखी सबको...
आकाश नही देखा कोई...
सावन भादों तो दिखे मगर...
क्या दर्द नहीं देखा कोई...
फेन की छैनी से बुत छीले गए...
तागा तागा करते करते पोशाक उतारी गई॥
मेरे जिस्म में फन की मस्क हुई...
आर्ट कला कहते कहते मैं संगे मर्मर मैं जकड़ी गई...
उफ़ कितनी तरह मैं पकड़ी गई...
बतलाये कोई बतलाये कोई...
गुलजार ...
Sunday, February 15, 2009
तंग आ चुके हैं हम...!!!
तंग आ चुके कश्मकशे जिंदगी से हम...
ठुकरा न दे जहाँ को कहीं बेरुखी से हम...
हम गमजदा हैं लाये कहाँ से खुशी के गीत....
देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम...
उभरेंगे एक बार अभी दिल के वलवाले...
माना की दब गए हैं गम-ऐ-जिंदगी से हम...
लो आज हमने आज तोड़ दिया रिश्ता-ऐ-उम्मीद....
लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम...
साहिर लुधियानवी..
Tuesday, February 10, 2009
कोई हमनफस नहीं है
कोई हमनफस नहीं है कोई राजदार नहीं है...
फकत एक दिल था अपना जो मेहरबा नहीं है...
मेरी रूह की हकीकत मेरे आंसूओं से पूछो...
मेरा मर्ज़ से तबस्सुम दर्द्द्जुमान नहीं है...
इन्ही पत्थरो पे चल कर अगर आ सको तो आओ...
मेरे घर के रास्ते में कोई कहकशा नहीं है...
किसी जुल्फ को सदा दो किसी आँख को पुकारो...
कड़ी धुप पड़ रही हो कोई साहिबा नहीं है...
पाकिस्तानी शायर...
(गायिका: मुन्नी बेगम)
Friday, February 6, 2009
जी ले माही जी भर के जिंदगी...
जी ले माही जी भर के जिंदगी...
तिनको से बनी है तो क्या हुआ ...
बिखरी सी जिंदगी है तो क्या हुआ ...
हटा ये कोहरे हटा ये पहरे...
जी ले माही जी भर के जिंदगी...
अपने जो अपने नहीं तो क्या हुआ...
सपने सच बनते नहीं तो क्या हुआ...
हटा ये सवाल मिटा ये बवाल ...
जी ले माही जी भर के जिंदगी...
रास्ते जो तेरे नहीं तो क्या हुआ...
मंजिले मुँह फेर भी ले तो क्या हुआ...
हटा शक जो हैं मिटा हिचक जो है...
जी ले माही जी भर के जिंदगी...
भावार्थ...
Thursday, February 5, 2009
मंजर भोपाली !!!
हम चिराग अपनी रौशनी से बिछडे हैं....
इससे ज्यादा क्या होगा साम्या मुकद्दर की...
जिससे भी मोहब्बत की हम उसीसे बिछडे हैं....
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सितमगरों का है फरमान की घर भी जायेगा...
अगर झूठ न बोला तो सर भी जायेगा...
बनाईये न किसी के लिए भी ताजमहल...
हुनर दिखाया यो दश्ते-हुनर भी जायेगा
माएं चलती है बच्चो के पाव से जैसे...
उधर ही जायेंगी बच्चा जिधर भी जायेगा....
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तुम्हारी बात कहाँ घाव भरने वाली है...
यही कटार तो दिल में उतरने वाली हैं...
वोह जा रहे हैं तो महसूस हो रहा है मुझे...
की रेल मुझे कुचल कर गुजरने वाली हैं...
हमारी टीवी फ़िल्म ये बता रहे हैं हमें...
हमारी मुल्क की तहजीब मरने वाली है...
ख़ुद ही सुधर जाईये तो बेहतर है...
न समझई की दुनिया सुधरने वाली है...
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मंजर भोपाली...
दीवानों ने मेरे रक्स तो देखा...!!!
पेरौ के ये छाले किसी ने न देखे...
मुस्सविर के जेहेन में रह कर भी ...
तस्वीरों में हम नज़र आए नहीं...
शायर के खयालो में बस कर भी...
नज़मो में हम कहीं सज पाये नहीं...
ये कजरारी नज़रें तो सभी ने देखी...
नजरो में बसे समंदर किसी न देखे...
तमन्ना थी बस उसकी बाहों की...
साँसे थमे तो उसका ही सहारा हो...
तमन्ना थी बस उन फिजाओ की...
जिधर देखूं उसका ही नज़ारा हो...
ये सजे-सजे से अधर तो सब ने देखे...
उनमें छुपी हुई आहें किसी ने न देखी...
जिसको सिर्फ़ मुझसे मोहब्बत हो ...
ऐसे शख्स की तामीर खुदा तू कर दे...
जिसके जेहेन में मेरी ख्वाईश बसी हो...
मेरी तकदीर में उसे गुमशुदा तू कर दे...
जिस्म की शोख अदाए तो देखी...
अरमान ये हारे किसी ने न देखे...
भावार्थ...
Wednesday, February 4, 2009
एक वाकया !!!
अन्धायारी रात के आँगन मैं ये सुबह के क़दमों कि आहट...
ये भीगी भीगी सर्द हवा, ये हलकी हलकी धुन्द्लाहट
गारी मैं हूँ तनहा महव-जा-सफर और नींद नहीं है आंखों मैं..
भूले बिसरे अरमानों के ख(व)आबों कि ज़मीन है आंखों मैं...
अगले दिन हाथ हिलाते हैं पिछली पीतें याद आती हैं...
गुम-गश्तः खुशियाँ आंखों मैं आंसू बन कर लहराती हैं...
सीने के वीरान गोशों मैं इक तीस सी करवट लेती हैं...
नाकाम उमंगें रोती हैं, उम्मीद सहारे देती है...
वोह राहें ज़हन मैं घूमती हैं जिन राहों से आज आया हूँ...
कितनी उम्मीद से पहुंचा था, कितनी मायूसी लाया हूँ
साहिर लुधियानवी...
Tuesday, February 3, 2009
परवाज़ !!!
खिल के रह जाते है सतरंगी कागज़...
खरीददार आए और चले गए बाज़ार से...
धागे से जुड़े रंग जब उड़ान भरते हैं...
तो कायनात सिमट जाती है नजरो में...
अरमान निकल पड़ते हैं रंगों के साथ...
फ़िर खीचता कोई छोड़ता कोई धागे को....
और रंगों को आसमान तैरता देखता...
लेकिन बीत गया वो रंगों की परवाज़ का दौर...
कागज़ रद्दी बन गए ,साल बीत गए...
पर कोई नहीं आया रंग-बिरंगी पतंग लेने ...
...भावार्थ
Monday, February 2, 2009
तेरा असर !!!
या तो भीड़ मय खाने से निकली हैं...
ये फ़िर तू इस कूंचे से निकली है...
इस कदर बिखरी तीरगी...
या तो आज अमावस के नजारे है...
या फ़िर तुने अपने गेसू सवारे हैं...
इस कदर बे-इन्तेआह हया...
छुई-मूई को किसी बच्चे ने छु दिया है...
या तुझसे किसी अजनबी ने रास्ता पूछ लिया है...
इस कदर महकती हवा ...
या तो गुलज़ारो में बहार आई है...
या तू आज फ़िर खुल कर खिल-खिलाई है...
भावार्थ...
बशीर बद्र
नदिया के साथ साथ बहो तुम नशे में हो।
क्या दोस्तों ने रात भर पिलाई है तुमको।
अब दुश्मनों के साथ रहो तुम नशे में हो।
बेहद शरीफ लोगो से कुछ फासला रखो।
पी लो मगर कभी न कहो की तुम नशे में हो।
कागज़ का यह लिबास चिरागों के सेहर में।
संभल के संभल चलो जाना तुम नसे में हो।
मासूम तितलियों को मसलने का शौक है।
तुम तौबा करो खुदा से डरो तुम नशे में हो।
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इबादतों की तरह में यह काम करता हूँ।
मेरा उसूल है पहले में सलाम करता हूँ।
मुखालफत से मेरी शख्शियत सवरती है।
में दुस्मानो का बड़ा एहतराम करता हूँ।
में डर गया हूँ इन सायादार पेडो से।
जरा सी धुप बीचा कर कयाम करता हूँ।
मुझे खुदा ने गज्हल का दयार बख्सा है।
यह दौलत में मोहब्बत के नाम करता हूँ।
बशीर बद्र...
Sunday, February 1, 2009
कुछ शेर !!! अहमद फ़राज़ ...
इससे पहले की बेवफा हो जाएँ...
क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जायें...
तू भी हीरे से बन गया पत्थर...
हम भी कल क्या से क्या हो जाएँ...
सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है...
की फूल अपने कबायें क़तर के देखते हैं...
रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ करती हैं...
चले तो उसको जमाने ठहर के देखते हैं...
अहमद फ़राज़...