पेडो की सिसकियाँ रात भर सुनी मैंने।
सुबह तलक रोते रहे और कहते रहे वो।
न जाने कौन सी बद्दुआ मिली है हमको।
न कह सकेकुछ और न ही चल सके वो।
दायरा उनका कहाँ है वो तो हवा का है।
उनके पत्ते उसी के साथ उड़ते जाते हैं।
न त्यौहार न जश्न बस एक लम्बी उदासी।
जिंदा होने का एहसास इससे बुरा क्या होगा।
न ख़ुद को बचा सकते न ख़ुद को मिटा सकते।
कोई भी आए औजार उठाये और हस्ती मिटाए।
और वो चुप चाप अपनी बलि देते हैं। ....
4 comments:
bahut hi gehre bhav,ped na dard keh sake na chal sake,bahut hi badhai.
Thanks a lot mahek ji..I love to read uor poems as well...
parkirti ka maanviy karan yahi hai ,tabhi tum itana bahtareen likh paate ho.
Thanks a lot...
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