Wednesday, February 18, 2009

कितनी गिरहें खोली हैं मैंने .!!!

कितनी गिरहें खोली हैं मैंने ...
कितनी गिरहें अब बाकी हैं...

पाओं में पायल बाहों में कंगन...
गले में हंसरी ,कमर बंद, छल्ले और बिछुए...
नाक कान छिदवाए गए...
और जेवर जेवर कहते कहते ....
रीत रिवाज की रस्सियों से मैं जकड़ी गई...
उफ़ कितनी तरह मैं पकड़ी गई...

अब छिलने लगे हैं हाथ पाओं...
और कितनी खराशे उभरी हैं...
कितनी गिरहें खोली हैं मैंने...
और कितनी रस्सियाँ उतरी हैं...


अंग अंग मेरा रूप रंग...
मेरे नैन नक्श मेरे भोले पैर...
मेरी आवाज़ मैं कोयल की तारीफ हुई...
मेरी जुल्फ सौंप जुल्फ रात...
मेरी जुल्फ घटा मेरे लब गुलाब...
आँखें शराब....
ग़ज़ल नज़्म कहते कहते...
मैं हुस्न और इश्क के अफसानो में जकड़ी गई...
कितनी तरह मैं पकड़ी गई...

मैं पूंछूं जरा मैं पूछूं जरा...
आँखों मैं शराब दिखी सबको...
आकाश नही देखा कोई...
सावन भादों तो दिखे मगर...
क्या दर्द नहीं देखा कोई...


फेन की छैनी से बुत छीले गए...
तागा तागा करते करते पोशाक उतारी गई॥
मेरे जिस्म में फन की मस्क हुई...
आर्ट कला कहते कहते मैं संगे मर्मर मैं जकड़ी गई...
उफ़ कितनी तरह मैं पकड़ी गई...

बतलाये कोई बतलाये कोई...


गुलजार ...

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