दीप जिसका मोहल्ला धीमे जले...
चंद लोगों की खुशियों को ले कर चले...
वो हर साए में हर मसलियत के पले...
ऐसे दस्तूर को...
सुबह बेनूर को...
में नहीं मानता मैं नहीं जानता...
मैं भी खरिफ नहीं तख़्त-ए-दार से...
मैं भी मंसूर हूँ कह तो अगियार से...
क्यों डराते हो जिन्दों की दीवार से...
जुल्म की बात को...
जेहेल की रात को...
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता...
फूल साखों पे खिलने लगे तुम कहो...
जाम रिन्दों को मिलने लगे तुम कहो...
चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो...
इस खुले झूठ को
जेहेन की लूट को..
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता...
तुमने लूटा है सदियों हमारा सुकून...
अब न हम पर चलेगा तुम्हार फिसून...
चार अगर दर्द मंदों के बनते हो क्यों...
तुम नहीं चार गर...
कोई माने मगर...
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता...
हबीब जलीब !!!
चंद लोगों की खुशियों को ले कर चले...
वो हर साए में हर मसलियत के पले...
ऐसे दस्तूर को...
सुबह बेनूर को...
में नहीं मानता मैं नहीं जानता...
मैं भी खरिफ नहीं तख़्त-ए-दार से...
मैं भी मंसूर हूँ कह तो अगियार से...
क्यों डराते हो जिन्दों की दीवार से...
जुल्म की बात को...
जेहेल की रात को...
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता...
फूल साखों पे खिलने लगे तुम कहो...
जाम रिन्दों को मिलने लगे तुम कहो...
चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो...
इस खुले झूठ को
जेहेन की लूट को..
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता...
तुमने लूटा है सदियों हमारा सुकून...
अब न हम पर चलेगा तुम्हार फिसून...
चार अगर दर्द मंदों के बनते हो क्यों...
तुम नहीं चार गर...
कोई माने मगर...
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता...
हबीब जलीब !!!
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