जिंदगी क्या है सांसो का पुलिंदा जैसे….
एक लाश सा शख्स है जो हो जिन्दा जैसे...पांच कूंचो पे हुआ बावरा फिरता....
कुछ ढूढने को अपने ही शहर का बाशिंदा जैसे...
समंदर की खाइश में बन गया सेहरा....
अपने करिश्मे पे है खुदा भी शर्मिंदा जैसे...
बात बात पे देता है तू दर्द की दुहाई...
फितरत-ए-दर्द हो आदम को पसीदंदा जैसे ....
उड़ उड़ कर आता है उसी टहनी पे वो ….
इस रूह से निभाने को मरासिम वो परिंदा जैसे....
घर के आंगन और गलियारे न रहेंगे अब....
शहर में निकला है घर जलाने को दरिंदा जैसे...
बिकते है क़त्ल-ए-आम खुले बाजारों में...
हो गया हो लहू इंसा का बाज़ार में मंदा जैसे ....
भावार्थ...
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