लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में...
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में...
और जाम टूटेंगे इस शराब खाने में...
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में...
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं...
उम्रें बीत जाती हैं दिल को दिल बनाने में...
फाकता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती...
कौन सांप रखता है उसके आशियाने में...
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सर से पांव तक वो गुलाबो का सजर लगता है...
बावरू होते हुए भी छूते हुए दर लगता है...
में तेरे साथ सितारों से गुजर सकता हूँ...
कितना आसान मोहब्बत का सफ़र लगता है...
मुझमें रहता है कोई दुशमन-ए-जानी मेरा...
खुद से तन्हाई मिलते हुए डर लगता है...
जिंदगी तुने मुझे कब्र से कम दी जिंदगी....
पाँव फेलाऊँ तो दीवार से सर लगता है...
बशीर बद्र...
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