जिंदगी हसीं मुझको लगती नहीं....
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...
दर्द से ही उठता हो पर्दा जहाँ...
दर्द से ही गिरता हो पर्दा जहाँ...
दुनिया के आँगन के इस बाग़ में...
धडो में चिर सुलगती इस आग में...
मोहब्बत नशीं मुझको लगती नहीं...
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...
कुछ बोराए से है सोने की छनकार से...
कुछ गिर गिर पड़े हुस्न की बौछार से...
हर जेहेन को है किसी न किसी का नशा..
जोंक का खून हर हुकुमरान में बसा...
जीने की तमन्ना मुझमें उठती नहीं...
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...
क्या कहें इन बिखरे जमीरों की दास्ताँ...
बुत बन के कूंचो पे गाँधी करते हैं बयाँ...
भूख और रोष की नदी संग बहने लगी...
गुलामी आज़ादी के घर में आके रहने लगी...
सांस इस माहौल में अब ठिठकती नहीं...
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...
जिंदगी हसीं मुझको लगती नहीं....
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...
भावार्थ...
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...
दर्द से ही उठता हो पर्दा जहाँ...
दर्द से ही गिरता हो पर्दा जहाँ...
दुनिया के आँगन के इस बाग़ में...
धडो में चिर सुलगती इस आग में...
मोहब्बत नशीं मुझको लगती नहीं...
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...
कुछ बोराए से है सोने की छनकार से...
कुछ गिर गिर पड़े हुस्न की बौछार से...
हर जेहेन को है किसी न किसी का नशा..
जोंक का खून हर हुकुमरान में बसा...
जीने की तमन्ना मुझमें उठती नहीं...
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...
क्या कहें इन बिखरे जमीरों की दास्ताँ...
बुत बन के कूंचो पे गाँधी करते हैं बयाँ...
भूख और रोष की नदी संग बहने लगी...
गुलामी आज़ादी के घर में आके रहने लगी...
सांस इस माहौल में अब ठिठकती नहीं...
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...
जिंदगी हसीं मुझको लगती नहीं....
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...
भावार्थ...
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