Wednesday, June 25, 2008

रिश्तो की स्याही तो मिटने लगी है !!!

रिश्तो की स्याही तो मिटने लगी है।
धुआं रह गया आग तो बुझने लगी है।

रिश्तो की स्याही तो मिटने लगी है।

नज़र लगी नूर को कोसो दूर से कहीं।
ख़ुद का वजूद वो रातो को खोजने लगी है।

रिश्तो की स्याही तो मिटने लगी है।

दुआ की दवा हुई बे-असर सी अब तो।
बीमारी मेरे मन में अब घर करने लगी है।

रिश्तो की स्याही तो मिटने लगी है।

चार दिन की चांदनी भी नसीब में नहीं शायद।
अंधेरे की चादर जिस्म मेरा ओढ़ने लगी है।

रिश्तो की स्याही तो मिटने लगी है।

भावार्थ...

1 comment:

Renu Sharma said...

theek kaha hai - rishte hote hi risane ke liye hain .