रिश्तो की स्याही तो मिटने लगी है।
धुआं रह गया आग तो बुझने लगी है।
रिश्तो की स्याही तो मिटने लगी है।
नज़र लगी नूर को कोसो दूर से कहीं।
ख़ुद का वजूद वो रातो को खोजने लगी है।
रिश्तो की स्याही तो मिटने लगी है।
दुआ की दवा हुई बे-असर सी अब तो।
बीमारी मेरे मन में अब घर करने लगी है।
रिश्तो की स्याही तो मिटने लगी है।
चार दिन की चांदनी भी नसीब में नहीं शायद।
अंधेरे की चादर जिस्म मेरा ओढ़ने लगी है।
रिश्तो की स्याही तो मिटने लगी है।
भावार्थ...
1 comment:
theek kaha hai - rishte hote hi risane ke liye hain .
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