Monday, February 20, 2012

दुनिया जीतने का खाब भुला मैंने...

दुनिया जीतने का खाब भुला मैंने...
खुद को जीतने का मन बनाया है...
कांच से चमकते आशियाने को छोड़...
मिटटी में रमने का मन बनाया है...

जिंदगी क्या है हर छिन बदलती काया...
सांस दिए सी पल पल जल बुझ रही है...
कोई किवदंती सी जो सुनी सुनी सी है...
या कोई पहेली सी जो बस उलझ रही है...

दर्द कोई छोटा नहीं और ख़ुशी कोइम बड़ी नहीं...
कहाँ से पैमाना शुरू हो और कहाँ ख़तम...
भंगुर रिश्तो की गहराई कैसे तय करूँ...
भीतर का सफ़र कहाँ शुरू हो और कहाँ ख़तम...

माया कोई हवा नहीं कोई अफकार नहीं...
भयावय दलदल है जिसमें डूबता जाता हूँ...
खुद ने जना है इसके कतरे कतरे को मैंने...
उबरने की तड़प है मगर डूबता जाता हूँ...

बस में क्या है मेरे कुछ भी तो नहीं...
भागने में गिरने तो कभी चलने में रुकने का डर है...
क्या हासिल मुझे और क्या हासिल नहीं...
पाने में खोने का तो कभी खोने में पाने का डर है...

पा भी लिया सब तो भी बसर अधूरा ही रहा...
बसर राह मिली तो भी सजर अधूरा ही रहा...
मंजिल मिल गयी  तो भी मंजर अधूरा ही रहा...
मंजर पे मैं हूँ मगर तो भी सफ़र अधूरा ही रहा...

तभी तो अधूरे सफ़र को पूरा करने को...

दुनिया जीतने का खाब भुला मैंने...
खुद को जीतने का मन बनाया है...
कांच से चमकते आशियाने को छोड़...
मिटटी में रमने का मन बनाया है...

भावार्थ...

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